जेएनयू क्रांतिकथा जितनी सड़क पर बनी, उतनी से ज्यादा चैनलों के कवरेजों और चर्चाओं में बनी। एक दिन ‘जेएनयू बचाओ’ वालों का रहा तो अगला दिन राष्ट्र बचाओ वालों का रहा। तिरंगे दोनों के पास रहे। एक रोज जेएनयू के देशद्रोही नारों को कंट्रोल करने के लिए रिटायर्ड जवानों का मार्च आयोजित दिखा, जिसमें और बहुत-से शामिल दिखे जो ‘देशद्रोहियों’ को सजा की मांग करते थे, ‘भारत माता का अपमान, नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे’ के नारे लगाते थे। जब एक चैनल में जेएनयू पर बहस के लिए एक पूर्व सेनाधिकारी आए और बोले तो ऐसा लगा कि अगर जेएनयू अब भी लाइन पर नहीं आया तो टैंक ही लगा देंगे।

एक रोज रोहित वेमुला के समर्थन में जंतर मंतर पर बीसियों हजार की भीड़ थी। भीड़ के बीच एक किनारे खड़े होकर राहुल भीड़ को संबोधित करते थे और दूसरे किनारे उसी वक्त केजरीवाल बोलते थे। एक दूसरे माइक में एक दूसरे की अवाजें सुनाई पड़ती थीं। भीड़ हो और नेता न पहुंचे, यह असंभव है।
चैनलों में आयोजित बहसें तर्कों की नई तरकीबों की पोल खोलती थीं। शुरुआती अड़ियल लाइन बदल गई थी। देशद्रोह के नारों के आरोपों से घिरे एक वामपंथी प्रवक्ता कहते- ‘हम भारत की बर्बादी का नारा लगाने वालों की निंदा करते हैं, ‘बट’; ‘लेकिन’ हम ‘डिस्सेंट’ के पक्ष में हैं।’

जिन छात्रों पर देशद्रोह के नारे लगाने या लगवाने के आरोप रहे, वे कहने लगे कि हम उनके साथ नहीं हैं, न हमारी वह लाइन है। लेकिन ‘डिस्सेंट’ का विरोध करने का हक हमें है! एंकर या कोई ‘देशभक्त’ प्रवक्ता क्रोध में भर कर आरोप लगाता कि आप लोग ‘देशद्रोहियों’ का साथ दे रहे हैं, जबकि पंपोर में हमारे छह जवान मारे गए हैं, जिनमें से एक जेनएयू का भी छात्र था तो इसका जबाव इस तरह आता- ‘हम ‘अफजलवादी’ नारों और उनको लगाने वालों की निंदा करते हैं, लेकिन हम ‘विरोध’ करने की आजादी’ के हक में हैं।

इस तरह की बहस के बीच एनडीटीवी पर शेखर गुप्ता ने कहा कि ऐसे नारे कश्मीर में लगते रहते हैं। लेकिन ये देश इतना नाजुक नहीं है कि कुछ छोकरों के नारों से टूट जायगा!

कुछ शब्द इतनी बार बोले कि सबके दिमाग पर छा गए। इनके मानी न खुले, न किसी ने साफ किए, लेकिन बोले इतनी बार गए कि दिमागों को भिन्नाते रहे। मसलन, सिडीशन, देशद्रोह, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रद्रोह, नेशनलिस्ट, एंटी नेशनलिस्ट, आइडिया ऑफ इंडिया, भारत की बर्बादी, आजादी आजादी, बंदूक, अफजल, पब्लिक मनी, कम्युनिस्ट, वामंपथ, राष्ट्रवादी, देशभक्त, एजंडा, खाते यहां का गाते पाकिस्तान का, तिरंगा, जवान, कुर्बानी, शहीद, गद्दार, एबीवीपी, संघ, बीजेपी, एसएफआई, आइएसएफ, आइसा, डीएसयू माओवादी…।
एबीपी खालिद के पुश्तैनी घर तक पहुंच गया जहां से उसका रिपोर्टर उस उजाड़ छोड़ दिए गए घर के बारे में बताता जाता था कि खालिद के माता-पिता अब कहां रहते हैं और यह घर एकदम खंडहर है।

