अशोक लाल

खुद रामलला के वकील, हमारे कानून मंत्री, रविशंकर प्रसादजी ने मन को एक नूतन दिव्य प्रकाश से धन्य किया है। उन्होंने कहा कि भारतवर्ष हमेशा से समाजवादी और सेक्युलर (पंथनिरपेक्ष) रहा है और आजादी के तीस साल बाद भी रहा, तो इन शब्दों का भार बेचारे नाजुक संविधान के कंधों पर क्यों डाला जाए! यह बात पथ से भटके हुए, भारतवर्ष से अज्ञान और अज्ञानी पश्चिमी देशों में पढ़े नेहरू तक को मालूम थी। उन्होंने कहा है कि यह विचार बहस योग्य है। (बाकी सारे मुद्दे तो खैर मंत्रिमंडल निपटा ही लेगा, क्योंकि वे राम आसरे हैं) उनके एक साथी मंत्री ने इस व्याख्यान को फालतू बताया है और दोनों की माताजी और उनके चहेते श्रेष्ठ पुत्र ने इस पर अभी चुप्पी साधी हुई है। जब भी परिवार के सदस्यों से अलग-अलग आवाजें उठती हैं, हिंदू राष्ट्र की माताजी श्रेष्ठ की चुप्पी ही जीतती है। संविधान की उद्देशिका (प्रिएंबल) में भारत को ‘संप्रभुता संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणतंत्र’ बनाने की बात लिखी गई है, सो ठीक है, मगर ‘हिंदू-राज्य’ तो पर्यायवाची है, प्रजा और सभी पंथों के साथ बराबरी का- इसमें कहने की क्या बात है!

एक कहानी मजाक के तौर पर मैं सालों से सुनता आ रहा था, मगर उसकी गंभीर महत्ता और सीख की जानकारी रामलला के नुमाइंदे रविशंकर प्रसादजी के मार्गदर्शन से ही प्राप्त हुई है। एक मछली बेचने वाला किसी विज्ञापन एजेंसी के पास गया और अपना धंधा बढ़ाने के लिए राय मांगी। विज्ञापन एजेंसी ने उससे कहा कि वह अपनी दुकान पर यह लिखवा ले: ‘इस दुकान में ताजा मछली बिकती है’। दूसरे दिन मछली वाला शान से यह एलान अपनी दुकान पर लगा कर अपने धंधे के बढ़ने के सपने देखने लगा। ग्राहक कुछ खास बढ़े नहीं। तभी एक मित्र ने सलाह दी, ‘‘भैया, दुकान खोले बैठे हो तो मछली बेचने के लिए, तो ‘बिकती है’ कहना भरती की बात है- इन शब्दों को निकाल दो।’’

अगले दिन दुकान के बोर्ड पर लिखा था ‘इस दुकान में ताजा मछली’- मगर इससे भी बिक्री में कोई बढ़त नहीं हुई। एक और मित्र ने टोका, ‘इस दुकान में से क्या मुराद? भैया, तुम किसी और की दुकान में जाकर थोड़ा ही बेचोगे।’ तो, अगले दिन बोर्ड पर इबारत बची ‘ताजा मछली’। जब धंधे में फिर भी कोई बढ़त नहीं हुई, तो उसके बेटे ने राय दी कि ‘ताजा’ लिखने से बेकार ग्राहक के मन में शंका आ जाती है, तो उस शब्द को भी हटा दिया गया। जब सिर्फ ‘मछली’ शब्द बचा तो मछली वाले ने खुद ही सोचा कि मछली बेचता हूं यह तो सबको दिखाई देता ही है। इसे भी रखने से क्या फायदा। फिर अगले दिन से बोर्ड हटा लिया गया और धंधा वैसे ही, बिना फालतू के शब्दों के बोझ के, चुपचाप चलता रहा। ठीक भी है: मछली को मछली या ताजा को ताजा कहने की क्या जरूरत है या हमारे देश को मात्र दिखावे के लिए इन नई फैशनेबल चीजों जैसे समाजवादी और सेक्युलर (पंथनिरपेक्ष) की दुकान क्यों बनाया जाए।

वाकई, यह सीधी-सी बात इतने सालों से सरकारों को क्यों नहीं सूझी? खैर, अब तक नहीं सूझी तो कोई बात नहीं- वह तो कांग्रेस की साजिश थी, मगर अब हम उदार माताजी के दृष्टिकोण से संचालित भारत-विज्ञापन की कला में माहिर सरकार की बात कर रहे हैं।

