अर्चना वर्मा
वीरेंद्र यादव ने ‘पार्टनर’ की ‘पालिटिक्स’ पर सवाल उठाते हुए अपनी तरफ से यह तो साफ कर दिया है कि ‘‘इस चर्चा का आशय यह नहीं है कि जो इस आयोजन में शामिल हुए वे बिक गए या अपने विचारों से उनका विचलन हो गया।’’ फिर भी इस सदाशयता के बावजूद इतना जरूर तय कर दिया है कि वहां जाने वाले लेखकों को अपने किए पर लज्जित होना चाहिए, जबकि वे ‘‘बजाय अपने किए पर लज्जित होने के, विचारधारा पर ही पलटवार करने की रक्षात्मक मुद्रा अपना रहे हैं।’’ उनका सवाल है, ‘‘क्या उन लेखकों को इस आयोजन में शामिल होना चाहिए था, जो नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे के मुखर विरोधी रहे हैं?’’
साफ उन्होंने और भी बहुत कुछ कर दिया है। जैसे कि ‘‘यह सवाल उनसे नहीं है, जिनके लिए राजनीति या विचार कभी चिंता का विषय नहीं रही’’, और प्रकारांतर से यह भी कि राजनीति और विचार की चिंता की इजारेदारी किसके पास है और उस नाते कौन सफाई मांगने का हकदार है और जवाबदेही किसकी है। इस क्रम में यह भी साफ हो ही गया है कि विचार और राजनीति से उनका मतलब एक खास ब्रांड की राजनीति और विचार से है। इस समूचे प्रकरण में अधिक शर्मनाक बात उनको यह लगती है कि इसमें कुछ ऐसे लेखक भी शामिल हुए, जो वामपंथी लेखक संगठनों से जुड़े हुए हैं। यानी कि मामला राजनीति और विचार के ब्रांड से अधिक लेखक-संगठनों के अनुशासन का है।
जाहिर यह भी है कि यह वामपंथी लेखक-संगठनों का घरेलू कलह है; शायद अनुशासन और निर्देश के निष्प्रभाव हो जाने और लेखकों के बेकाबू हो जाने की चिंता से उत्पन्न हुआ है। बाहरी लोगों के लिए इसमें कूदने की जगह तो नहीं, क्योंकि जैसा कहा, सवाल उनसे किया ही नहीं गया है, लेकिन अगर अखबार में उठा कर इस घरेलू सवाल को लोकवृत्त में लाया और सार्वजनिक बनाया ही गया है, तो जो चाहे सो कूद पड़ने के लिए स्वयं को आमंत्रित मान सकता है।
तो पहली बात यह कि लेखकीय स्वतंत्रता सबसे बड़ी और सबसे ऊपर है, क्योंकि सर्जनात्मक नवोन्मेष का दारोमदार उसी के ऊपर है। उस पर प्रतिबंध का मतलब हम नहीं जानते कि हम आने वाली दुनिया को किस उपहार से वंचित करने जा रहे हैं। रूस के खुलने के बाद वाईगोत्स्की, बाक्तिन, इल्येनकोव जैसे विचारकों के जैसे-तैसे बच रहे अवदान से थोड़ा अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि जो नहीं बचा वह कितना रहा होगा।
दूसरी बात यह कि ‘सत्ता’ के साथ लेखक के रिश्ते में विरोध को अनिवार्य, अवश्यंभावी और अपरिहार्य मानते हुए हमारे दिमाग में शायद सत्ता का सर्वसत्तावादी नक्शा ही मौजूद होता है। लोकतंत्र में सत्ता के अर्थ, चरित्र और लोक के पास उसको परिभाषित करने की क्षमता को साहित्य के संदर्भ में अभी हमने पहचानने और आकलित करने की कोशिश नहीं की है। लेखक के साथ सत्ता के संबंध को लेकर स्वयं वामपंथ का आचरण भी दुनिया भर में सर्वसत्तावादी ही रहा है।
लोक द्वारा चुन कर दे दी गई सरकार के साथ यथा-अवसर असहमति और प्रतिरोध को कायम रखते हुए भी संवाद की एक संकरी ही सही, पगडंडी को खोज निकालना और न मिले तो अपने कदमों के निशानों से उसे रचते रहना लोकतंत्र में बहिष्कार की अपेक्षा कहीं ज्यादा कारगर पद्धति हो सकती है। बहिष्कार के मौके भी बेशक होंगे, लेकिन उनके चुनाव को लेकर मतभेद और असहमतियां भी होंगी और अपने-अपने अलग-अलग विकल्प भी।
तीसरी बात, यह साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बताने वाले प्रेमचंद के प्रसिद्ध उद्धरण के हवाले से वीरेंद्रजी जब कहते हैं ‘‘साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं, उसके आगे आगे चलने वाला एडवांस गार्ड है’’ तो विरोधी राजनीतिक सत्ता के आसपास फटके बिना वे इस भूमिका को चरितार्थ करने का कौन-सा कार्यक्रम प्रस्तावित करते हैं? अगला दस्ता या एडवांस गार्ड आगे-आगे चलने के लिए पास जाकर, आगे जाकर खड़ा नहीं होगा, तो आगे-आगे चलेगा कैसे? सच है कि आत्मावलोकन और आत्मालोचना की ईमानदार कोशिश जरूरी है, लेकिन यह उसका कोई खास और अलग मौका नहीं, वह तो हर वक्त जरूरी हुआ करती है। और इस बात की गारंटी भी कोई नहीं कि आत्मावलोकन और आत्मालोचना उन्हीं नतीजों की तरफ ले जाएगी, जो आपने पहले से तय करके रखे हैं।
चौथी बात, और मेरे लिए इस बहस में शामिल होने के लिए निर्णायक बात भी, यह कि हमला नरेश सक्सेना का नाम लेकर किया गया है, जो मेरे प्रिय कवि हैं, और जाहिर है कि वीरेंद्रजी के भी, और मित्र हैं ही, इसलिए हमले में संवाद की मुद्रा दिखाई देती है। मैं मानती हूं कि मंच भले सरकारी हो, लेखक की वाणी अगर वहां से निर्बंध बोलती है, तो उसमें मंच को परिभाषित करने की ताकत होती है। तब लेखक के वहां विराजमान होने के बाद वह लेखक का मंच होता है। उसकी आवाज मंच तक सीमित नहीं रहती, सुनने वाले के दिमाग में वह सत्ता के निर्देश के अनुसार दर्ज नहीं हुआ करती। सरकार की मंशा भले इन उपस्थितियों के सहारे खुद को जनतांत्रिक होने की वैधता प्रदान करने की हो, इतने बड़े पैमाने पर लेखक और श्रोता-समुदाय की उपस्थिति और उनके संप्रेषण-संवाद की तरंगें उसे अपनी निर्मित छवि को सच करने और सचमुच जनतांत्रिक होने की दिशा में धकेल भी सकती हैं।
आलेख में नरेशजी को उद्धृत किया गया है- ‘‘मैं तो शामिल हो रहा हूं। इतना तो है कि वहां मुक्तिबोध के नाम पर चर्चा होगी, वरना तो वे हनुमान-चालीसा पर बात करते।’’ वीरेंद्रजी के लिए यह ‘‘स्तब्धकारी’’ था कि ‘‘उस दल की सरकार के ‘साहित्यिक महोत्सव’ में शामिल होने के लिए मुक्तिबोध के नाम का उल्लेख ही पर्याप्त आधार हो।’’ लेकिन वाकई, क्या इसे एक नई दिशा में ले जाने वाले दरवाजे के लिए दीवार में सेंध फोड़ लेने के उपक्रम, अभियान या जोखिम के अवसर में बदल देना एक बेहतर और सकारात्मक विकल्प नहीं है, जैसा कि नरेश सक्सेना ने किया?
वीरेंद्रजी को आशंका है कि ‘‘अभिव्यक्ति की आजादी पर बाह्य खतरों के साथ ही खुद के विरोधी विचारों द्वारा अनुकूलित किए जाने का भी खतरा है।’’ जिस आलेख में शुरू से आखिर तक अभिव्यक्ति की आजादी के व्यवहार के लिए लेखकों से जवाब तलब किया जा रहा हो उसमें अभिव्यक्ति की आजादी के बाहरी-भीतरी खतरों की आशंका विचित्र और विस्मयजनक लगती है। ‘‘खुद के विरोधी विचारों द्वारा अनुकूलित किए जाने का खतरा’’ का आशय क्या है? क्या लेखक अपने किन्हीं अंतिम रूप से निश्चित विचारों को लेकर उसी बिंदु पर खड़ा-खड़ा सदा सर्वदा के लिए जड़ हो चुका होता है? क्या उसकी सर्जना एक निरंतर आविष्कार की यात्रा नहीं होती? क्या वह कभी भी किसी विचारक या आलोचक की तरह अंतिम सत्य पा चुके होने के सुरक्षा-कवच में खुद को कस पाता है? क्या वह बजाय खुद अनुकूलित होने के, विरोधी विचारों को अपने अनुसार अनुकूलित कर लेने के जोखिम उठाने से खुद को रोक सकता है? क्या वह विरोधी विचारों में भी अचानक किसी सत्य की झलक पा लेने और अपने अब तक के वैचारिक कवच के छिन्न-भिन्न हो उठने के खतरे से डर सकता है? क्या वीरेंद्रजी नहीं मानते कि उपलब्ध मंच का बहिष्कार लेखक का आत्मनिर्वासन भी हो सकता है?
वीरेंद्रजी ने अपने सवाल ‘जनसत्ता’ में उठाए हैं। 22 दिसंबर के इंडियन एक्सप्रेस में नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने नरेंद्र मोदी की कुछ नीतियों के साथ सहमति, कुछ अन्य के साथ असहमति अभिव्यक्त करते हुए कहा, ‘‘मैं श्री मोदी का आलोचक हूं, लेकिन मुझको कहना पड़ेगा कि उन्होंने जन-मन में यह आस्था पैदा कर दी है कि कुछ किया जा सकता है। मेरे विचार से यह खासी बड़ी उपलब्धि है। यह उनके लिए मेरी तरफ से एक प्रशस्ति है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्षता और अन्य मुद्दों पर हमारा मतभेद खत्म नहीं हो जाता।’’
मुझे नहीं मालूम अमर्त्य सेन हिंदी साहित्य के वामपंथ के लिए किस कोटि के विश्वसनीय वामपंथी हैं, लेकिन मुझे वे हिंदी के वामपंथियों से ज्यादा विश्वसनीय प्रतीत होते हैं।
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