टीवी का सारा स्पेस ‘देशभक्ति’ बनाम ‘देशद्रोह’ ने इस कदर छेक लिया कि जब जाट आंदोलन ने हरियाणा के छह-सात जिलों में तांडव मचाया तो भी बहुत बड़ी खबर नहीं बनी। हां, जब रोहतक जला, उसका बड़ा बाजार जला तब खबर बनी।

जाट आंदोलन को एबीपी के नपिंदर सिंह ने रोहतक के जले उजड़े बाजार के बचे हुए दुकानदारों से बातचीत को प्रसारित किया। यहां दिल दहलाने वाले सीन थे। सब कुछ राख कर दिया गया था, दूर तक गाड़ियां जली पड़ी थीं। शहर में सन्नाटा था। यह लूटमार जितनी बड़ी खबर थी, उतनी नहीं बनीं, न उसने जरूरी बहसों को जन्म दिया।

चैनलों के लिए जेएनयू की क्रांतिकथा सबसे बड़ा आइटम थी। इस आंदोलन को दिखाने में जो मजा था, वह जाट आंदोलन में कहां था! जेएनयू की कहानी थी ही उत्तेजक, जिसके नायक युवा थे, जिसमें देशभक्ति बनाम देशद्रोह की फाइट का मनचाहा मसाला था।

सारी बहसों और कवरेज के बाद जेएनयू का ‘रूमानी क्रांतिकारिता’ का मिथक और भी क्रांतिकारी-सा बन गया। एक दो अवाजें यह भी कहती दिखीं कि प्रशासन एवं पुलिस ने मामले को सही तरीके से हैंडिल नहीं किया। यही नहीं, एक ओर ‘देशभक्त’ चैनल दूसरी ओर लुटियंस वाले जिमखाने वाले ‘चैनलों’ पर आपस में टकराती कहानियां। तिस पर जेएनयू को पाठ पढ़ाने और उसे बचाने को लेकर एंकरों की अपनी राजनीति ने कहानी को इस कदर आउट आॅफ कंट्रोल कर दिया कि प्रशासन तो निशाना बना ही, जेएनयू की भी धुनाई हो गई। एंकरों से ऐसी तुच्छता की उम्मीद नहीं थी।

जेएनयू कांड के दूसरे राउंड में कन्हैया की जगह खालिद ने ले ली। सीएनएन-आइबीएन ने उसे बोलते दिखाया- ‘एक चैनल को इतना गुस्सा आता है। टाइम्स नाउ में एक आदमी है (हंसी)। पहली बार लगा कि मैं मुसलमान हूं। मुझे सिर्फ एक पहचान में तब्दील कर दिया गया। वे हमें देशभक्ति सिखा रहे हैं। सरकार देश को बेच रही है…!’ खालिद जुझारू तेवर में था। खालिद के तीन साथियों से एक अंग्रेजी एंकर ने बेहद आत्मीय बातचीत की-

एंकर- ‘प्रो-अफजल नारे किसने लगाए?’ जेएनयू का छात्र- ‘जिन्होंने लगाए वे जेएनयू के छात्र नहीं थे! हम निंदा करते हैं।’ दूसरा छात्र- ‘उसको मुसलमान होने के लिए टारगेट किया गया। हम छह को टारगेट किया गया!’

कन्हैया को पीटने वाले वकील ने इंडिया टुडे के कैमरे में एक भयानक बात कही- ‘मैं फिर जाऊंगा काला कोट पहन के उस (कन्हैया) को फिर मारूंगा। मैं पेट्रोल बम ले जाऊंगा। जेल में जाऊंगा तो वहां मारूंगा उसे। पुलिस हमें सपोर्ट कर रही थी।’

भाजपा के एक नेता ने जेएनयू पर तोहमतों की तोप ही चला दी- ‘जेएनयू में तीन हजार कंडोम पड़े मिलते हैं। अबॉर्शन के लिए जेएनयू में पांच हजार इंजेक्शन पड़े मिलते हैं। दस हजार सिगरेट के टुर्रे और दो सौ बोतलें शराब की पड़ी मिलती हैं। शाम के आठ बजे के बाद यहां डर्टी डांस होता है और ‘ड्रग्स’ का साम्राज्य होता है!’

एनडीटीवी की उत्तप्त बहस के बीच सिर्फ सांसद दिनेश त्रिवेदी ने एक समझदारी की बात कही- ‘अपने गुस्से को ठंडा करिए!’