अशोक वाजपेयी
नया निजाम जब से आया है, तब से किसी न किसी रूप में भाषा का मुद्दा उठता रहता है। उस पर ऐसे सब लोग बोलते, फैसला और फतवे देते रहते हैं, जिन्हें भाषा पर कुछ भी सार्थक बोलने की कोई पात्रता नहीं है। सही है कि भाषा सबकी संपत्ति है और उसमें बढ़ते बाजारूपन के बावजूद अभी बेची-खरीदी नहीं जा रही है: उसे सीखना और सावधानी से बरतना होता है। ऐसे यंत्र आ गए हैं, जिनसे आप बिना भाषा कायदे से सीखे, भाषा का उपयोग कर सकते हैं। ऐसा माहौल भी बनता जा रहा है, जिसमें भाषा ज्ञान-रचना का माध्यम न होकर निरी सूचना की चेरी हुई जा रही है। ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं जो भाषा आनंद और ज्ञान के लिए सीखते-पढ़ते हैं। पिछली सदी में ही एक कवि तमक कर पूछ चुका है: ‘कहां है ज्ञान जिसे हम सूचना में गंवा चुके हैं?’
एक बहुत सुसंस्कृत समझे जाने वाले राज्य की मुख्यमंत्री ने अपने विरोधियों पर निशाना साधते हुए बांस का एक अश्लील रूपक बांधा। बरसों से मुखर राजनेता होने के अलावा वे कलाकार और कवयित्री भी हैं। फिर भी, वे अपने अनियंत्रित क्षोभ में भाषा के साथ ऐसा अत्याचार करने से बाज नहीं आर्इं! एक और राजनेता हैं जो साध्वी भी हैं। साधु-साध्वियों का काम समाज में सद्भाव फैलाना होता है। पर उन्होंने अपनी तुक्कड़ी में अल्पसंख्यकों को हरामजादे बता दिया, अपने धर्म के लोगों को रामजादे बता कर। यह भी एक किस्म की अश्लीलता ही है। आप चाहें तो इसे आध्यात्मिक अश्लीलता कह सकते हैं। जो भी हो, ये सभी भाषा के साथ हिंसक सुलूक करने के उदाहरण हैं।
भारत विश्व के भाषाई नक्शे पर एक विशिष्ट भाषा-क्षेत्र माना जाता है। वहां भाषा के प्रति ऐसी लापरवाही या उसके साथ ऐसा कदाचार सार्वजनिक जीवन में लगातार होता चले, यह विचित्र है। भाषा को लेकर हमने सार्वजनिक जीवन में पाखंड बरतने की एक आधुनिक परंपरा ही विकसित कर ली है। विशेषत: सत्ता-तंत्र अर्थात राजनीति और प्रशासन में यह पाखंड विकराल और अदम्य है। इन क्षेत्रों में अक्सर जो कहा जाता है वह दरअसल किया नहीं जाता।
जाहिर है, भाषा कोई पवित्र चीज नहीं है: वह समय और परिस्थिति के साथ बदलती है। उसमें नए रूप और अभिव्यक्तियां लगातार शामिल होते रहते हैं, जो उसके जीवंत होने का प्रमाण भी है। लेकिन सारे परिवर्तन के बावजूद यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि भाषा हमारी जातीय स्मृति भी है: वह सूचना नहीं ज्ञान भी है। उसकी कुछ मर्यादाएं हैं, जिनका उल्लंघन करने से सामाजिक संप्रेषण भोंथरा होता है, सामाजिक समरसता विखंडित होती है। सौभाग्य से, भाषा की न कोई अदालत है, न कोई व्यवस्थित तंत्र। उसकी यह अराजकता, लेकिन उसमें की गई असभ्यता का बचाव नहीं हो सकती। जो भाषा में असभ्य है वह राजनीति या धर्म में भी असभ्य होगा। भाषा आपका बुनियादी चरित्र भी प्रकट करती है।
प्रार्थना के शिल्प में :
