सय्यद मुबीन ज़ेहरा

अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो पढ़ी-लिखी और सभ्य समाज में रहने वाली महिलाओं की हालत देख कर लगता है कि इनकी स्थिति भी कम दयनीय नहीं है। समाज में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा में कोई कमी नहीं आ रही। उनके उत्पीड़न के मामले बढ़ते दिख रहे हैं।

इन्हीं स्थितियों के बीच पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट ने मन को और परेशान कर दिया। क्या आपने कभी सोचा है कि जिस समाज में दो महीने की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की महिला के साथ बलात्कार हो सकता है, वहां मानसिक रुग्णता से जूझ रही महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार होता होगा! इसी सवाल ने मुझे परेशान कर दिया, जब ह्यूमन राइट्स वॉच की ताजा रिपोर्ट पढ़ी। यह रिपोर्ट मनोवैज्ञानिक बाधाओं से पीड़ित महिलाओं और लड़कियों से संबंधित है।

प्रकृति ने हमें बुद्धि और समझ की पूंजी दी है, पर उसके बाद भी हम अपने आसपास हर तरह के अमानवीय व्यवहार और अपराध होते देखते हैं। आखिर हम क्यों नहीं अपने समाज में फैल रहे आतंक, हिंसा और अपराध का बौद्धिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उनके समाधान खोजने की कोशिश करते हैं?

इस रिपोर्ट में मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार महिलाओं और लड़कियों की स्थिति पर प्रमुखता से प्रकाश डाला गया है; उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति पर विशेष सामग्री दी गई है। भारत में ऐसी महिलाओं और लड़कियों को मानसिक चिकित्सालयों में रहने को मजबूर किया जाता है। यहां उन्हें बिजली के झटके दिए जाते हैं और बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ता है। इन परिस्थितियों में रहते हुए उनका सामना शारीरिक जोखिम और यौनहिंसा से भी होता है। साथ ही उन्हें अनैच्छिक उपचार प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। जब एक बार ऐसी महिलाओं को इन चिकित्सालयों की दीवारों में बंद कर दिया जाता है, तो उनका जीवन हर वक्त सामाजिक अलगाव के दंश और भय से भरा होता है।

यह रिपोर्ट बताती है कि मानसिक रुग्णता की शिकार महिलाओं के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार होता है और उन्हें अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर किया जाता है। ये महिलाएं अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार को महसूस तो कर रही होती हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक विकलांगता से पीड़ित होने के कारण इसे व्यक्त नहीं कर सकतीं। मुझे अमृता प्रीतम की कहानी पर आधारित फिल्म ‘पिंजर’ की उस पगली की याद आ रही है, जिसे कोई अपनी हवस का शिकार बना कर गर्भवती कर देता है। मगर उस पुरुष को कोई सजा नहीं होती या वह सामने नहीं आता, लेकिन उसके बच्चे के धर्म का फैसला सख्ती के साथ किया जाता है। ये तो कहानियों की बातें हैं, लेकिन सच्चाई से दूर नहीं हैं। इन्हें पढ़-देख कर मन कई सवालों और उलझनों से भर जाता है।

भारत सरकार ने 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया, लेकिन इसकी पहुंच बहुत सीमित है और निगरानी तंत्र के अभाव में इसके क्रियान्वयन में गंभीर खामियां हैं। जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम भारत के छह सौ पचास जिलों में से महज एक सौ तेईस में चल रहा है।
इन महिलाओं को अक्सर लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ये मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार महिलाएं एक तरह से देश में सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं और कमजोर होने के साथ-साथ समाज में दुरुपयोग और हिंसा के बीच फंसी हुई हैंं। अक्सर उनकी देखभाल करने में असमर्थ या अनिच्छुक परिवार उन्हें त्याग देते हैं। कई बार जबरन उन्हें किसी संस्था में रख दिया जाता है। समुदाय का समर्थन न मिल पाने और लोगों में जागरूकता की कमी के चलते ये महिलाएं उपहास का पात्र बन कर रह जाती हैं। इनका उपहास करके एक तरह से हम अपनी बौद्धिक परिपक्वता की ही हंसी उड़ा रहे होते हैं।

भारत ने ‘कन्वेंशन ऑन राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसेबिलिटी’ (सीआरपीडी) संधि के तहत 2007 में विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की पुष्टि की और उनके जबरन कहीं बंद करके रखना निषिद्ध किया। 2013 में सीआरपीडी के साथ संबंधित राष्ट्रीय कानून की संगति बिठाने की मंशा से सरकार ने संसद में दो विधेयक पेश किए। मानसिक स्वास्थ्य विधेयक और विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों का विधेयक। लेकिन यह कानून मनोवैज्ञानिक रूप से रुग्ण महिलाओं और लड़कियों को कानूनी संरक्षण और स्वतंत्र रहने का अधिकार नहीं दे पा रहा है। इन मन और मस्तिष्क के रोगियों को सद्बुद्धि वाले समाज से उपचार की उम्मीद है। समाज के साथ-साथ सरकार से भी।

केंद्र सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह मानसिक रोगियों के साथ हो रहे बर्ताव, उनके उपचार और कल्याण के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम के मूल्यांकन का तुरंत आदेश दे। मनोवैज्ञानिक रोगियों को मिलने वाली सुविधाओं की प्रभावी निगरानी हो। मानसिक अस्पतालों और गैर-सरकारी संगठनों के आवासीय देखभाल संस्थानों में अभद्र व्यवहार और अमानवीय स्थितियों को समाप्त करने के लिए सख्त कदम उठाए जाएं।
केंद्रीय स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक मानसिक रोगियों की संख्या जनसंख्या का छह से सात प्रतिशत है, यानी 7.42 से 8.65 करोड़ के बीच। गंभीर मानसिक रोगियों की संख्या 1 से 2 प्रतिशत है, यानी 1.24 से 2.47 करोड़। ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों से कुछ कम हैं। पर आंकड़ों के कम या अधिक होने की नहीं, बल्कि सही ढंग से इस समस्या से निपटने की है। इसमें समाज और सरकार, सभी का योगदान जरूरी है। यह काम केवल सरकार के बूते नहीं हो सकता, यह तभी हो सकता है जब हम अपने आसपास ऐसे व्यक्तियों के साथ प्रेम और ममता का व्यवहार करें, उनकी सही चिकित्सा का प्रबंध करें और उन्हें सामान्य जीवन की तरफ लाने का प्रयास करें।

आजकल हमारे बच्चों में प्रेम और संयम की कमी देखी जा रही है। अगर हम अपने बच्चों का इन बच्चों के साथ मेल-मिलाप बढ़ाएं और स्कूल के बच्चों को मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताने का मौका दें तो शायद समाज के सोच और समझ में जो विकलांगता आ गई है, वह कुछ कम हो जाए। मुझे अपनी मां की एक मित्र की याद आती है, जिन्होंने अपने मानसिक रूप से विकलांग बच्चे के पालन-पोषण के लिए अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़ कर पूरा जीवन उस बच्चे को समर्पित कर दिया था। मानसिक रूप से विकलांग लोगों को हमें इसी ममता की नजर से देखना और उन्हें प्रेम और सहारा देना होगा।

 

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta