प्रयाग शुक्ल

बहुतों के लिए अब कोलकाता वही नहीं रह गया (या नहीं रह जाएगा) जो अशोक सेकसरिया के रहते हुए उनके लिए था और उनके निवास 16 लॉर्ड सिन्हा रोड पहुंचने से पहले ही उनके मन (और शरीर) में एक रोमांच-सा पैदा कर दिया करता था। जूते-चप्पल बाहर उतार देने पर, उस बड़े से कमरे में प्रवेश करते ही, वे अकसर एक तख्त पर बिछे बिस्तर पर, या फर्श पर ही, कुछ पढ़ते-लिखते हुए मिलते- कई बार तो उन्हें भान भी नहीं होता कि कोई उनके पास आकर खड़ा हो गया है- पर ज्यों ही कुछ चौंक कर उसकी ओर देखते तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर उसी के साथ हो लेते।

लेकिन इस बार जब मैं 24 नवंबर की सुबह उस कमरे में पहुंचा तो दृश्य बदला हुआ था। वे एक हॉस्पिटल बेड (जो उनका भतीजा सौरभ उनके लिए लेकर आया था) लेटे हुए थे। आंखें कुछ मूंदी हुई थीं। आहट से खुल गर्इं। ओ हो, तुम आ गए जैसा कुछ उन्होंने कहा। मैं पटना के भारतीय कविता समारोह से होते हुए कोलकाता उनसे मिलने पहुंचा था- यह मालूम होने पर कि वे बाथरूम के बाहर फिसल कर गिर पड़े थे, और बाएं पैर के ऊपरी भाग में, कमर के पास की उनकी हड्डी, अपनी साथिन हड््डी से टूट कर विलग हो गई है और वे अपना बायां पैर हिला-डुला भी नहीं पा रहे।

जो हुआ, उसका आभास, तब दूर-दूर तक नहीं था। मैं सहज भाव से बातें करने लगा। पीड़ा तो उन्हें थी, पर पीड़ा को उनसे अधिक छिपाते हुए, किसी और को तो देखा नहीं। अपनी पीड़ा को छिपा कर, दूसरे की मामूली-सी पीड़ा पर खुद को कुर्बान कर देने की इच्छा का नाम ही तो अशोक सेकसरिया था। जब उनके साथ काफी बातें कर चुका, तो एक बार फिर बालेश्वरजी आए, मानो अपनी चुप्पी से यह कहते हुए कि थोड़ा विराम दें अब आप दोनों। मैंने चौंक कर पहचाना कि अब तो बिल्कुल विराम देना चाहिए। हम मिलते ही इसी प्रकार तो बातें करने लगते थे। वे कुछ ऊंचा सुनने लगे थे। वैसे मामूली-सी बात पर भी उनका ‘विस्मय’ देखते ही बनता। वे अपने विस्मय को दुहराते भी बहुत थे। थोड़ी देर के विराम के बाद, उन्होंने फिर बातें शुरू कर दी। इस बार मैं सावधान था। न अपने को थकाना चाहता था, न उनको।

राजनीति। समाज। साहित्य। कलाएं। क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल की दुनिया। पत्रकारिता। मित्र-परिजन। ज्ञान की अनेक शाखाएं- आजीवन उनके ओढ़ने-बिछाने की चीजें रहीं। अपने को प्रचार-प्रसार से दूर रखने वाले अशोक सेकसरिया, अपने प्रिय लोगों के प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रहने देते थे। जो उनके पास था, उसे देना ही मानो उनका धर्म था, न दे पाने पर, उनके विवश, भावविह्वल चेहरे की यादें भी बहुत-सी हैं। 24 नवंबर की शाम को भी जब मैं उनके पास बैठा था, तो उनके छोटे भाई दिलीप (जिनकी मृत्य कुछ वर्ष पहले हुई) के छोटे बेटे गौरव का बेटा वेदांत, उनका हालचाल पूछने आया।…

