शुरू में कहना जरूरी है कि जिस दिन खबर मिली सुबह सवेरे पिछले हफ्ते कि हमारी वायु सेना ने पाकिस्तान के अंदर घुस कर जिहादी ठिकानों पर बम गिराए हैं, मुझे गहरी शांति महसूस हुई। ऐसा लगा जैसे बहुत सारे पुराने जख्म भरने लगे हैं। मैं मानती हूं कि बिल्कुल इसी किस्म की भावनाएं करोड़ों भारतीयों की रही होंगी पिछले मंगलवार की सुबह। इसलिए कि पाकिस्तान के जिहादी हमले चुप करके बर्दाश्त किए हैं हमारे राजनेताओं ने इतनी बार कि भारत एक कमजोर, लाचार देश दिखने लगा है हमारी अपनी नजरों में। जब 26/11 वाला हमला हुआ था, मेरे जैसे लोगों ने समझा था कि हम जरूर कुछ करके दिखाएंगे। मगर हुआ सिर्फ यह कि हमारे प्रधानमंत्री जब शर्म-अल-शेख में उस हमले के बाद पहली बार मिले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से, तो उनके सामने प्रस्ताव रखा आतंकवाद पर बातचीत करने का। तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने जवाब दिया कि अगर मुंबई की बातें होंगी, तो बलूचिस्तान की भी बातें करनी होंगी। हमारे प्रिय डॉक्टर साहब राजी हो गए बिना यह सोचे कि बलूचिस्तान की तुलना 26/11 के साथ करना गलत है। भारत की खुफिया संस्थाएं अगर बलूचिस्तान में आतंकवाद फैला रही हैं, तो इतनी नाकाम रही हैं कि कोई बात ही नहीं है करने की।
मनमोहन सिंह या कांग्रेस पार्टी को दोष क्या देना, जब भारतीय जनता पार्टी के पहले प्रधानमंत्री ने भी जिहादी आतंकवाद के सामने घुटने टेक दिए थे। आईसी 814 के यात्रियों के बदले अगर मौलाना मसूद अजहर को रिहा न किया होता अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 के आखिरी हफ्ते में तो मुमकिन है कि पुलवामा में हमारे चालीस बहादुर जवान शहीद न होते, संसद पर 2001 वाला हमला न हुआ होता। सो, वायु सेना ने पिछले सप्ताह जो करके दिखाया उससे गर्व भी होता है और शांति भी महसूस होती है। बहुत सारे पुराने घाव भरने लगे हैं थोड़े-थोड़े। अब समय है पाकिस्तान के इस कायर युद्ध को पूरी तरह समाप्त करने की रणनीति तैयार करने का। ठोस रणनीति तभी बन सकेगी, जब हम पाकिस्तान के असली चरित्र को समझने का प्रयास करेंगे। हमारे देश में बहुत सारे राजनेता और राजनीतिक पंडित हैं, जो ऐसा अब भी मानते हैं कि पाकिस्तान में दो किस्म के शासक हैं। एक वे जो चुनावों को जीत कर आते हैं और दूसरे वे जो पाकिस्तानी सेना के ऊंचे ओहदों पर पहुंचने से शासन में आते हैं। हमारे प्रधानमंत्री उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं, जो लोकतांत्रिक तरीकों से शासन में आते हैं बिना यह समझे कि असल में उनके हाथ में शासन है ही नहीं। चुनाव जीतने के बावजूद वे गुलाम रहते हैं पाकिस्तान के जरनैलों के और जब भी गुलामी की बेड़ियां तोड़ने की कोशिश करते हैं, तो उनको हटा दिया जाता है किसी न किसी तरह। जिनकी लोकप्रियता ज्यादा होती है उनको दुनिया से हटा दिया जाता है और जिनकी उतनी नहीं है उनको राजनीतिक बिसात से हटा दिया जाता है।
कहने का मतलब यह है कि पाकिस्तान के साथ अगर हम वास्तव में शांति बहाल करना चाहते हैं, तो हमको स्वीकार करना होगा कि जिहादी संस्थाएं भी मोहरा हैं पाकिस्तानी सेना के हाथ की और इमरान खान जैसे चुने हुए प्रधानमंत्री भी। बिसात एक ही है, जिस पर इन मोहरों को चलाने वाले हैं वर्दी वाले, जिनको शांति शब्द से नफरत है, क्योंकि वास्तव में अमन-शांति का माहौल बन जाता है दोनों देशों के बीच तो इन वर्दी वालों का क्या होगा? शांति तभी आएगी जब भारत के शासक समझ जाएंगे कि उनको दिखाना होगा हर तरह से कि वे पाकिस्तान की इस जिहाद का मुकाबला कर सकते हैं डट कर, जैसा हमने पिछले हफ्ते करके दिखाया था। आज तक जो हमने हर जिहादी हमले के बाद कुछ किया नहीं है उसको हमारी कमजोरी समझा गया है, हमारा साहस और संयम नहीं।
जिहादी आतंकवाद का सामना अगर करना होगा हमें दिलेरी दिखा कर, तो साथ-साथ अपनी आर्थिक शक्ति भी इतनी बढ़ानी होगी ताकि आम पाकिस्तानी को महसूस होने लगे कि भारत आगे निकल गया है उसके देश से, क्योंकि उन चीजों में निवेश नहीं हुआ है जिससे देश खुशहाल होते हैं। पाकिस्तान अगर आज कंगाल है तो उसका मुख्य कारण यही है कि उसके सालाना बजट का तकरीबन तीस फीसद हिस्सा सेना पर खर्च होता है, आम लोगों के लिए बेहतर सुविधाएं तैयार करने पर नहीं। इसका भी उपाय है पाकिस्तान के जरनैलों के पास। उन्होंने आम पाकिस्तानी के दिमाग में मजहब कूट-कूट कर भर दिया है ताकि वह ध्यान ही न दे सके कि उसके लिए आम सुविधाओं का कितना अभाव है।
इमरान खान जब प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें की थीं पाकिस्तान को एक ऐसा देश बनाने की, जिसमें आम लोगों के लिए बेहतरीन अस्पताल, स्कूल और अन्य आम सेवाएं उपलब्ध हों और शायद ऐसा करना भी चाहते थे। लेकिन इन चीजों के लिए पैसा कहां से आएगा, जब मुख्य बजट सेना की सुविधाओं पर ही खर्च होता रहे? ये पाकिस्तान की अंदरूनी समस्याएं हैं। हमारी समस्या यह है कि हमारे शासक दशकों से अमन-शांति की बातें करते आए हैं उन लोगों से, जिनके हाथों में अमन-शांति लाने की ताकत ही नहीं है। भविष्य में हमको उन जरनैलों से ही बातचीत करनी चाहिए, जिनके हाथों में यह ताकत है। लेकिन बातचीत करने से पहले उनको दिखाना होगा कि जब भी जिहादी हमला होगा भारत पर, उसका जवाब हम उसी तरह देंगे जैसे पिछले हफ्ते दिया था। सैनिक शासक शक्ति की भाषा समझते हैं, कमजोरी की नहीं। नरेंद्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं इंदिरा गांधी के बाद, जिन्होंने पाकिस्तान को दिखाया है कि सख्ती से पेश आना भारत अच्छी तरह जानता है।