नरेश सक्सेना
रायपुर साहित्य समारोह पर वीरेंद्र यादव की टिप्पणी (जनसत्ता, 21 दिसंबर) सफेद को काला करने और प्रतिष्ठित रचनाकारों सहित अपने प्रगतिशील साथियों पर कालिख पोतने की एक शर्मनाक कोशिश है। चालाकी ऐसी है कि अपना पलायन और कायरता तो त्याग और क्रांतिकारिता लगे और जिन्होंने भाजपाई सरकार के मंच पर अत्यंत प्रभावी ढंग से हिंदुत्ववाद का विरोध और प्रधानमंत्री के भाषणों के अंधेरे कोनों को उजागर किया, और हजारों श्रोताओं की चेतना को झकझोरा वे खलनायक सिद्ध हो जाएं।
वे स्वयं तो गए नहीं- न वहां का कुछ देखा-सुना, न ही किसी प्रत्यक्षदर्शी से पूछा- फिर भी अपनी पूर्वनियोजित घृणा और झूठ की स्क्रिप्ट में मेरे रमन सिंह से हाथ मिलाने वाले फोटो को प्रमाण की तरह दिखाते हुए तथ्यों को सिर के बल खड़ा कर दिया।
हुआ यह कि मुख्यमंत्री स्वयं दर्शकों के बीच मेरी कुर्सी के सामने अभिवादन करते हुए आकर खड़े हो गए। इतना समय नहीं था कि फोन करके वीरेंद्र यादव से पूछ लेता कि नमस्कार का जवाब दूं या नहीं। इतनी अशिष्टता भी मुझमें नहीं कि अभिवादन का उत्तर न देता। वे इसी तरह अन्य रचनाकारों के पास भी गए। लेकिन, संयोग से, फोटो मेरा छप गया।
अगर इस कार्यक्रम का प्रभावी विरोध करना था तो तीन तरीके हो सकते थे।
पहला यह कि अखिल भारतीय स्तर पर हम सब तय करते कि रायपुर कोई नहीं जाएगा; लेकिन न तो प्रगतिशील लेखक संघ ने राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का निर्णय किया, न छत्तीसगढ़ प्रलेस ने बहिष्कार की घोषणा की।
दूसरा, रायपुर में उन्हीं तारीखों में एक समांतर मंच खड़ा करके सभी रचनाकारों और जनता का आह्वान किया जाता कि वे कहीं और न जाकर हमारे मंच पर आएं और विरोध दर्ज करें। यह भी नहीं किया गया।
तीसरा और अंतिम विकल्प यह था कि हम सरकारी मंच पर जाते और प्रभावशाली ढंग से हिंदुत्ववाद, सांप्रदायिकता और पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करते और अपने पक्ष में जनमत तैयार करते। यही हमने किया और पूरी ताकत से अभूतपूर्व सफलता के साथ किया।
लेकिन वीरेंद्र यादव के पास एक चौथा विकल्प भी था कि चुपचाप मुंह छिपा कर बैठ जाओ। दुर्भाग्य से उन्होंने यही निष्क्रिय और पलायनवादी विकल्प चुना और अब दूसरों पर कीचड़ उछाल रहे हैं।
क्या वे उस समारोह के साक्षी दो-चार लोगों से पूछ नहीं सकते थे कि वहां क्या हुआ? दरअसल, यह समय इतना पतनशील है कि घटिया बातों पर लोग तुरंत विश्वास कर लेते हैं। इसी ताकत का इस्तेमाल वीरेंद्र यादव कर रहे हैं।
रिपोर्ट में इस साहित्य समारोह को भाजपा की जीत के जश्न की संज्ञा दी गई है। जश्न के नाम से जेहन में टीवी में देखे गए फूहड़ ढंग से नाचते, मटकते, ढोल बजाते और लड्डू बांटते समर्थकों की भीड़ के दृश्य उभरते हैं।
लेकिन समारोह में न कहीं बाजे थे, न कोई नाच-गाना, न मंत्रियों, सांसदों, सभासदों के भाषण थे। इसकी जगह शांत और शालीन वातावरण में रचनाकारों के साथ हजारों की संख्या में वह उनहत्तर प्रतिशत जनता भी थी, जिसने चुनाव में भाजपा के विरुद्ध वोट दिया। एक जगह कुछ देर को भर्तृहरि का लोकगायन जरूर था- कोई नाट्य प्रस्तुति भी हो रही हो, तो पता नहीं। विनोद कुमार शुक्ल और मुख्यमंत्री द्वारा दीप प्रज्वलन और स्वागत भाषण के बाद मंच पूरी तरह रचनाकारों को सौंप दिया गया था। न कोई सेंसर था, न अवरोध। अपने विचार और तर्क प्रस्तुत करने की अबाध स्वतंत्रता थी।
भाजपा की नीतियों का विरोध एक चीज है और समारोह का तथ्यात्मक विवरण दूसरी चीज। झूठ बोलना और तथ्यों को विकृत करना प्रगतिशीलता नहीं है।
सभी सत्र गंभीर, तर्कपूर्ण और मानव मूल्यों के पक्ष में हुई बहस को समर्पित थे। वहां किसी ने भाजपा की नीतियों का समर्थन नहीं किया। हां, विरोध जरूर किया। मैंने भी किया- जितना कहीं भी और कभी भी किया उससे ज्यादा किया।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कोई न कोई पार्टी तो जीतेगी।
आखिर उस उनहत्तर प्रतिशत जनता का हिस्सा भी तो उसी बजट में है, जो यह सरकार खर्च करेगी। अगर सरकार इसे रामकथा या हनुमान चालीसा पर खर्च करे और कथा वाचकों को बुलाए तब तो विरोध जरूरी होता, लेकिन अगर मुक्तिबोध और हबीब तनवीर जैसे रचनाकारों पर विमर्श हो और उसके लिए केदारनाथ सिंह से लेकर मंगलेश डबराल तक को निमंत्रण जाए तब विरोध का क्या तर्क है।
समारोह में रायगढ़, बिलासपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा आदि जगहों से भारी संख्या में श्रोता इस उम्मीद से आए थे कि देश के शीर्ष रचनाकारों के विचार सुन सकेंगे। कुछ हद तक वे सुन भी सके- लेकिन विरोध का यह ढंग तो उस जनता के ही विरोध में बदल गया, जो आपको सुनना चाहती थी।
प्रेमचंद के चित्रों, पत्रों और दस्तावेजों की भी एक प्रदर्शनी थी जिसे मैं देख नहीं सका। तर्क है कि हमारे जाने से सरकार को वैधता मिलती है। वैधता तो उसे संविधान से मिल चुकी। वैधता या तो जनता देती है या न्यायालय। हां, रचनाकार भी दे सकते हैं, बशर्ते कि जनता उन्हें मान्यता देती हो। हम, जिसके संस्करण अब छह सौ से अधिक छपते ही नहीं, जिन्हें यह समाज जानता ही नहीं, उनकी कैसी वैधता।
जैसे-जैसे साहित्य में मार्क्सवाद फैल रहा है वैसे-वैसे वह राजनीति में सिमट रहा है! क्या यह हमारे लिए असल चिंता का विषय नहीं है कि हमारी वैधता मार्क्सवादी पार्टियों के किसी काम क्यों नहीं आ रही। उन पर भारी क्यों पड़ रही है।
क्या हमें अपनी कार्यप्रणाली और जनता से अपनी दूरी के बारे में पुनर्विचार करने की जरूरत नहीं है।
हमला मेरी भागीदारी के माध्यम से किया गया है, इसलिए इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
पहले सत्र में ही मेरा काव्यपाठ था। ‘रंग’ के साथ मैंने वह कविता पढ़ी, जिसमें ‘गेरुआ लबादा ओढ़े एक घुटमुंडा छुरे चमका रहा है और औरतों, बच्चों, किसानों, सिपाहियों और सैनिकों की लाशों के दृश्यों के बीच अच्छे दिन आ गए हैं’ की घोषणाएं होने लगती हैं। यह कविता दरअसल, मुझे तीन बार पढ़नी पड़ी- दो बार मंच से और एक बार मंच से नीचे जब छात्र-छात्राओं ने मुझे घेर लिया।
दूसरे दिन मुक्तिबोध प्रसंग में, अंधेरे में बोरा ओढ़े कांपते गांधीजी की गोद में शिशु, जो भारत की आजादी का प्रतीक है, के हवाले से मैंने याद दिलाया कि देश के पचास प्रतिशत बच्चे कुपोषित और भूखे हैं, फलस्वरूप वे लाखों की संख्या में मर जाते हैं और करोड़ों की संख्या में मानसिक विकलांग और अंधे हो जाते हैं। उन्हें इलाज नहीं मिलता, बराबरी की शिक्षा का अवसर भी नहीं मिलता और न्याय तो किसी को नहीं मिलता। फिर भी नए प्रधानमंत्री के लालकिले की प्राचीर से दिए गए प्रसिद्ध संबोधन में तो इनमें से एक भी मुद्दे का उल्लेख नहीं है। यह विकास की कैसी परिकल्पना है। उपरोक्त दोनों ही सत्रों में काव्यपाठ और व्याख्यान से उद्वेलित श्रोताओं की प्रतिक्रियाएं हजार गुनी होकर पंडाल में गूंज रही थीं।