चार्ल्स कोरिया भारत के श्रेष्ठ वास्तुकारों में गिने जाते हैं, जिनकी विश्वकीर्ति भी है। दशकों पहले भोपाल के भारत भवन के वास्तुकार वही थे और उस दौरान उनसे परिचय हुआ, जो अच्छी मित्रता में बदल गया। जब मिलते हैं बहुत गरमजोशी से मिलते हैं: राजनीति, कला, सत्ता, परंपरा आदि के बारे में कोरिया अलग ढंग से और तीक्ष्णता से सोचते हैं, जो उनके काम में भी जाहिर होता रहता है। अपने वास्तु में उन्होंने कई भारतीय अभिप्रायों जैसे आंगन, कुंड, मंडल, पवित्र ज्यामिति आदि को अपने ढंग से शामिल कर एक ऐसा मुहावरा विकसित किया है, जो आधुनिकता और परंपरा को द्वैत की तरह नहीं, निरंतरता की तरह बरतता है। वे उन आधुनिकों में से हैं, जो हमारी परंपरा के पुनराविष्कार को संभव और वांछनीय दोनों मानते रहे हैं।
हाल के वर्षों में उन्होंने तीन विदेशी प्रोजेक्ट पूरे किए हैं, जिनमें द एमआइटी ब्रेन ऐंड काग्नीटिव साइंसेज कांप्लेक्स कैंब्रिज (अमेरिका), द चाम्पलीमोद सेंटर फॉर द अननोन लिस्बन (पुर्तगाल) और इस्माइली सेंटर टोरंटो (कनाडा) शामिल हैं। एक त्रयी बनती है: ज्ञान, अज्ञात और प्रार्थना। ज्ञान की खोज, अज्ञात का रहस्य और प्रार्थना का शिल्प। विस्मय, अद्भुत और ध्यान मनन की त्रयी। हम इन दिनों हर चीज को निरा साधन या उपकरण मानने के इस कदर आदी हो गए हैं कि सोच भी नहीं सकते कि वास्तुकला मात्र साधन नहीं है- वह वक्तव्य भी है, उसमें वास्तुकार की दृष्टि भी चरितार्थ होती है कि वह कैसे पहले से दिए गए संसार में अपना लोक रचता और उसे उस दिए हुए में ही अवस्थित करता है।
इस गहरे अहसास से बच पाना कठिन है कि चार्ल्स कोरिया अपनी इन तीन कृतियों में हमारे समय में वास्तु का एक नया अध्यात्म प्रस्तावित कर रहे हैं। सब कुछ को ज्ञेय मानने की जहनियत के बरक्स यह जानने की सीमा का एहतराम है: यह सृष्टि के प्रति मानवीय रहस्यभाव का पुनर्जागरण है, यह मनुष्य को उसकी सारी विजयों और उपलब्धियों के बाद भी विनय में अवनत करना है। हमारे समय में, कई भारतीय अभिप्रायों को पुनर्नवा करते हुए, यह एक आधुनिक और सार्वभौम वक्तव्य है। यह ऐसे घर बनाना है जहां ज्ञान, रहस्य और पवित्रता एक-दूसरे के पड़ोस में हैं: आपस में बतियाते हुए। यह असीम के बगल में अपनी सीमाओं को साथ लिए बैठना है।
चार्ल्स ने कुछ दिनों पहले जब टोरंटो के सेंटर के चित्र भेजे तो उन्हें देख कर मैं दंग रह गया। अब यह खेद मनाता हुआ बैठा हूं कि चार्ल्स जैसे वास्तुकार को भारत में ऐसे रूपाकार रच सकने के अवसर और साधन क्यों नहीं मिल पाए? माना कि अंतरराष्ट्रीयता का दौर है, पर हम तो एक संकीर्ण राष्ट्रीयता की फिर चपेट में हैं। उसमें तो चार्ल्स का ईसाई होना भी उन्हें मुश्किल में डाल सकता है। हमारी वास्तु-परंपरा अद्भुत रूप से प्रयोगशील और निर्भीक रही है। उस उजले उत्तराधिकार को हम लगभग रोज गंवाने पर उतारू हैं। जरा सोचिए कि हम अपने समय में स्वतंत्रता के बाद ऐसे कितने रूपाकार याद कर सकते हैं, जिन्हें वास्तु के रूप में विश्वस्तर का माना जा सके?
