अशोक वाजपेयी
अशोक सेकसरिया का अकस्मात देहावसान स्तब्धकारी है; उनके गिरने और पैर की सर्जरी जरूरी होने की खबर थी और यह भी कि वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगे। उनकी मृत्यु दिल के दो दौरे एक के बाद एक पड़ने से हुई यह किसी ने नहीं सोचा था, शायद स्वयं उन्होंने भी नहीं। उन्हें व्यापक हिंदी साहित्य-समाज न भी जानता रहा हो, उसके कई महत्त्वपूर्ण लेखकों के वे बहुत आत्मीय मित्र रहे। कलकत्ते में उनका घर सचमुच एक तरह का तीर्थ था और जो भी बड़े-छोटे लेखक वहां जाते, उनसे मिलने जरूर पहुंचते। एक कमरे में अपना भौतिक जीवन सीमित कर वे दीन-दुनिया की पूरी खबर रखते थे। उनकी शख्सियत में अपार अनुराग, सच्ची-खरी बौद्धिकता और गहरी असहमति सब एक साथ थे। वे न तो किसी से आतंकित होते थे और न ही स्वयं किसी को आतंकित करते थे। अलबत्ता वे स्वयं अभिभूत होते थे और औरों को अभिभूत करने की उनमें सहज क्षमता थी।
अशोक से मेरी पहली भेंट दिल्ली में हुई थी, जब 1960 में पढ़ने सेंट स्टीवेंस कॉलेज में आया था। तब कनॉट प्लेस में प्राय: हर शाम जो मित्रमंडली जुड़ती थी, जिसमें श्रीकांत वर्मा, कमलेश, महेंद्र भल्ला, रमेश गोस्वामी, बाद में प्रयाग शुक्ल आदि थे, अशोक के अलावा। मैं भी उसमें शामिल हो गया था। कॉलेज के आतंककारी अंगरेजी माहौल से हिंदी की इस आत्मीय दुनिया में आकर अपनापा लगता था और राहत भी मिलती थी। यों तो सभी नई पुस्तकें और विशेषकर नए विदेशी लेखकों को पढ़ने में गहरी दिलचस्पी रखते थे, अशोक की इस सबमें दिलचस्पी गहरी थी। वीएस नायपाल, सेज़ारे पावेज आदि अनेक गद्यकारों से हमारा पहला परिचय अशोक ने ही कराया था। उस समय इन लेखकों के नाम तब कोई सेंट स्टीवेंस में नहीं जानता था!
अशोक ने हिंदी पत्रकारिता में खेल पर अथक उत्साह और गहरी समझ के साथ लिखने की शुरुआत की थी। वे अक्सर अखबार में रात देर की ड्यूटी लेते थे। दो-तीन छद्म नामों से उन्होंने कई अनूठी कहानियां भी लिखीं। पर अपने पहरावे से लेकर अपने लेखन तक उनमें बेपरवाही थी। हमारी मंडली में वे आत्मविलय के बिरले व्यक्तित्व थे। अपने को कष्ट में डाल कर भी दूसरों की मदद करना उनका निजी अध्यात्म बन गया, जिसे वे जिंदगी भर निभाते रहे। जो उनके निकट पहुंचता वह उनके परिवार का सदस्य बन जाता था। उसके बारे में उनकी उत्सुकता और चिंता दोनों ही पारिवारिक किस्म की हो जाती थीं। अशोक ने शायद कभी किसी पर अपना रत्ती भर बोझ नहीं डाला, भले कइयों का बेवजह बोझ वे बखुशी उठाते रहे।
समाज, भाषा, साहित्य, राजनीति, खेल आदि उनके सरोकारों में शामिल थे और इनमें से हरेक की उनकी समझ और व्याख्या अनूठी होती थी। कई पीढ़ियों के लोगों को उनकी इस बौद्धिक प्रखरता और आत्मीयता ने स्वयं अपना समय और सच समझने में मदद की। अब हम इस दुखद अचरज में घिरे हैं कि हमारे बीच ऐसा व्यक्ति भी था, जो इतना निर्मल-सजल वीतराग था, जबकि हमारे समय में ऐसी सहज, पर बौद्धिक रूप से सघन-समृद्ध संतई लगभग असंभव, अकल्पनीय हो गई है।
जीने की बुरी खबर
हमारे दिवंगत कविमित्र जितेंद्र कुमार के डॉक्टर-सैनिक बेटे की कश्मीर में एक मुठभेड़ में मृत्यु हुई थी: वह उनकी और सेरेमिक कलाकार निर्मला की एकमात्र संतान थे। जितेंद्र ने इस भयावह ट्रैजेडी के बाद और स्वयं 2006 में उनकी अपनी मृत्यु के बीच जो शोककविताएं लिखीं उनमें से पंद्रह ताजा ‘समास-11’ में प्रकाशित हुई हैं। आज की हिंदी कविता में मृत्यु लगभग गायब है। कभी कोई लिखता भी तो प्राय: सार्वजनिक मृत्यु पर। ऐसे में जितेंद्र की ये कविताएं अप्रतिम हैं। उनका रेंज और शिल्प सघन-उत्कट है और विस्तृत भी।
