राकेश सिन्हा
समकालीन समाज में बुद्धिजीवियों की भूमिका विवादास्पद बनती जा रही है। चाहे भारत हो, यूरोप या लैटिन अमेरिकी देश, बुद्धिजीवियों को अपनी स्वीकार्यता के संकट से गुजरना पड़ रहा है। इसका एक बड़ा कारण है, उनमें मौलिकता और खुलेपन का ह्रास। वे व्यवस्था के बीच समर्थन या विरोध की कोल्हू चलाते हैं। स्वाभाविक ही उनकी रचनाओं में विवेक और चेतना को जागृत करने की क्षमता का ह्रास हुआ है। बुद्धिजीवियों के बीच विभाजन सिर्फ वैचारिक आधार पर नहीं, सांप्रदायिक, नस्ल, रंग और जातीय आधारों पर है। इसका परिणाम दुखद है। बुद्धिजीवियों के बीच परस्पर सम्मान और सामाजिकता का अंत होना है। इसने विमर्श के प्रगतिशील विकास की प्रक्रिया को क्षति पहुंचाई है। वास्तव में असहिष्णुता ने विचारों की दुनिया को ग्रसने का काम किया है। जब-जब बौद्धिक जगत ने सहिष्णुता और परस्पर सम्मान के साथ तर्क किया है, बौद्धिक संपदा की उपयोगिता बढ़ी है।
विचारों से जोड़ने वालों में बढ़ती जा रही कटुता
अमेरिका में बौद्धिक जगत राजनीति को लेकर पूरी तरह विभाजित है, तो ब्रिटेन में बौद्धिकों के बीच अघोषित तनाव है। जब यथार्थ को पढ़ने की क्षमता में कमी आती है तब बुद्धिजीवियों को राजनीतिक संरक्षण की आवश्यकता महसूस होने लगती है। भारत के बौद्धिक जगत में राजनीति से कहीं अधिक ध्रुवीकरण है। एक बड़ा वर्ग तो सीधे तौर पर राजनीतिक प्रचार-प्रसार का हिस्सा है। इससे उनके बीच कटुता बढ़ी है। अपने-अपने घरौंदे से तर्क और कुछ हद तक तथ्य भी सृजित किए जाते हैं। वामपंथी बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रवादी सोच के लोगों को बौद्धिक स्थान के लिए अनुपयुक्त मानकर उन्हें खारिज किया था। यह प्रक्रिया लंबे समय तक चलती रही। इसका परिणाम हुआ कि भारत के बौद्धिक वर्ग ने राजनीति को कम और राजनीति से अधिक प्रभावित हुआ है।
इसका पहला असर इतिहास लेखन पर हुआ और बाद में साहित्य और समाजशास्त्र भी विचारों की जंग का शिकार हुए। किसी समाज के बौद्धिक जीवन में यह स्थिति नई पीढ़ी को भ्रमित करती है और वह स्वयं को इस दुनिया से अलग रखने में अपना भला महसूस करता है। यह अत्यंत खतरनाक अवस्था को जन्म देता है। यही वर्ग राजनीतिक निर्णय और बोध की अनिश्चितता से गुजरता है।
इस नकारात्मकता के बीच ऐसे उदाहरण भी हैं, जो भले अपवाद हों, पर उनकी प्रभाव डालने की क्षमता असीम है। लैटिन अमेरीका के दो बुद्धिजीवी ग्रार्सिया मार्खेज और आक्तावियो पाज कमश: मार्क्सवादी और दक्षिणपंथी थे। मार्खेज क्यूबा के शासक फिदेल कास्त्रो के प्रशंसक थे, तो पाज आलोचक। दोनों सात किलोमीटर की दूरी पर रहते थे। दोनों कभी मिले नहीं। पर दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे और एक-दूसरे के प्रशंसक थे। यह संस्कृति लैटिन अमेरिका में विद्यमान रही, तभी सभी प्रकार की राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद बुद्धिजीवियों की क्षमता बनी रही।
भारत की बौद्धिक परंपरा में त्याग और सृजनशीलता दोनों विद्यमान रही हैं। वे भविष्य के रचनाकार रहे हैं। तभी तो व्यक्तिगत पीड़ा को बिना उफ किए पीते रहे और अपनी रचनाधर्मिता को प्रभावित होने नहीं दिया। प्राचीन और मध्यकाल की बात छोड़ दें, तो आधुनिक काल में भी यह प्रवृत्ति प्रबल रही है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक चिंतक और सक्रिय बुद्धिजीवी थे। उनकी कलम की ताकत के पीछे उनकी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता थी। 1903 की घटना है, जब ब्रिटिश राज्य और भारत के देशी राजाओं (होल्कर) के बीच समझौता हुआ था। तिलक पूरी तैयारी के साथ राष्ट्रविरोधी समझौते के खिलाफ संपादकीय लिख रहे थे, तभी उनके ज्येष्ठ पुत्र विश्वनाथ का निधन हो गया। मगर पुत्र की मृत्यु से अविचलित रहते हुए तिलक ने संपादकीय पूरा करवाया।