अठारह वर्ष का था तब मेरी एक कहानी ‘कहानी’ पत्रिका में फोटो सहित ‘सड़क का दोस्त’ प्रकाशित हुई, और ‘कल्पना’ में ‘दो लड़के’ शीर्षक कहानी, जिसकी पृष्ठभूमि से वे परिचित थे… अत्यंत प्रसन्न हुए। अपनी कविताएं भी उन्हें सुनाता था। वे स्वयं कुछ लिखते हैं इसका पता उन्होंने हमें लगने नहीं दिया। सेंट जेवियर कॉलेज की पढ़ाई छोड़ कर वे वैसा जीवन क्यों बिता रहे हैं, जैसा बिता रहे थे… टूटी-सी चप्पलों में, धूल की परतों वाले पैरों में, बेतरतीब-से पहनावे में, सिगरेट पीते हुए, और दक्षिण भारतीय श्रीनिवास रेस्तरां (जो लायड्स बैंक के पीछे था, और हमारा अड््डा बन चुका था) में कॉपी-चाय पीते हुए, डोसा इडली खाते हुए… यह प्रश्न हमारे मन में कभी-कभी जागता था, पर उनका वह जीवन भी कम रोमांचित नहीं करता था, सो हमने उसे बहुत कुरेदा नहीं। आगे चल कर यह सुनने को मिला कि वे ऐसा जीवन किसी प्रेम प्रसंग के कारण बिता रहे थे… पर अगर ऐसा था भी तो वह ‘पता-ठिकाना’ वे हम सबसे आजीवन छिपाए रहे…।

एक बार फिर 24 नवंबर की शाम में लौटूं। वेदांत से कहने लगा, ठीक तुम्हारी ही उम्र का था, जब तुम्हारे दादाजी से मेरी भेंट हुई थी। अशोकजी मुस्कराए। चुपचाप हमारी बातें सुनते रहे। वे मुझसे पांच-छह बरस बड़े थे। वेदांत अब दसवीं का विद्यार्थी है, सेंट जेवियर में पढ़ता है, जान कर मैं उससे अंगरेजी में बातें करने लगा…

मैंने वेदांत से पूछा कि कुछ हिंदी भी पढ़ते हो या नहीं… मुझे कुछ चकित करते हुए वह हिंदी में ही बोला, पढ़ता हूं। मैंने इंटर स्कूल वाद-विवाद प्रतियोगिता में पुरस्कार जीते हैं। हिंदी मेले में भी।… अशोकजी ने भी इस सबके प्रोत्साहन-समर्थन में कुछ बातें कहीं। चलते हुए वेदांत बोला, ‘मुझे कुछ पूछना था। हिस्ट्री में। नौ बजे आपके पास आ जाऊं?’ अशोकजी एक करुण-सी आवाज में बोले, जिसमें विवशता और भावविह्वलता समान मात्रा में झलक रही थी… ‘आ जाना, तबियत ठीक लगी तो जरूर बता सकूंगा’ जैसा कुछ उन्होंने कहा।

वेदांत हमें प्रणाम कर चला गया। मैं सोचने लगा, अचरज क्या कि उसे हिंदी आती है- आखिरकार वह सीताराम सेकसरिया का प्रपौत्र है, जिनका जीवन महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर, सुभाष चंद्र बोस, काका कालेलकर, मैथिलीशरणगुप्त, महादेवी वर्मा, रायकृष्णदास, भागीरथ कानोडिया जैसे व्यक्तियों-रचनाकारों से जुड़ा रहा; और जिनके सुयोग्य बड़े बेटे अशोक सेकसरिया ने हिंदी में ऐसा गद्य लिखा है, अपनी कहानियों, लेखों, टिप्पणियों, पत्रों में, जिसकी मिसाल मिलनी मुश्कल है, और जिन्होंने अपने पिता की आजादी की लड़ाई के दिनों की डायरियों का ‘एक कार्यकर्ता की डायरी’ (ज्ञानपीठ से प्रकाशित) शीर्षक से दो खंडों में ऐसा संपादन किया है कि उससे संपादन कला सीखी जा सकती है।
याद आई कि इन डायरियों के संपादन के लिए उन्होंने जयपुर शहर में डेढ़-दो बरस एकांतवास किया था…

