अपूर्वानंद
‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, यह सिर्फ किसी एक व्यक्ति की आत्मकथात्मक दुविधा नहीं। समाज और राष्ट्र अक्सर इस प्रश्न से जूझते हैं। राष्ट्रों और समुदायों का निर्माण स्मृति और विस्मृति के आधार पर ही होता है। ऐसी स्मृति और विस्मृति का संबंध चयन, प्रयास और निर्णय से है। इसका अर्थ यह है कि यह वैसी अनायास या स्वाभाविक नहीं, जैसी कई बार दीखती या दिखाई जाती है। यह नैतिक है और राजनीतिक भी। प्रत्येक स्मृति का मूल्य या मान एक ही नहीं। हम स्मृतियों के बीच प्राथमिकता का क्रम भी स्थापित करते हैं। यह क्रम स्थायी हो, आवश्यक नहीं। कई बार याद करना और भूलना रणनीतिक हो सकता है। कोई स्मृति संभव है, वर्तमान को इतना विचलित कर दे कि हम उसे व्यावहारिक कारणों से स्थगित कर देना श्रेयस्कर समझें। स्थगन का अर्थ विस्मरण या स्मृति-लोप नहीं। स्मृतिविहीनता एक हीनतर मानवीय अवस्था मानी जाती है। इसलिए कोई व्यक्ति, समुदाय या समाज भूलना नहीं चाहता।
स्मृति अगर हमेशा कुछ खो जाने या किसी श्रेष्ठ अवस्था से च्युत हो जाने की ही है तो उसके बारे में सोचने की आवश्यकता है। मसलन, कोई समाज अगर अपने स्वर्णिम अतीत की याद में जीता रहता है, तो इसका मतलब यही है कि वह वर्तमान अकर्मण्यता का स्रोत खुद के भीतर न खोज कर किसी और को उसके लिए दोषी ठहराना चाहता है। उच्च पद से पतन की याद आत्मदया की ओर तो ले ही जाती है, उनके प्रति घृणा पैदा करती है, जिन्हें इस पतन के लिए जिम्मेदार माना जाता है। आत्मालोचना या आत्मपरीक्षण की जगह घृणा का निर्माण और फिर उसके सहारे हिंसा का संगठन अगर स्मृति की परियोजना का अभिन्न अंग हो तो उस स्मृति को छोड़ देना श्रेयस्कर माना जाना चाहिए।
आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की सामुदायिकता या सामूहिकता में स्मृति का व्यापार जटिल हो उठता है। स्मृतियां एक-दूसरे से टकराती हैं या एक-दूसरे को सहारा देती हैं? राष्ट्र के रूप में नई सामुदायिकता का निर्माण विविध पारंपरिक सामुदायिकताओं के विलोप से होगा या उनके नए सम्मिलन से। क्या उनके बीच ऐसा कोई समझौता मुमकिन है, जो एक के दूसरे में विलीन हुए बिना परस्परता का नया समीकरण निर्मित कर सके। जैसा पहले कहा गया, इसके लिए अपेक्षित होगा स्मृतियों का पुन:संयोजन। इसलिए भारत जैसे मुल्क में साझा जिंदगी की यादों पर बल दिया जाना उचित माना जाता है और उन यादों को किनारे कर देने की वकालत की जाती है, जो भारत नामक नई सामूहिकता में किसी भी प्रकार की दरार डाल सकती हैं।
क्या याद रखने लायक है और क्या भूल जाना चाहिए? क्या चार सौ साल पहले की एक ‘याद’ जीवित रखी जाए, जो किसी जन्मस्थल के ‘ध्वंस’ की है और बीस साल या दस साल पहले का सामूहिक हत्याकांड भुला दिया जाए? क्या एक साल पहले की कत्लोगारत को भूल कर फिर से साथ रहना शुरू कर दें?
इन सारे प्रश्नों पर विचार करने में आसानी तब होगी, जब हम यह देखें कि भूलने को कौन कह रहा है। क्या कातिल ही मकतूल को कत्ल भुला देने की सीख दे रहा है, ताकि उसकी आगे की जिंदगी पुरसुकून हो?
