कुलदीप कुमार

इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जो उसकी दिशा ही बदल देते हैं। 1837 में जब तक जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में सफलता नहीं पाई थी, तब तक किसी को नहीं पता था कि भारत और अफगानिस्तान में फैले अशोक स्तंभों और शिलालेखों पर क्या इबारत खुदी हुई थी। लोगों को सम्राट अशोक के बारे में भी कुछ नहीं पता था। फिरोजशाह तुगलक ने मेरठ से अशोक स्तंभ दिल्ली मंगवाया (आज भी यह फिरोजशाह कोटला में खड़ा है) और सभी विद्वानों को बुला कर पूछा कि उस पर क्या लिखा हुआ है। कोई इसका जवाब नहीं दे पाया। यह काम बारह वर्षों की कठिन मेहनत के बाद एक अंग्रेज जेम्स प्रिंसेप ने किया। इसी तरह से जब तक पिछली शताब्दी के शुरुआती दशकों में हड़प्पा और मुअनजोदड़ों की खुदाई नहीं हुई थी, तब तक किसी को नहीं पता था कि भारतीय सभ्यता के कम से कम पांच हजार साल पुरानी होने के ठोस प्रमाण मिल सकते हैं और वैदिक सभ्यता से पहले भी हमारे देश में एक अत्यंत विकसित नागर सभ्यता थी।

कुछ इसी तरह की घटना हमारे संगीत की रिकॉर्डिंग के इतिहास के साथ हुई है। अभी तक माना जाता था कि 1902 में की गई प्रख्यात गायिका गौहर जान की रिकॉर्डिंग ही पहली रिकॉर्डिंग है। 2010 में विक्रम सम्पत ने गौहर जान की एक जीवनी प्रकाशित की थी जिसमें उन्होंने उनकी रिकॉर्डिंग्स की भी विस्तार से चर्चा की थी और उनकी पूरी सूची भी दी थी। एक धारणा यह भी थी कि अल्लादिया खां, विष्णु दिगंबर पलुस्कर और भास्करबुआ बाखले जैसे अपने समय के चोटी के गायकों की रिकॉर्डिंग ही नहीं हुई। इसलिए इनकी आवाज कैसी थी, इसके बारे में केवल किंवदंतियों पर ही विश्वास करना पड़ता था। लेकिन अब एक ऐसी शोधपरक किताब सामने आई है, जिसने हमारे संगीत की रिकॉर्डिंग के इतिहास को कम से कम पांच साल पीछे धकेल दिया है।

यही नहीं, पुस्तक के साथ दी गई सीडी से अब हमें यह भी पता चल गया है कि अल्लादिया खां, विष्णु दिगंबर पलुस्कर, भाउराव कोल्हाटकर, दादासाहब फाल्के, भास्करबुआ बाखले और उनके कई अन्य समकालीनों की आवाजें कैसी थीं। यही नहीं, विष्णु दिगंबर पलुस्कर के गुरु बालकृष्णबुआ इचलकरंजीकर तक की आवाज का नमूना मिल गया है जो अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं। यह अलग बात है कि उनके एकमात्र रेकॉर्ड की हालत बहुत अच्छी नहीं है और उनकी क्षीण आवाज ही सुनाई देती है। फिर भी इसे हमारी सांगीतिक निधि के संरक्षण में मील का एक पत्थर तो मानना ही होगा।

हमारी अमूल्य सांगीतिक निधि के पुनराविष्कार का यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम किया है भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी एएन शर्मा ने, जो इन दिनों मुंबई में सीमा शुल्क, केंद्रीय आबकारी और सेवा कर आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं। पिछले पच्चीस सालों से वे देश की सांगीतिक संपदा की खोज और उसके संरक्षण के काम को बिना किसी संस्था की मदद लिए मिशन की तरह कर रहे हैं।

कुछ वर्ष पहले भी उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम था ‘बाजानामा: ए स्टडी आॅफ अर्ली इंडियन ग्रामोफोन रेकॉर्ड्स’। उनकी सद्य:प्रकाशित पुस्तक का नाम है ‘द वंडर दैट वाज द सिलिंडर: अर्ली एंड रेयर इंडियन रेकॉर्ड्स’, जो प्रसिद्ध इतिहासकार एएल बैशम की मशहूर किताब ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ की याद दिला देती है। इसे उन्होंने अपनी पुत्री अनुकृति ए शर्मा के साथ मिल कर लिखा है। स्पेंटा मल्टीमीडिया, मुंबई ने इसे डिजाइन, मुद्रित एवं प्रकाशित किया है और यह किताब जितनी पठनीय है, उतनी ही खूबसूरत भी। इसके हर पृष्ठ पर दुर्लभ चित्र हैं, जिनमें हमारे देश के संगीत के इतिहास और उस संगीत को रेकॉर्ड करने वाले यंत्रों के इतिहास की जानकारी एकत्रित है। इसे देख कर मन में यह बात जरूर आती है कि काश, हिंदी में भी इस तरह की किताबें लिखी जातीं और प्रकाशित होतीं!