इतनी हाड़-तोड़ मेहनत अब कौन करता है, जो उन्होंने ‘हिंदुस्तान’, दिनमान, ‘जन’, ‘रविवार’, ‘चौरंगी वार्ता’, ‘सामयिक वार्ता’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर लिखे गए अपने लेखों-टिप्पणियों में की। रायकृष्ण दास, बालकृष्ण गुप्त (लोहिया के सहयोगी), निर्मल वर्मा आदि पर लिखे हुए उनके अद्भुत संस्मरणों की भी याद आती है। कई पुस्तकें बन जाएं, इतने हैं उनके लेख-टिप्पणियां। अपनी लिखी कोई चीज कभी संभाल कर नहीं रखी… उनकी एकमात्र पुस्तक ‘लेखकी’ (वाग्देवी प्रकाशन) के लिए कहानियां एकत्र की अरविंद मोहन ने, कुछ कुंवर नारायणजी से मिलीं, तीन श्रीराम वर्मा से… ‘प्रिय पाठक’ जैसी कहानी उसमें जाने से फिर भी रह गई है…

बहरहाल, उन्हें बिना बताए हुए ‘लेखकी’ का प्रकाशन हुआ। बताते तो वे होने न देते। पहल अरविंद मोहन की थी। भूमिका मैंने लिखी। दीपचंदजी (वाग्देवी प्रकाशन) ने सुरुचि के साथ यह संग्रह प्रकाशित किया। लोकार्पण दिल्ली के पुस्तक मेले में हुआ। प्रभाष जोशी, कुंवर नारायणजी के हाथों- खबर प्रकाशित हुई। अशोकजी को पता चला।… अपने किए हुए को ‘कुछ न मानने’ जैसा उनका भाव, हमेशा याद आएगा…

मैं कुछ भी लिखता, कहीं भी छपता, किसी अनाम-अज्ञात-सी जगह में भी तो उन्हें न जाने कैसे उसकी खबर हो जाती। प्रतिक्रिया में पत्र मिलता या फोन, या उनसे मिलने पर वे उसकी चर्चा करते… प्रशंसा मिलती और किसी शब्द या वाक्य की असावधानी पर उनका सुझाव भी। ‘आलोचनात्मक’ टिप्पणी भी… जब भी जो भी पत्रिका मैंने संपादित की, उसकी सामग्री और साज-सज्जा तक में, उनका सहयोग मिलता और उसकी किसी कमी पर, सावधानी बरतने की भरपूर सीख भी मिलती।

ऐसा मेरे साथ ही हुआ था सो बात नहीं, जो भी उनके निकट आया, जिसे भी उन्होंने चाहा, सबके प्रति उनका यही व्यवहार रहा… उनके जीवन में कई ऐसे व्यक्ति आए, मेरे जाने, जिनके प्रति उनमें गहरा प्रेम और सम्मान भाव पैदा हुआ, इनमें से कुछ की याद कर लेता हूं, ओमप्रकाश दीपक, कृष्णनाथ, रामकुमार, कृष्णा सोबती, शंख घोष, निर्मल वर्मा, किशन पटनायक, सुनील, गिरधर राठी, महेंद्र भल्ला, जितेंद्र कुमार, प्रबोध कुमार, कमलेश, अशोक वाजपेयी, पृथीपाल वासुदेव आदि की एक मित्र-मंडली तो दिल्ली प्रवास में बनी ही, रमेशचंद्र शाह, ज्योत्स्ना मिलन और उनकी दोनों पुत्रियों- शंपा और राजुला से उनकी आत्मीयता का तो कोई आर-पार नहीं था। सैकड़ों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, पत्रकार, कलाकार, लेखक, संपादक, शिक्षाकर्मी, समाज-सेवियों, और समान्य-जनों की इतनी लंबी सूची है, उनसे जुड़ने की कि गिनती करना संभव ही नहीं है। और यह भी तो था ही कि जिससे जुड़े, उसके समूचे परिवार से, उसके बच्चों से, और उसकी मित्र-मंडली तक से वे जुड़ जाते थे, सहज ही, अनायास…

भारतीय भाषा परिषद के पुस्तकालय प्रभारी बालेश्वर राय 1988 में उनके साथ रहने आए, अनंतर उनकी पत्नी सुशीलाजी और उनके दोनों पुत्र रवींद्र और अवनींद्र भी आ गए… इन छब्बीस वर्षों में अशोकजी के जीवन का ‘हिसाब-किताब’, जमा-खर्च उन्हीं के पास सबसे ज्यादा है। कौन उनसे मिला, आया-गया, ठहरा, उन्होंने क्या किया, कहा इस सबका जमा खर्च इस परिवार ने उन पर जो अपना प्रेम और समर्पण लुटाया है उसकी तो याद भी विह्वल कर देती है…

पिछले दशकों में, संजय भारती-जमुना, अलका सरावगी, शर्मिला बोहरा जालान, जवाहर गोयल आदि उनके निकट रहे हैं। सो, अशोकजी से फोन पर संपर्क न हो पाने की स्थिति में मैं भी इन्हें ही फोन करता था… और कोलकाता में न होने पर वे प्राय: कांचरापाड़ा में संजय-जमुना के घर पर ही ‘मिलते’ थे…

1963 में जब उन्हें खबर मिली कि ‘कल्पना’ में एक जगह खाली है, तो उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि तुम वहां चले जाओ। बदरीविशालजी से मिल लो। उन्हें मालूम था कि संभव है मेरे पास कोलकाता से हैदराबाद तक जाने के साधन न हों… सो अपने भानजे सत्यनारायण सुरेका को फोन किया कि वे मुझे सौ रुपए दे दें… मैं हैदराबाद पहुंचा। ‘कल्पना’ ने मेरा जीवन बदला…

यह मेरा किस्सा है। ऐसे ही किस्से अन्यों के पास भी होंगे। जब वे सामने आएंगे तो अशोकजी अपने को ‘छिपा कर’ न रख पाएंगे…
मेरा भाग्य कि वे मुझे मिले। मैं उन्हें ‘गांधी तत्त्व’ वाला व्यक्ति ही मानता हूं। और यह भी जानता हूं कि सर्वाधिक सुख उन्हें गांधी-चर्चा में ही मिलता था।

यह याद करके वे बहुत प्रसन्न होते थे कि मेरे और ज्योति के विवाह के एक साक्षी सीताराम सेकसरियाजी बने थे और मैंने उनके चरण छुए थे।… विवाह ‘रजिस्टर्ड’ विधि से हुआ था।

एक बात और। इस बार अशोकजी के चेहरे की दाढ़ी सफाचट थी। किसी ने कहा, शायद जुगनू शारदेय ने, जो उनकी हड््डी के फ्रैक्चर की खबर पाकर मेरी ही तरह, उनके पास आए थे, ‘अशोकजी तो बड़े हैंडसम लग रहे हैं…’ अशोकजी भिड़कते हुए मुस्कराए…

हां, निश्चय ही वे हैंडसम भी थे।… अशोकजी ‘अशोक’ जी थे। पर, भला कोई भी व्यक्ति जो अपनी कद-काठी में ही नहीं, हर तरह से ‘बड़ा’ हो, वह कभी एक-रूप वाला तो होता नहीं है। उन्हें कई रूपों में देखा है। ‘कोर’ भले एक हो, सो उन्हें निरक्षरों को पढ़ाते हुए देखा है। घर में वर्षों परिचारिका और भोजन बनाने वाली दुर्गादासी के अस्वस्थ होने पर उसकी ‘सेवा’ की चिंता करते हुए देखा है। बच्चों के साथ खेलते हुए देखा है। किसी की किसी गलती पर डांटते हुए भी देखा है। चिड़चिड़ाते हुए देखा है। अपनी किसी गलती पर पछताते हुए भी देखा है।

सुस्वादु भोजन पर प्रसन्न होते देखा है। किसी शब्द का वास्तविक अर्थ जानने के लिए बेचैनी से शब्दकोश और संदर्भ-ग्रंथ पलटते हुए देखा है… मित्रों को नेशनल लाइब्रेरी से उनकी ‘खोई’ हुई चीजों की प्रतिलिपियां बना कर भेजते हुए देखा है। स्वयं विवाह नहीं किया, पर कई मित्रों-परिचितों के प्रेम विवाह में आने वाली बाधाओं को दूर करते देखा है… मित्रों को लेने-छोड़ने के लिए स्टेशन-एअरपोर्ट जाते देखा है। उस जमाने में जब उन्हीं के साथ ठहरता था, बहुत मना करने पर भी वे हावड़ा स्टेशन मुझे छोड़ने आते ही थे… उन्हें किसी के किसी काम के लिए घंटा-आध घंटा किसी कतार में खड़े हुए भी देखा है…