तीसरे दिन कविता की कार्यशाला का दृश्य तो अविस्मरणीय था। डेढ़ घंटे बाद भी कोई श्रोता अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं था। बिलासपुर की गरीब आदिवासी महिलाओं की लापरवाह आॅपरेशन से मृत्यु और ‘चंबल’ कविता की तीन बहनों की आत्महत्या के प्रसंग का असर था कि बहुतों की आंखें नम थीं। एक महिला तो ऐसे धार-धार रो रही थी कि उनका रोना थम ही नहीं रहा था। मैंने चाय पी लेने के लिए ब्रेक का अनुरोध किया, लेकिन वे सब कार्यशाला की निरंतरता चाहते थे। वहां रमेश मुक्तिबोध आलोक श्रीवास्तव, रामकुमार तिवारी, संजीव बक्षी, रमेश अनुपम आदि के साथ दिवाकर मुक्तिबोध संचालन सहयोगी थे।
किस्से बहुत हैं और यह सब आत्मश्लाघा लगेगी, पर अगर साहित्य और कलाकर्म की कोई सामाजिक सोद्देश्यता है और वह चेतना जगाने और संवेदित करने में सक्षम है तो लोगों को इससे वंचित रखने का क्या तर्क है।
क्या कबीर और गांधी उन मंचों और इलाकों में नहीं गए, जहां रूढ़िवादी और सामंती संस्कारों के लोग उनका विरोध करते थे। एक समय ‘ज्ञानोदय’ अछूत था कि वहां रवींद्र कालिया थे। हिंदी अकादमी इसलिए कि वहां अशोक चक्रधर थे। साहित्य अकादेमी इसलिए कि वहां विश्वनाथ प्रसाद तिवारी थे। वर्धा इसलिए कि वहां विभूतिनारायण राय थे, भारत भवन इसलिए कि वहां भाजपाई प्रशासन था। हंस इसलिए कि वहां राजेंद्र यादव अश्लीलता फैला रहे थे। मंच पर जाना तो कवियों के लिए निषिद्ध था ही। यह बताने वाला कोई नहीं कि कहां जाया जा सकता था।
औरंगजेब ने सबसे पहले अपने भाइयों की हत्या की थी। लेकिन उसका हासिल तो तख्त और ताज था। हम लोगों के पास और खासकर मेरे पास क्या धरा है?
आप बहिष्कार करें यह अच्छी बात है। लिख कर करें यह और भी अच्छा। लेकिन मैं अगर लिखने के साथ ही उनके मंच पर भी जाकर विरोध करूं तो यह बात गलत कैसे हो गई?
वीरेंद्रजी, आपकी विचार-शुचिता के चलते अगर विरोधी मंच पर पांव धरते ही आपका शीलभंग हो जाता है, तो आप उन पत्रिकाओं में कैसे छपते रहे, जिनमें भाजपाई मुख्यमंत्रियों के विज्ञापन उनके हंसते हुए चेहरों और गुण गाथाओं के साथ प्रमुखता से छपते थे? आपके हिसाब से इन पत्रिकाओं को ये विज्ञापन छापना बंद कर देना चाहिए और जो थोड़ा-बहुत सही काम वे कर पा रही हैं वह भी बंद कर देना चाहिए। इसी तरह कर चोरी और कालेधन में लिप्त औद्योगिक घरानों से विज्ञापन लेना भी बंद करना चाहिए। जो पत्रकार और साहित्यकार इन घरानों के अखबार और पत्रिकाओं में काम कर रहे हैं उन्हें भी काम छोड़ देना चाहिए। उनके मालिकों में से एक तो जेल में हैं और कोई दूसरा भी वहां जा सकता है। जनता के मारे हुए धन से मिली तनख्वाहें भी क्या लौटा देनी चाहिए?
धूमिल की मार्फत आप कहते हैं कि अगर सही तर्क नहीं है तो रामनामी बेचने या रंडियों की दलाली करके जीने में कोई फर्क नहीं है। आपके अनुसार लीलाधर मंडलोई, प्रभात त्रिपाठी, तेजेंदर सिंह, रमाकांत श्रीवास्तव, सियाराम शर्मा, जय प्रकाश, विनोद कुमार शुक्ल यानी आपके सभी जनवादी मित्र मय संजीव बक्षी, दिवाकर मुक्तिबोध, पुरुषोत्तम अग्रवाल या नंदकिशोर आचार्य और अशोक वाजपेयी आदि वहां दलाली कर रहे थे।
वीरेंद्रजी मेरे पुराने साथी रहे हैं, लगभग पचास वर्ष से मुझे जानते हैं। उनके कुछ लेखों का मैं प्रशंसक भी रहा हूं। इसीलिए यह आघात असहनीय है। मैं अपना निजी अपमान शायद कुछ दिन में भूल जाऊं। लेकिन परोक्ष रूप से मय विनोद कुमार शुक्ल के सबको दलाल कहा जाना कभी नहीं भूलना चाहूंगा।
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