कल वह हमारे शहर में था। मित्र है। लेखक मित्र। पहले मिलता था तो हम बैठते और बहुत सारी बातें कर लेते थे। अब वह शहर में भी आया हो तो बातें नहीं कर पाते। वह सदैव अध्यक्षता करता मिलता है। फ्री ही नहीं होता। या तो अध्यक्षता कर रहा होता है या फिर अध्यक्षता के किस्से सुनाने लगता है। वह लेखन और दोस्तियां त्याग कर अध्यक्षता का हो गया है। उसके दोस्त अब वही रह गए हैं जो उसे अध्यक्षता दिलवाएं। कल भी उसने शहर में दो जगह अध्यक्षता करी, और करके शाम की गाड़ी से निकल भी गया। रुकने, मिलने-मिलाने का फालतू टाइम नहीं था उसके पास। उसे यहां से निकल कर अन्य शहरों में पहुंच कर अध्यक्षता करनी थी। और, उन शहरों से भी तुरंत निकलना था क्योंकि अन्य और भी शहरों में उसे यही अध्यक्षता करनी थी। कार्यक्रम उसकी प्रतीक्षा में थे। गोष्ठियां, गोटियों सी बिछी थीं। उसके जीवन में अध्यक्षता की बिसात चौबीसों घंटे बिछी थी।… वह शहर शहर अध्यक्षता में रत है। उसके जीवन में अध्यक्षता ने इतनी जगह घेर ली है कि उसके शेष जीवन को पांव सिकोड़ कर बैठना पड़ रहा है। जीवन उसकी प्रतीक्षा में है।
शायद कभी अध्यक्षता से फुरसत मिले और वह जीवन को उस तरह से जीने की सोचे जिस तरह से जीने के लिए जीवन बना होता है। फिलहाल, ऐसा होता दीखता नहीं। अभी तो उसका जीवन एक अध्यक्षता से दूसरी अध्यक्षता तक की यात्रा बन कर रह गया है। उसका बस चले तो वह दो अध्यक्षताओं के बीच का जीवन भी अध्यक्षता में ही बिताए। उसकी चले तो वह निरंतर अध्यक्षता करता रहे, जैसे कि करतब दिखाने वाले लगातार पांच दिनों तक साइकिल चलाने का शो करते हैं न, ठीक वैसा। उसका मन करता है कि गोष्ठियां चलती ट्रेन में भी क्यों नहीं हो सकतीं जिसमें वह अध्यक्षता करता हुआ दिल्ली से रायपुर या शिमला वगैरह जाए। यात्रा सार्थक हो।
वह प्रोफेशनल किस्म का अध्यक्ष बन गया है। उसे कोई टिंबकटू से भी आमंत्रित करे, वह चल देता है। बल्कि दौड़ जाता है। वह सतत यात्रा में है। उसका पेटी-बिस्तर बंधा रखा रहता है। पुकारा कि चल देता है। अध्यक्षता करने के दौरान ही वह और अध्यक्षताओं का जुगाड़ कर लेता है। वह अध्यक्षता के बिना रह नहीं पाता। ‘लुक्क सी’ लगी रही है। पेट में मरोड़-सी उठती है। अध्यक्षता उसके लिए हाजत जैसी हो गई है। खुल के हो जाए तो चैन आ जाता है। वह राष्ट्रीय स्तर का अध्यक्ष हो चुका है। वह लेखन के लिए नहीं, अध्यक्षता के लिए मशहूर है। लोग मानते हैं कि कोई न मिला, तो ये तो हैं ही। आ ही जाएंगे।
वह इस कदर अध्यक्ष हो चुका है कि लगता ही नहीं कि वह और कुछ हो सकता था। उसकी रग-रग में अध्यक्षता बसी है। उसके व्यक्तित्व में अध्यक्षता इस कदर समाहित हो चुकी है कि कहां अध्यक्षता खत्म होती है और कहां वह स्वयं शुरू होता है, पता ही नहीं चलता। दरअसल, उसका शेष व्यक्तित्व गौण हो चुका है। उसने अध्यक्षता जैसी नाकुछ हरकत को एक ब्रांड वेल्यू मान लिया है। साहित्य के बाजार में उसका यह ब्रांड बन भी गया है। गोष्ठी, सेमिनार, वर्कशाप या बस ‘यूं ही वाले’ ग्राहक इसे खूब इस्तेमाल करते हैं। सस्ता पड़ता है। आसानी से उपलब्ध है। मोलभाव का बुरा नहीं मानता। मजा भी ठीकठाक दे जाता है। ग्राहक को और क्या चाहिए भला?