रवींद्रनाथ ठाकुर भी विकट स्थितियों के बावजूद संतुलित भाव से रचनाधर्मिता निभाते रहे। मां-पिता के अलावा पत्नी, पुत्र, पुत्री और भाभी की एक के बाद एक मृत्यु होती रही, पर वे व्यक्तिगत दुख को पीकर साहित्य को संवारते रहे। उन्होंने दार्शनिक भाव से लिखा कि मृत्यु उनके लिए मेहमान की तरह हो गई थी, जो आती और चली जाती थी। ऐसी ही विकट परिस्थितियों का सामना बाबा साहब आंबेडकर ने किया था। उन्होंने अपनी चार संतानों, जिनमें तीन बेटे और एक बेटी थी, को खो दिया था। मगर उन्होंने समाज सुधार के अपने लक्ष्य और संविधान निर्माण में अपने योगदान को व्यक्तिगत जीवन की घड़ी से तनिक भी प्रभावित होने नहीं दिया।
बुद्धिजीवियों में जब स्वयं के लिए अपेक्षा नहीं रहती, तब वे विवशता में नहीं जीते। वर्तमान से अधिक भविष्य को संवारते हैं। उनकी लेखनी को उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और आचरण मजबूत बना देते हैं। आज इसी वैशिष्ट्य की कमी दिखाई पड़ रही है। इस कमी ने बुद्धिजीवियों को परिवर्तन के मिशन से अलग कर दिया है। उनकी गंभीरता को भी घटाया है।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब चिंतकों और दार्शनिकों ने अपनी भौतिक विपन्नता को सहर्ष अंगीकार किया। पर उनके चिंतन में उत्कृष्टता अतुलनीय रही है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बिपिन चंद्र पाल श्रेष्ठतम चिंतकों में से एक थे। उन्होंने तब स्वतंत्रता आंदोलन को ताकत दी थी और आज भी उनका लेखन राष्ट्रीय और सभ्यतायी चेतना को समृद्ध करता है। मगर पाल के जीवन का यथार्थ उनकी मृत्यु के बाद पता चला। अंग्रेजी अखबार ‘द स्टेट्समेन’ ने 22 मई, 1932 को उन पर अपने संपादकीय ‘लोकतंत्र की कृतघ्नता’ में उन राष्ट्रवादी अखबारों और लोगों को उलाहना दिया कि ‘तब वे कहां थे, जब इस ईमानदार राष्ट्रवादी के पास जीवन जीने का कोई साधन नहीं था।’
अखबार ने लिखा कि इस बात को जानते हुए भी कि वे साम्राज्यवाद विरोधी हैं और अखबार का संपादक और मालिक यूरोपीयन है, हमने एक ईमानदार राष्ट्रवादी को अपने अखबार में स्तंभ लेखन दिया। उसने अंत में लिखा कि ‘हमारी फाइल में अनेक ऐसे पत्र पड़े हुए हैं, जो साबित करते हैं कि भारत के इस योग्यतम राष्ट्रवादी के पास जीवन जीने का दूसरा वैकल्पिक साधन नहीं था।
भारत की नई पीढ़ी को प्रभावित करने वाले स्वामी विवेकानंद के जीवन में पीड़ादायक क्षणों की कमी नहीं थी। पर उनका कर्मयोग उनसे अप्रभावित था। विवेकानंद ने विदेशों में अपने भाषणों से हजारों डालर और पौंड अर्जित कर भारत में दरिद्रनारायण के लिए भेजा, पर स्वयं वे कंगाली की हालत में थे। इसका प्रमाण खेत्री के राजा अजीत सिंह को लिखा उनका पत्र है। दोनों मित्र थे और सिंह विवेकानंद में असीम श्रद्धा रखते थे। उन्होंने दो अलग-अलग पत्रों में राजा से अपनी मां के लिए रहने लायक एक घर बनाने और उन्हें सौ रुपए प्रतिमाह देने का आग्रह किया था। उन्होंने लिखा था कि उनकी मां अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में रह रही हैं।
बौद्धिकता सिर्फ स्वाध्याय और सृजन नहीं है। उसमें आचरण की पवित्रता और लक्ष्य की शुद्धता होना आवश्यक है। यही बुद्धिजीवियों को ताकत देती और उनकी कृतियों को दीर्घकालिकता प्रदान करती है। भारत में शास्त्रार्थ की परंपरा सहिष्णुता पर आधारित विपरीत मतों के बीच प्रतिद्वंद्विता थी। उसमें सामाजिकता का भाव लुप्त नहीं होता था। वर्तमान संकट का निदान अपनी विरासत में झांकने और उन प्रवृत्तियों को जीवित करने में है, जो चिंतकों को स्वायत्त और साहसी बनाती है। इसके अभाव में बुद्धिजीवी कलम का सिपाही के बजाय कलम का क्रेता-विक्रेता बनकर रह जाता है। समाज के लिए मजबूत बौद्धिक जगत की आवश्यकता सभी युगों में बनी रहती है। बुद्धिजीवी पर ही इस वातावरण के निर्माण और परिणाम दोनों बनाने की चुनौती है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)