अभी कुछ दिन पहले श्रीलंका के प्रमुख महिंदा राजपक्षे ने तमिलों से अतीत भूलने का आह्वान किया। उन्होंने कहा, ‘हमें एकजुट हो जाना चाहिए। अतीत को भूल जाइए और आइए साथ मिल कर इस देश का निर्माण करें।’ कोई चालीस हजार तमिलों की हत्या और तमिल राष्ट्रवादी अभियान को पूरी तरह कुचल देने के बाद निरंकुश सत्ता के अहंकार के साथ दिया गया राजपक्षे का यह वक्तव्य अपील से ज्यादा तमिलों को धमकी और चेतावनी की तरह सुनाई पड़ता है। यह इसलिए कि उसके साथ ही उन्होंने कहा कि वे श्रीलंका में किसी भी तरह के ‘अरब-वसंत’ को सहन नहीं कर सकते।
स्मृतियों के पुनर्गठन और पुन:संजोयन के दो उदाहरण हैं: एक यूरोप द्वारा यहूदियों के संहार की स्मृति का संगठन और दूसरा, इजराइल द्वारा एक यहूदी अतीत की स्मृति का गठन। पहले उदाहरण में हम यूरोप को हिटलरी संहार की पुनरावृत्ति रोकने की प्रेरणा पाते हैं। वह याद यातनाप्रद है, लेकिन वह उस समाज को अपने भीतर छिपी हिंसा के प्रति सजग रखती है। उसमें आत्मालोचना और आत्ममंथन निहित है। दूसरी ओर इजराइल है, जो महान यहूदी अतीत का नए राष्ट्र के रूप में फिर से सृजन करना चाहता है। वह एक प्रकार से स्मृति का समुदाय है।
दार्शनिक मार्ग्लित अविशाई ने ‘स्मृति की नैतिकता’ में स्मृति के प्रति अपने माता-पिता के भिन्न रवैयों की चर्चा की है। मां के अनुसार यहूदियों के लिए एकमात्र सम्मानजनक काम स्मृति के समूहों का गठन है। उन्हें आत्मा के चिराग बन जाना चाहिए, वैसे जो मृतकों की स्मृति में जलाए जाते हैं। उनके उलट अविशाई के पिता ऐसे समुदाय को श्रेय मानते थे, जो भविष्योन्मुखी हो और वर्तमान के प्रति संवेदनशील। आलिदा ऐसमन का कहना है कि 1945 से तकरीबन चार दशक तक तो इजराइल अविशाई के पिता के मुताबिक चला, लेकिन उसके बाद वह अधिक से अधिक अतीतोन्मुखी होता गया और उनकी मां की इच्छा के अनुरूप स्मृति के समुदाय के रूप में ही खुद को गठित करने लगा।
स्मृति-समुदाय के रूप में खुद को संगठित करने के यहूदी इजराइल अभियान का परिणाम अरबों, खासकर फिलस्तीनियों के खिलाफ हिंसा के तीव्रतर और क्रूरतर होते जाने में हो रहा है। वह अपने ऊपर हुए अत्याचारों की स्मृति को ढाल बना कर अपनी आज की आक्रामकता को वैध ठहराता है। इसलिए भी वह अधिकतम असुरक्षित राष्ट्र है कि वह एक अलग-थलग स्मृति समुदाय है, उसमें किसी अन्य समुदाय की कोई भागीदारी नहीं है। वह इस स्मृति को अन्य सभी स्मृतियों से श्रेष्ठ भी मानता है।
स्मृति और हिंसा के संबंध को पहचानना आज के राष्ट्र-समुदायों के लिए अत्यंत आवश्यक है। उसके साथ ही स्मृति और न्याय के संबंध पर विचार करना। एक तरफ भारत-पाकिस्तान के निर्माण को भारत के आपराधिक बंटवारे की तरह याद रख कर उसके मुजरिम की तलाश जारी रखना और दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद ध्वंस, गुजरात के कत्लेआम, असम, मुजफ्फरनगर को भूल जाने की अपील: इन दोनों में स्मृति के प्रति एक सुविधाजनक और मौकापरस्त रवैया है और उसकी चतुराई छिप नहीं पाती।
इस्लामिक स्टेट में भी किसी खो गई खिलाफत की याद के आधार पर एक वैश्विक इस्लामी समुदाय के गठन की कल्पना है, जो अन्य आधारों पर गठित राष्ट्रों को अनावश्यक दूषण और उनसे खुद को पवित्र करने के लिए किसी भी हिंसा को जायज मानती है।
स्मृति का उपयोग घृणा और हिंसा के लिए हो रहा है या शांति और सद्भाव के लिए, इससे उसका मूल्य तय होगा। यह शायद किसी भी समय एक समाज पर लागू होगा, लेकिन आज के समाज के लिए और भी जरूरी हो उठता है, जिसे किसी भी अमिश्रित सामुदायिकता की अंतर्मुखता की सुविधा नहीं है। इसका अर्थ यही है कि ऐसी स्मृति, जिससे सिर्फ एक प्रकार की धार्मिक, जातीय या राष्ट्रीय संवेदना उत्तेजित हो, हिंसा का स्रोत होगी ही। स्मृति और न्याय का संबंध भी विचारणीय है। क्या स्मृति की बलि इस कारण कि न्याय से बचा जा सके? न्यायविहीन समाज अ-स्वस्थ समाज ही हो सकता है।
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