पुस्तक का पहला अध्याय ‘द फोनोग्राफ एंड द सिलिंडर’ ध्वनि को संरक्षित करने के प्रयासों के इतिहास का शोधपरक अवलोकन प्रस्तुत करता है और उन पाठकों के लिए बहुत उपयोगी है जिनकी ध्वन्यांकन की तकनीकी के विकास के इतिहास को जानने में विशेष रुचि है। लेकिन दूसरे अध्याय से पुस्तक हर उस व्यक्ति का ज्ञानवर्धन करती है, जिसकी अपने देश के संगीत, नाटक और फिल्म के इतिहास में गहरी दिलचस्पी है। ध्वन्यांकन का असली इतिहास 1877 में शुरू होता है, जब सर टॉमस एल्वा एडिसन ने अपने आविष्कार का पेटेंट लिया था।

एएन शर्मा बताते हैं कि 1877 से 1899 के बीच भारत में पूर्व-व्यावसायिक या गैर-व्यावसायिक सिलिंडरिकल रिकॉर्डिंग का दौर रहा। 9 जनवरी, 1878 के बांग्ला प्रकाशन ‘समाचार चंद्रिका’ में सिलिंडरिकल रिकॉर्डिंग की तकनीक के आविष्कार की खबर छपी थी। 21 दिसंबर, 1878 के बांग्ला प्रकाशन ‘संवाद प्रभाकर’ में कलकत्ता (अब कोलकाता) में फोनोग्राफ के पहले सार्वजनिक प्रदर्शन का समाचार प्रकाशित हुआ था। दिलचस्प बात यह है कि ध्वनि के पुनर्सृजन के पहले प्रदर्शन में कोई बांग्ला गीत नहीं, बल्कि विदेशी डेव कार्सन द्वारा गाया हिंदी गीत सुनवाया गया था।

शर्मा बताते हैं कि इस दौर के सिलिंडरिकल रेकॉर्ड्स अधिकतर विदेश में हैं। इनमें से कुछ निजी संग्रहों में हैं और कुछ संस्थागत संग्रहों में। वे यह सवाल भी उठाते हैं कि क्या भारत की इस सांस्कृतिक धरोहर को देश में वापस नहीं लाया जा सकता?

यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है जिसके बारे में संस्कृतिकर्मियों को सोचना होगा और सरकार पर दबाव बनाना होगा कि वह इस दिशा में प्रयास करे। यह हमारा सौभाग्य है कि शर्मा को एक कबाड़ी की दुकान में लगभग दो सौ सिलिंडरिकल रेकॉर्ड्स मिल गए, जिन्हें वह कबाड़ी कपड़ा मिल की मशीन का कोई पुर्जा समझता था। संभव है इसी तरह की अमूल्य संपदा कहीं किसी और कबाड़ी के पास पड़ी हो और हमारे सौभाग्य से मिल जाए।

मगर जो कुछ शर्मा को मिला, और वे जिस लगन के साथ उसे इस हालत में लाए कि इस खजाने में छिपी दौलत हमारे कानों तक पहुंच सके, उसी का परिणाम है कि आज हम किंवदंती बन चुकी विभूतियों की आवाजें सुन सकते हैं। एएन शर्मा ने सिलिंडरिकल और ग्रामोफोन रेकॉर्ड्स का कारोबार किस तरह भारत में पनपा, उसका भी विस्तृत इतिहास उपलब्ध कराया है और इससे पता चलता है कि वह कितनी बारीकी से हर बात की छानबीन करने वाले शोधार्थी हैं। क्या हमारे विश्वविद्यालयों के इतिहास विभाग और संगीत संकाय में शोध करने और करवाने वाले शर्मा के उदाहरण से कुछ सीखेंगे?

कई सिलिंडरिकल रेकॉर्ड्स पर यह नहीं लिखा है कि इसमें किसकी आवाज रेकॉर्ड की गई है। लेकिन सौभाग्य से ऐसे अधिकांश रेकॉर्ड्स में गायक या गायिका के नाम की उद्घोषणा की गई है, जिससे किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता।

भास्करबुआ बाखले की रिकॉर्डिंग का पता इसी तरह चला। शर्मा के संग्रह में कुछ ऐसे रेकॉर्ड्स भी हैं, जिन्हें चला कर सुनने के यंत्र उपलब्ध नहीं है। आशा करनी चाहिए कि उनके शोध की लंबी यात्रा में ऐसा मुकाम भी आएगा जब वे इन रेकॉर्ड्स को भी सुनने-सुनवाने का प्रबंध कर लेंगे। पुस्तक के साथ दी गई सीडी में भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के की आवाज की रिकॉर्डिंग भी है। यह रिकॉर्डिंग 1913 में किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा की गई थी और इस समय तक दादासाहेब ने अपनी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ पूरी कर ली थी। इस रिकॉर्डिंग में उन्होंने कहा है कि उनकी हार्दिक इच्छा है कि भारतीय सिनेमा विश्व भर में जाए और उसे व्यापक स्वीकृति और सम्मान मिले। विश्व में भारतीय सिनेमा को आज जो स्थान हासिल है, उसे देखते हुए इस भविष्यद्रष्टा के प्रति हृदय सम्मान से भर उठता है। साथ ही एएन शर्मा जैसे शोधकर्मियों के प्रति भी, जो हमारी सांस्कृतिक निधि को खोज कर हमें सौंप रहे हैं।

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