जब वह अध्यक्षता कर रहा हो तब उसे देखिए कभी- नख से शिख तक एक खामोखां टाइप की अध्यक्षता तारी रहती है पूरे व्यक्तित्व पर। आयोजक को एक ट्रेंड किस्म का ऐसा अध्यक्ष मिल जाए तो और क्या चाहिए! आजकल वह एकदम अध्यक्ष की भांति ही मुस्कुराता है। मुझे पता नहीं कि आपको अध्यक्ष टाइप की मुस्कुराहट का ठीक से पता भी है कि नहीं। न हो तो कभी उसे देख लीजिए। उसमें एक बात तो है भाई साहब। उसकी मुस्कान से अध्यक्षता झांकती है। वह एकदम बेवजह मुस्कुराता है। एकदम ही बेबात गंभीर भी हो जाता है। वह मसनद से टिके-टिके वक्ता की तरफ देखता हुआ मुस्कुराता है और श्रोताओं की तरफ पलटते ही झपाक से गंभीर भी हो जाता है। उसका मुंह ही अध्यक्ष जैसा निकल आया है। अध्यक्ष का मुंह आमतौर पर ऐसा होता है कि पता ही नहीं चलता कि जगा हुआ है कि सो रहा है। उसके होंठ बाहर की तरफ फैल कर फिक्स-से हो गए हैं जिससे उसके व्यक्तित्व में एक आत्मीय किस्म की अध्यक्षता आ गई है। वह इसी मुस्कान के साथ मनहूस भी हो लेता है। उसकी अध्यक्षता में यही बात चार चांद लगा देती है। वह दस मिनट मुस्कराने के बाद दस मिनट तक ऐसा मनहूस हो जाता है कि बिना और किसी कारण के चिंतक-सा लगने लगता है।
अध्यक्ष की एक अपनी ही विशिष्ट ‘बॉडी लेंगुऐज’ होती है।
यह बात मैंने इस बार उसे देख कर ही नोट की। अभी मैंने बताया कि वह मेरे शहर में आया था। मैं मिलने गया तो ध्यान से यह बात देखी। समय खूब था। वह अध्यक्षता कर रहा था। मैं श्रोताओं में बैठ कर प्रतीक्षा कर रहा था। वह स्टेज पर चढ़ा तो उसकी चाल कुछ अलग-सी थी। पता नहीं कि अध्यक्षता का बोझ था या कि चड्डी का नाड़ा टूट गया था- जो रहा हो, वह सहज नहीं था। वह बड़े ऐहतेहात से चल रहा था। नपे-तुले कदमों से, धरती पर अहसान करता हुआ-सा। उसे भ्रम था कि सबकी निगाहें उसी पर हैं। चलते-चलते उसने अपने पिछवाड़े पर दो-तीन बार हाथ भी फेरा। शायद डर रहा हो कि कहीं पैंट पीछे से फटी तो नहीं है?
अध्यक्ष से यह उम्मीद की जाती है कि वह फटी पैंट, विशेष तौर पर पीछे से फटी पैंट पहन कर अध्यक्षता करने नहीं पहुंच जाएगा। वह लगातार इस अहसास से पीड़ित लग रहा था कि लोग उसे देख रहे हैं। मंच के पास पहुंचते-पहुंचते उसे अचानक लगा कि वह ठीक से वैसा तना हुआ नहीं है, सो आखिरी दो मीटर का रास्ता उसने खूब तन कर तय किया, और कुर्सी पर जाकर ढीला होकर बैठ गया। पता नहीं, क्यों, आदमी सहज होकर अध्यक्ष क्यों नहीं बन सकता? उसे क्यों लगता है कि उसकी चाल, बैठने की भंगिमा अदि सब अलग होनी चाहिए। वह कभी गहरी श्वास लेता है, तो कभी रोक कर बैठ जाता। वह अध्यक्ष बनने की इतनी कोशिश कर रहा था कि आदमी लगना बंद हो गया था। अध्यक्ष रहते हुए वह पहचान में ही नहीं आ रहा था।
वह कभी लेखक भी था। अब, फुलटाइम अध्यक्ष है।
हर दिन वह कहीं न कहीं अध्यक्ष, मुख्य अतिथि या विशिष्ट अतिथि रहता है। कोई दिन खाली हो तो बड़ा बेचैन रहता है। लिखता नहीं। मन ही नहीं करता। लिखता है तो इतना लचर कि पढ़ कर दया आ जाए। उसका लेखन अध्यक्षता, शाल, श्रीफल, जुगाड़, फतवों और ओछी महत्त्वाकांक्षाओं की कब्र में दफ्न हो गया है। उसे कभी अध्यक्षता करते देखूं तो लगता है मानो वह इसी कब्र पर अपने लेखन का फातिहा पढ़ रहा हो। (ज्ञान चतुर्वेदी)