वीरेंद्र यादव
‘‘खड़े क्या हो बिजूके से नरेश/ इससे पहले कि गिर जाए समूचा वजूद/ एकबारगी/ तय करो अपना गिरना/ अपने गिरने की सही वजह और वक्त/ और गिरो किसी दुश्मन पर।’’
कवि मित्र नरेश सक्सेना की कविता ‘गिरना’ की उपरोक्त काव्य-पंक्तियां पिछले दिनों तब शिद्दत से याद आर्इं, जब उनके दोनों हाथों में छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह का हाथ लिए तस्वीर अखबारों में प्रकाशित हुई। अवसर था छत्तीसगढ़ में भाजपा शासन के ग्यारह वर्ष पूरे होने पर रायपुर में साहित्य महोत्सव के आयोजन का। समारोह के उद्घाटन के वक्त मुख्यमंत्री रमन सिंह ने भाजपा शासन के ग्यारह वर्ष पूरे होने की याद दिलाते हुए यह भी कहा कि वे असहमति का सम्मान करते हैं। सचमुच यह असहमति के सम्मान की नई परंपरा की शुरुआत है कि अपनी राजनीति के जश्न में अपने से असहमत लोगों को हवाई जहाज से बुलाओ, पंचसितारा आतिथ्य करो और लिफाफे में असहमति के पारिश्रमिक के रूप में मोटी रकम दो!
जश्न भाजपा की राजनीतिक सफलता का था, तो पास के ही मैदान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यह घोषणा की कि छत्तीसगढ़ में अगले पचास साल तक भाजपा शासन करेगी। शायद हिंदी साहित्य संसार के इतिहास में यह पहली बार है कि लेखक एक ऐसे आयोजन में पारिश्रमिक लेकर शामिल हो रहे थे, जो उनके विचारों की विरोधी सरकार द्वारा अपने शासन की वर्षगांठ पर आयोजित किया गया था।
मुझसे भी इस आयोजन में शामिल होने के लिए सहमति मांगी गई थी, लेकिन भाजपा सरकार का आयोजन होने के कारण मैंने इसमें शामिल होने से तत्काल इनकार कर दिया था। इस बाबत जब नरेश सक्सेनाजी से मैंने चर्चा की तो उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो शामिल हो रहा हूं। इतना तो है कि वहां मुक्तिबोध के नाम पर चर्चा होगी, वरना तो वे हनुमान चालीसा पर बात करते।’’ सचमुच मेरे लिए यह स्तब्धकारी था कि जब भाजपा सरकार, दल और उससे जुड़े आनुषंगिक संगठन देश में इतिहास, संस्कृति और शिक्षा में प्रतिगामी मूल्यों की वापसी का अभियान छेड़े हों, तो किसी लेखक के लिए उस दल की सरकार के ‘साहित्यिक महोत्सव’ में शामिल होने के लिए मुक्तिबोध के नाम का उल्लेख ही पर्याप्त आधार हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुक्तिबोध का समूचा लेखन और चिंतन उस हिंदुत्ववादी सोच के प्रतिरोध में था, एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा आज जिसकी प्रबल पैरोकार है। ऐसे लोगों द्वारा हनुमान चालीसा की जगह मुक्तिबोध का जाप करना कुफ्र से क्या कम है!
साहित्य संसार में इस रायपुर प्रसंग के गहरे निहितार्थ हैं। यह भोपाल के ‘भारत भवन’ के भगवाकरण या ‘छिनाल प्रसंग’ से अधिक गर्हित इसलिए है कि यह आयोजन सरकार द्वारा वित्तपोषित किसी साहित्यिक या सांस्कृतिक संस्था का न होकर सीधे सरकार द्वारा आयोजित था। इस आयोजन का विज्ञापन प्रदेश के मुख्यमंत्री के चित्र के साथ किया जा रहा था। इसमें शामिल होने वाले लेखक भाजपा की उस सरकार के जनतांत्रिक होने को वैधता प्रदान कर रहे थे, जो माओवाद के उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ राज्य में असहमति की आवाजों और आंदोलनों का क्रूर दमन कर रही है। आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की कॉरपोरेट लूट का संगठित अभियान जितना तेज रमन सिंह की सरकार के शासन में है, उतना पहले कभी नहीं था। चर्च, मिशनरी स्कूल और ईसाई समूहों ने कभी खुद को इतना असहाय और असुरक्षित नहीं पाया, जितना भाजपा के वर्तमान शासन में। प्रशासनिक विफलताओं के कारण हाल में हुई आदिवासी महिलाओं की मौतों की चीखें तो अब भी हवाओं में हैं।
प्रश्न यह है कि क्या इस सबकी अनदेखी करके उन लेखकों को इस आयोजन में शामिल होना चाहिए था, जो नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे के मुखर विरोधी रहे हैं? क्या रायपुर साहित्य महोत्सव के मंच से ये लेखक अपना प्रभावी विरोध दर्ज कर सके या कि छत्तीसगढ़ सरकार की उस योजना में इस्तेमाल हुए, जो हर तरह की असहमति का दमन करने के बावजूद अपनी सरकार की सहिष्णु छवि बनाना चाहती है?
यहां इस चर्चा का आशय यह नहीं है कि जो इस आयोजन में शामिल हुए वे बिक गए या अपने विचारों से उनका विचलन हो गया। लेकिन यह जरूर है कि अपने विरोधी विचार द्वारा खुद के इस्तेमाल किए जाने के विरुद्ध वे दृढ़ क्यों नहीं रह सके? फिर क्या होगा लेखन और आचरण के बीच उस फांक का, मुक्तिबोध जिसे मिटाने की आजन्म पैरोकारी करते रहे? लेखक समुदाय में शामिल हम सब प्राय: यह उचित ही चिंता प्रकट करते रहते हैं कि हमारा लेखन निष्प्रभावी होता जा रहा है। क्या यह विचार का मुद्दा नहीं होना चाहिए कि कहीं इसके कारणों में हमारा जीवन आचरण तो नहीं है? यहां आशय ‘भूखे पेट भजन’ का कोई आदर्श बघारने का न होकर उस लोभ-लाभ की फिसलन से बचने का है, जो आज के वायुमंडल में प्राणवायु की तरह शामिल है। यह उन लेखक मित्रों द्वारा आत्मालोचन का प्रश्न भी है, जिनके लिए हवाई यात्रा या पंचसितारा आतिथ्य कोई आकर्षण का विषय नहीं है।
इस समूचे प्रकरण में अधिक शर्मनाक यह है कि इसमें कुछ ऐसे लेखक भी शामिल हुए, जो वामपंथी लेखक संगठनों से जुड़े हुए हैं। लेकिन उन्हें भी दोष कैसे दिया जा सकता है, जब उनके रोल-मॉडल ही जब तब अपनी अवसरवादी वैचारिक फिसलन से बाज न आते हों? क्या यह नहीं होना चाहिए था कि वामपंथी लेखक संगठन रायपुर साहित्य महोत्सव की आड़ में भाजपा के बौद्धिक दिग्विजय अभियान के विरुद्ध अपना स्पष्ट रुख प्रकट करते और इसमें न शामिल होने के किए अपने समानधर्मा लेखकों पर नैतिक और वैचारिक दबाव बना सकते? इसी का परिणाम है कि रायपुर समारोह में शामिल होने वाले कुछ लेखक बजाय अपने किए पर लज्जित होने के, विचारधारा पर ही पलटवार करने की रक्षात्मक मुद्रा अपना रहे हैं।
सच है कि यह संगठित वाम आंदोलन के पराभव का दौर है, राजनीति में ही नहीं संस्कृति में भी। प्रेमचंद ने कभी कहा था कि ‘‘साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं, उसके आगे-आगे चलने वाला ‘एडवांस गार्ड’ है।’’ यह सचमुच गहरी चिंता और क्षोभ की बात है कि हम उस ‘एडवांस गार्ड’ की भूमिका से विमुख होकर वैचारिक विरोधियों के नरम चारे में तब्दील होते जा रहे हैं। कहना न होगा कि आज का हमारा समय सर्वाधिक निर्णायक और चुनौतियों भरा है, अभिव्यक्ति की आजादी पर बाह्य खतरे के साथ ही खुद के विरोधी विचारों द्वारा अनुकूलित किए जाने का भी खतरा है। रायपुर प्रकरण के यही निहितार्थ हैं।
क्या ही अच्छा हो अगर इस चिंता को सत्ता और साहित्य के शाश्वत शास्त्रार्थ और रक्षात्मक प्रतिप्रश्नों के घटाटोप में विलयित करने की चालाकी के बजाय थोड़ा आत्मावलोकन और आत्मालोचना की ईमानदार कोशिश की जाए। धूमिल का कहना था कि बात जिंदा रहने के पीछे सही तर्क की है, ‘अगर सही तर्क नहीं है/ तो रामनामी बेच कर या रंडियों की/ दलाली करके रोजी कमाने में/ कोई फर्क नहीं है।’ मैं रघुवीर सहाय की तर्ज पर यह सवाल तो नहीं उठाना चाहता कि ‘क्या हत्यारों के साथ हुए लेखक?’ लेकिन मुक्तिबोध की आवाज में आवाज मिला कर अपने मित्रों से यह प्रश्न जरूर करना चाहता हूं कि ‘पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ कहने की जरूरत नहीं कि यह सवाल उनसे नही है, जिनके लिए राजनीति या विचार कभी चिंता का विषय नहीं रही। हिंदी समाज के बीच ‘रायपुरवाद’ एक नए वाद के रूप में महिमामंडित न हो, फिलहाल हमारी चिंता का विषय यह जरूर होना चाहिए।
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