अब जब बेकार दूषित शब्दों से मुक्त ‘स्वच्छ संविधान’ का अभियान चल ही पड़ा है, तो उद्देशिका के अन्य अनचाहे शब्दों पर नजर डाल ली जाए और देश के गौरव को बढ़ाया जाए। अब ‘लोकतंत्रात्मक’ शब्द पर विचार कीजिए- इतिहास साक्षी है कि हमारे सारे हिंदू राजा प्रजापालक थे, सारी जनता के माई-बाप थे, सब उनकी छत्रछाया में सुखपूर्वक रहते थे। (उदाहरणों की सूची दीनानाथ बतराजी की देखरेख में बनाई जा रही है- फिलहाल सिर्फ एक नाम मिल पाया है, और शीर्ष पर भगवान श्रीराम का नाम है, तो बाकी नामों की जरूरत बची ही कहां!) लोकतंत्र की प्रणाली को तो विदेशों से आयात कर उसे भारत के संविधान में डाला गया, इसकी क्या जरूरत थी? अब जब हमारे हुक्मरान पुश्तैनी ढंग से हमारे देश की महान प्राचीन सभ्यता के कर्णधार हैं, तो लोकतंत्र जैसे बेमानी शब्द का भार भी संविधान के कंधों से उतार देना चाहिए।

अब आगे चलते हैं। उद्देशिका में जिक्र है ‘आर्थिक और राजनीतिक न्याय’ का। ‘आर्थिक न्याय’ का नाम लेना भी आज की सरकार पर तोहमत है। अपनी लगभग पहली बड़ी घोषणा में ही सरकार ने इसका खुलासा कर दिया था। कैंसर और ब्लड प्रेशर के साथ-साथ अन्य जानलेवा बीमारियों की दवाइयों की कीमतों पर जो पाबंदियां लगी थीं उन्हें हटा कर बेचारे कॉरपोरेट्स के साथ आर्थिक न्याय का झंडा गाड़ दिया गया था। बिचौलियों के प्रति आर्थिक न्याय के लिए रोजाना की जरूरतों की चीजों, जैसे फलों-सब्जियों, दालों-तेलों वगैरह के दामों को उड़ने की आजादी दे दी गई।

‘मेक इन इंडिया’ के तहत अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में बागडोर देने के साथ आर्थिक न्याय पर मुहर लग गई। राजनीतिक न्याय! भारत की परंपरा रही है कि ताकतवर राजनेताओं पर कभी आंच न आने पाए। अब शक्तिमान अमित शाहजी के खिलाफ जितने भी गंभीर आरोप थे उनको एक ही झटके में जिस तरह खत्म किया और उनके वकील को तरक्की देकर जज बना दिया गया, उससे न सिर्फ न्याय, बल्कि चट आरोप पट न्याय की ताबड़तोड़ मिसाल कायम की गई। भाजपा के कई सांसद भी इस बात की मिसाल हैं। यानी जाहिर है, ये शब्द भी फालतू हैं।

फ़ैज़ का एक शेर है: ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है’। उद्देशिका में आगे चल कर ‘विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता’ का जिक्र तो है, मगर ‘आहत हो जाने के ढोंग’ की स्वतंत्रता का कोई जिक्र नहीं। यह तो सरासर अन्याय है। अगर सिर्फ इस एक स्वतंत्रता को जगह दे दी जाती, तो बाकी स्वतंत्रताएं खुद-ब-खुद खत्म हो जातीं। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बिल्कुल सही है, अगर वह सरकार के प्रति ‘हां’ या ‘जी हां’ तक सीमित हो।

इसकी एक बहुत अच्छी मिसाल है भाजपा की मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी किरण बेदीजी का अद्भुत फुर्ती से राष्ट्रीय सेवक संघ के गुणों पर विचार और उसकी अभिव्यक्ति करना। धर्म और उपासना की स्वतंत्रता- अब इस विषय में तो संघ की उदारता की अनगिनत जिंदा मिसालें हैं- ‘हरामजादों’ की ‘रामजादों’ के रूप में घर वापसी एक जीती-जागती मिसाल है। एक और मिसाल है: पिछले पखवाड़े में चार चर्चों की अग्निपरीक्षा!

उद्देशिका में दर्ज ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समानता, व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र की एकता और अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता’ जैसे आदर्श तो कालांतर में बेमानी साबित हो चुके हैं। इसलिए इन्हें भी समाजवाद और पंथनिरपेक्षता के साथ-साथ दफना देने से ‘विकास’ की राह के रोड़े कम हो जाएंगे।

एक बड़ा प्रश्न यह है कि अगर उद्देशिका में ही इतनी सारी गैरजरूरी और गलत चीजें हैं, तो पूरे संविधान में न जाने कितनी और चीजें होंगीं जो बेकार हैं। मगर परेशानी यह है कि संविधान में रद्दो-बदल करने में संविधान ही आड़े आता है। संसद में विधेयक न पारित करा पाने की हालत में तो अध्यादेश जारी किए जा सकते हैं, पर संविधान को पराजित करने के लिए केवल बहुमत से काम नहीं चलेगा।

 

 

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