पिछले सप्ताह जिंदगी में पहली बार ऐसा लगा मुझे कि मैं दिल से कट्टर राष्ट्रवादी हूं। यह भावना पैदा हुई जब टीवी पर बार-बार सुनने को मिला कि राष्ट्रवादी होना गलत बात है, क्योंकि अक्सर राष्ट्रवाद के परदे में छिपा रहता है फासीवाद। यूरोप से लिया गया यह शब्द जब भारत में इस्तेमाल होता है तो सिर्फ हिंदुत्ववादियों के लिए। जिहादी तंजीमें, चाहे सजाए-मौत सुनाती हों, अपने आलोचकों को फासीवाद नहीं कहलाती हैं अपने सेक्युलर देश में।

खैर, मुझमें जो राष्ट्रवादी होने का अहसास पैदा हुआ, वह और दृढ़ हो गया संसद में जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी वाले मसलों पर बहस सुन कर। इसलिए, क्योंकि मैंने देखा कि समाजवादी, अर्ध-समाजवादी और मार्क्सवादी राजनीतिक दल, सब एक तरफ हो गए थे राष्ट्रवाद की निंदा करने के लिए और रवींद्रनाथ ठाकुर और बाबा साहेब आंबेडकर का सहारा ले रहे थे अपनी बातों को शक्ति देने के लिए।

मेरे कई पत्रकार बंधु राष्ट्रवाद के इस विरोध से खूब प्रभावित हुए। लेकिन मैं नहीं हुई। शायद इसलिए कि दशकों से राजनीति पर लिखने के बाद इतना जान गई हूं कि इन समाजवादी राजनेताओं की बातें अक्सर खोखली निकलती हैं। इस बार भी एक तरफ तो लोकतंत्र के नाम पर दलीलें दे रहे हैं जेएनयू के छात्रों की बोलने की आजादी के लिए तो दूसरी तरफ यही लोग हैं, जिन्होंने लोकतंत्र को हमेशा कमजोर किया है।

इन्होंने सेक्युलरिज्म के नाम पर ऐसे राजनेताओं का समर्थन किया है, जिन्होंने लोकतंत्र की आड़ लेकर अपने पुत्र-पुत्रियों को सौंपे हैं पूरे के पूरे राजनीतिक दल। ऐसा करने के बाद जाहिर है कि इनके बच्चे ही पहुंचते हैं संसद में और वे जगह ले लेते हैं, जो उनकी होनी चाहिए जो वास्तव में देश की सेवा करना चाहते हैं। मेरा मानना है कि इस लोकतांत्रिक सामंतवाद के कारण अपने भारत देश का हाल यह हुआ है कि आम नागरिक रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है आज भी और अपने जनप्रतिनिधि रहते हैं ऐशो-आराम से आलीशान कोठियों में, जहां न पानी का अभाव महसूस करते हैं, न बिजली कभी गुल होती है। क्या ऐसे भारत पर हमको गौरवान्वित होना चाहिए या शर्मसार?

शर्मसार होने के बदले पिछले सप्ताह चर्चा इस पर भी हुई वरिष्ठ राजनीतिक पंडितों और बुद्धिजीवियों के बीच कि क्या अपनी प्रिय भारत माता को बदल डालने की कोशिश की जा रही है मेरे जैसे राष्ट्रवादियों द्वारा, जिसको समाजवादी, सेक्युलर राजनेता यहां तक लाए हैं? मेरी अपनी राय है कि वर्तमान भारत में परिवर्तन की सख्त जरूरत है और इस परिवर्तन की उम्मीद से ही नरेंद्र मोदी को इतना बड़ा जनादेश दिया है इस देश के मतदाताओं ने। सुनिए जरा भारत का हाल आंकड़ों के आईने में। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक हर दूसरा भारतीय बच्चा कुपोषित है। भारत की सत्तर फीसद से ज्यादा आबादी इतनी गरीब है कि बीस रुपए रोजाना पर गुजारा करने पर मजबूर है। विश्व बैंक के आंकड़े ये भी बताते हैं कि दुनिया के सत्रह प्रतिशत गरीब लोग भारत में रहते हैं।

इन आंकड़ों को जेहन में रख कर उस तरफ भी नजर डालें कि हमारे अधिकतर बच्चों को इतने रद्दी सरकारी स्कूलों में पढ़ाई करनी होती है जिनमें न अध्यापक होते हैं न पढ़ाई। अन्य सरकारी सुविधाओं का उतना ही बुरा हाल है, चाहे अस्पताल हो या सार्वजनिक यातायात की सेवाएं। फिर इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि भारत के शहर और देहात इतने गंदे हैं कि विदेशी पर्यटक जब आते हैं तो हैरान रह जाते हैं। हमारी धार्मिक संस्थाओं और पवित्र नदियों का तो इनसे भी बुरा हाल है। इसके बाद आप अपने से पूछिए कि ऐसे भारत पर हमको गर्व करना चाहिए या इसमें परिवर्तन लाने की गुहार और तेज करनी चाहिए।

मुझे विश्वास है कि मोदी को पूर्ण बहुमत तीस वर्षों बाद इसलिए मिली, क्योंकि इस देश का आम आदमी जानता है अच्छी तरह कि परिवर्तन की जरूरत गंभीर है। इस देश का आम आदमी अगर आज तक क्रांति करने पर नहीं उतरा है तो सिर्फ इसलिए कि हमारे सेक्युरलरवादी राजनेताओं की बातों में आकर हमारे समाज के कई वर्ग इस बहकावे में आ चुके हैं कि अगर समाजवादी, सेक्युलर राजनीतिकों को वोट नहीं देता है वह तो भारत की अखंडता को खतरा है। ऐसा है नहीं, लेकिन मोदी के अठारह महीने के शासनकाल पर नजर डालें तो साफ दिखेगा आपको कि प्रधानमंत्री को परिवर्तन के रास्ते से भटकाने के लिए कितनी बार किसी न किसी मुद्दे के बहाने हंगामे खड़े किए गए हैं।

मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के अगले दिन ही इंडियन एक्स्प्रेस में कांग्रेस के वरिष्ठ राजनेता और गांधी परिवार के वफादार मणिशंकर अय्यर का एक लेख छपा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि भारत के आसमान में अब घोर अंधेरा छा गया है। अकेले नहीं थे इस बात को कहने में। याद कीजिए कि तकरीबन यही बात सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने भी कही थी चुनाव होने से पहले भी।

सो आश्चर्य नहीं होना चाहिए हमें कि हर दूसरे महीने कोई नया मुद्दा लेकर संसद को चलने नहीं दिया गया है और सड़कों पर उतर कर आ गए हैं ऐसे राजनेता, जिनके दलों को कुल मिला कर लोकसभा में इतनी थोड़ी सीटें प्राप्त हुई 2014 के आम चुनाव में कि आज भी नेता प्रतिपक्ष की जगह खाली है। इसके बावजूद इन विपक्षी दलों ने संसद को न चलने देने के बहाने इतने ढूंढ़े हैं कि कई सत्र ऐसे गुजरे हैं जिनमें बहस तक होने नहीं दी गई है। पिछले सप्ताह जेएनयू और रोहित वेमुला पर जब बहस होने दी तो मेरी राय में जीत राष्ट्रवादियों की हुई, लेकिन शायद इसलिए कि इस वातावरण में मैं खुद राष्ट्रवादी बन गई हूं।