चित्र-संगीत-फिल्म-नाटक को सराहते हुए देखा है। और उस वीतरागी और सौंदर्य प्रेमी को, उस विलक्षण को, उस सहृदय को… किसी महंगे इत्र-वस्त्र की बारीकियों में जाते हुए भी देखा है…

ज्ञान की असंख्य शाखाएं हमारे काम आती हैं… यह उन्हीं से जाना है…, ‘दुखवा कासे कहूं मोर सजनी’ नाम की उनकी कहानी बताती है कि खेल की दुनिया, उसकी राजनीति और हॉकी जैसे खेल की बारीकियों की कैसी समझ उन्हें थी…

इस बार की भेंट में भी फिर उन्होंने हिंदीभाषी समाज में ‘शब्दों की कमी’ होते जाने पर चिंता व्यक्त की। अनुवाद के वक्त किसी मौजूं शब्द के खोजने और मिल जाने पर होने वाली खुशी की बात की। उनके साथ होने वाली चर्चा, विशेष रूप से कविता पर चर्चा कितनी रसमई होती थी। जयशंकर प्रसाद की कविताओं का संगीत उन्हें बेहद अच्छा लगता था। वे जब कुछ पीड़ा में थे, तो उन्हें बिस्तर के पास खड़े-खड़े ही ‘तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन’ पूरी सुना दी। वह मुझे कंठस्थ है। उन्हें अच्छा लगा। मुझे एक संतोष हुआ।

पिता उनके जीवन की धुरी थे। तब भी जब पिता से उन्होंने अपनी दूरी बढ़ाई और तब भी जब पिता की मृत्यु के बाद वे उनके अत्यंत ‘निकट’ आए। उनके जीवन-मूल्यों में उतरे। पिता की मृत्यु से पहले के अशोक सेकसरिया और उनकी मृत्यु के बाद के अशोक सेकसरिया मानो एक ही व्यक्ति नहीं रह गए थे। उनकी ‘घर’ वापसी हुई। और कोलकाता छोड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। वे कभी विदेश नहीं गए। हां, कई विदेशी उनके प्रिय पात्र बने, इमरे बंधा इन्हीं में से एक हैं।

जब एंबुलेस आ गई और उन्हें सर्जरी के लिए ले जाया जा रहा था तो उनके बिस्तर के पीछे दीवार पर सीताराम सेकसरिया का वही पोर्ट्रेट टंगा था सुंदर, आयल कलर में कैनवास पर बनाया गया, जिसकी तारीफ मैं उनसे भी कर चुका था कई बार। फिर की। सौरभ ने सुना। सबने। अशोकजी ने भी। मेरी ओर देखा। इशारा किया कि फिर मिलेंगे। हम सब नीचे उतरे। शाम को एअरपोर्ट से बालेश्वरजी और सौरभ को फोन किया। मालूम हुआ, सब कुछ ठीकठाक है, आॅपरेशन सत्ताईस को होगा। मैं दिल्ली की ओर चला। दो दिन तक भी सब ठीकठाक रहा। सर्जरी भी ठीक से हो गई, पर उनतीस नवंबर की रात सब कुछ बदल गया। अशोकजी चले गए। दो हृदय आघातों के बाद।

‘कलिकथा: वाया बाईपास’ (अलका सरावगी) और ‘आलो आंधारि’ (बेबी हाल्दार) जैसी कृतियों के प्रोत्साहक अशोकजी ने न जाने कितने लोगों को प्रेरित-प्रभावित किया और हमेशा यही चाहते रहे कि लिखने-पढ़ने की दुनिया सबकी बड़ी हो…
विनम्र थे विनम्र भाव से चले गए… कभी कुछ चाहा नहीं, अपने लिए… पर, सुना कोलकाता के केवड़ातल्ला श्मशान घाट पर उनकी अंत्येष्टि में तीन सौ लोग जुटे… सबकी आंखों में जल था… उनके लिए। अब भी उनके परिचितों-मित्रों के फोन, एक-दूसरे को, शोक-सांत्वना से जोड़ रहे हैं और यह सिलसिला बना हुआ है…

 

 

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