भारतीय चित्रकला पर एक गौरव-ग्रंथ :
ब्रजेंद्रनाथ गोस्वामी संभवत: भारत के इस समय सबसे विश्व प्रसिद्ध कला-इतिहासकार हैं। उनकी अस्सी की हो चुकी आंखें चित्रपकी और कविता-पगी आंखें हैं। वे जब कुछ दिखाते हैं या किसी पहाड़ी मिनिएचर से हमारा साक्षात कराते हैं, तो हम उसमें वह सब देखते हैं, जिसे उन्होंने बारीकी और समझ से, संवेदना और खुलेपन से देखा-पाया है और जिसे हम उनके दिखाए बिना शायद कभी न देख पाते। हाल ही में उन्होंने एक अद्भुत पुस्तक प्रकाशित की है: ‘द स्पिरिट आॅफ इंडियन पेंटिंग: क्लोज एनकाउंटर्स विद 101 ग्रेट वर्क्स 1100-1900’। पेंगुइन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का दाम कम रखने की गरज से रज़ा फाउंडेशन ने वित्तीय मदद की है। एक लंबी सुचिंतित भूमिका के अलावा 101 चित्रों की रंगीन प्रतिकृतियां और हरेक पर छोटे-मोटे लेख इस सुप्रकाशित पुस्तक में संकलित हैं।
हमारी कला-परंपरा में नामहीनता का पक्ष भी रहा है। हम आज तक अपनी महान कला-कृतियों के चित्रकारों, स्थपतियों, मूर्तिकारों के नाम तक नहीं जानते। डॉ. गोस्वामी ने इस बारे में भी बहुत काम और खोज की: वे हरिद्वार के पंडों की बहियों से कुछ पहाड़ी चित्रकारों के ब्योरे निकाल लाए हैं। एक खूबी यह भी है कि वे चित्रों को धर्मों, साहित्य, ऐतिहासिक घटनाओं, सामाजिक स्थितियों से जोड़ कर देखते-दिखाते हैं और यह भी बहुत मार्मिक ढंग से बताते हैं कि किस तरह का जीवन था, चित्रकार का और उस समय के समाज का, जिसमें से ये चित्र निकले।
चित्रों को डॉ. गोस्वामी ने चार खंडों में रखा है: विजन्स, आब्जर्वेशन, पैशन और कांटेम्प्लेशन। वे ऐसा कोई दावा नहीं करते कि जो चित्र उन्होंने चुने हैं वे हरेक को सर्वश्रेष्ठ लगेंगे। पर उनकी रुचि इतनी गहरी और समृद्ध है, उनका ज्ञान इतना विशद और उनकी अभिव्यक्ति इतनी सरस कि उनसे लगातार सहमत होना लगभग अनिवार्य हो जाता है। उनमें इतिहासकारों की कुख्यात रूखी और तथ्यबोझिल शैली उनके काव्यप्रेम, संवेदनशीलता, गहरी और अदम्य रसिकता से बराबर अतिक्रमित होती चलती है। जब वे किसी चित्र में लगभग अलक्षित किसी ब्योरे की ओर ध्यान दिलाते हैं तो उसमें कुछ अभूतपूर्व देख पाने का सुख और विस्मय दोनों ही एक साथ होते हैं। निश्चय ही अब भारतीय चित्रकला पर यह एक गौरव ग्रंथ है, जिसे ज्ञानवर्द्धन और रसास्वादन दोनों के लिए पढ़ा-देखा जा सकता है।
भूलसुधार- पिछले सप्ताह के ‘कभी-कभार’ के तीसरे खंड में दो भूलें हुर्इं। सही वाक्य इस प्रकार हैं- हम परिसंवाद की एक सीरीज ‘आर्ट मैटर्स’ को वर्षों से लगभग हर महीने चला रहे हैं।… उस ट्रस्ट ने एक बड़ी राशि हमें दे भी दी।’ हमें यानी रज़ा फाउंडेशन को।
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