उनमें यह कहने की हिम्मत है कि ‘तुम जैसा चाहते हो वैसे गायब नहीं हो सकते/ तुम लिथड़-लिथड़ कर मरोगे।’ तो यह इसरार भी कि ‘…शब्दों का सचमुच कोई अर्थ नहीं/ जीवन का तो अपना विधान होता है/ केवल छद्म का है अपना तर्क/ बाकी तो सब बियाबान होता है/ पृथ्वी उसके ही दम पर तो घूम रही है।’ वे पूरी बेबाकी से अपने से ही पूछते हैं कि ‘…पहले पिता होने के अलावा तुम क्या थे?/ मृत्यु के बाद क्या बचे?’ और यह अहसास भी उन्हें गहरा है कि ‘डरते हो पर प्रतीक्षा नहीं करते/ करो भी तो किसकी/ तुम्हें अचानक मालूम हो गया है कि जीना/ बुरी खबर के अलावा एक बड़ी निरर्थक परेशानी भी है।’
कविता में आकर कोई भी दुख शायद अधिक सह्य हो जाता है। जितेंद्र एक कविता में लिखते हैं:
उड़ने से पहले लाश आती है
ऊपर पहुंच कर पता भेजेंगे
वह लिख कर आया आखिरी खत
एक रोज पहले ही मिला था
वादे के अनुसार वह ऊपर चला गया
पर पता नहीं भेजा
ईश्वर के यहां भी हड़ताल है।
कई बार इन कविताओं की सपाटबयानी बेहद मार्मिक है जैसे- ‘क्या उससे मेरी पेंशन रुक सकती है? वह मेरे बेटे की आ गई है। कभी-कभी तो लगता है कुछ हुआ नहीं/ तुम्हारा तो कोई बेटा था नहीं/ जो मर सकता हो- नहीं कोई बेटा नहीं।’ जितेंद्र का दुख आत्मालोचन से मुक्त नहीं है:
पर अपने दंभ में तुमने क्या दूसरे का
कुछ सहा (देखा) है
निरंतर मांगते कि अपने जीवित जीवन में
दूसरे तुम्हारा दुख समझें
तुम्हारी बातें सुनें
भले वे दंभोक्तियां बकवास हों
इसलिए तुम अपने अपमान,
अपने दुख
को बढ़ाते हो- बेटा नहीं रहा है।
मेहरबान कैसे कैसे
साहित्य-समाज में सज्जनता और दुष्टता साथ-साथ चलती है जैसे कि व्यापक समाज में भी। इस पर अचरज कायदे से नहीं होना चाहिए। फिर भी, होता है तो इस कारण कि साहित्य हमें बेहतर मनुष्य बनाता है, ऐसा भरोसा हम करते हैं। पर अगर वह स्वयं उसे रचने वाले को ही बेहतर मनुष्य न बना सके तो उसकी क्षमता पर संदेह होने लगता है। इस बीच लगता है कि खबरों और अफवाहों के बीच दूरी या बैर बहुत घट गया है। लेखक ही दूसरे लेखकों के बारे में अफवाहें बहुत चटखारे लेकर फैलाते रहते हैं। कुछ तो शुद्ध विनोद के भाव से उपजती हैं, कुछ दुष्टता से। ऐसी दुष्टता युवाओं में किसी हद तक उनके अभी अपरिपक्व होने के कारण समझी और नजरअंदाज की जा सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी दुष्टता ऐसे लोगों में भी सक्रिय है, जिन्हें उससे कोई लाभ ले सकने की उम्र और अवसर नहीं हैं, सिवाय अपने मन-नापसंदों को कुछ और न कर पाकर कम से कम बदनाम करने के।
ऐसी ही एक अफवाह, जो एक वरिष्ठ विदुषी द्वारा फैलाई जा रही है, मुझ तक पहुंची। वह रज़ा फाउंडेशन में हो रहे या होते रहे तथाकथित और पूर्णत: कल्पित घपलों के बारे में है। मैं पिछले चौदह वर्ष से इस ट्रस्ट से उसके संस्थापक ट्रस्टी की तरह जुड़ा हूं। उसे भारत के महान चित्रकार और मेरे घनिष्ठ मित्र सैयद हैदर रज़ा ने बहुत उदारतापूर्वक पर्याप्त राशि दी है। उनके भारत लौटने के बाद उनकी प्रेरणा से यह फाउंडेशन विशेष सक्रिय हुआ है और उसकी गतिविधियों में विस्तार हुआ है। तीन पत्रिकाओं ‘समास’, ‘स्वरमुद्रा’ और ‘अरूप’ के अलावा हम परिसंवाद की एक सीरीज ‘आर्ट मैटर्स’ दो वर्षों से लगभग घर में ही चला रहे हैं। हमने ‘सहमत’, ‘खोज’, ‘गति’, कुमार गंधर्व प्रतिष्ठान, पेंगुइन बुक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय आदि को वित्तीय सहायता दी है। पांच फेलोशिप के अंतर्गत काम हो रहा है। बिरजू महाराज, श्रीकांत वर्मा, वासुदेव गायतोण्डे, भारतीय सौंदर्य-परंपरा के स्रोत आदि पर काम हो रहा है। हमारी गविविधियां मुंबई, चेन्नई, कोलकाता आदि में शुरू होने को हैं।
कोई ट्रस्टी नियमत: फाउंडेशन से कोई निजी लाभ नहीं ले सकता। स्वयं अपनी राशि से खरीदे गए मकान में रहते हुए, जिसे उन्होंने रज़ा फाउंडेशन के नाम रजिस्टर कराया है, रज़ा उसका मासिक किराया फाउंडेशन को देते हैं। हमारी पत्रिकाओं के तीन संपादक ट्रस्टी होने के कारण संपादन का कोई पारिश्रमिक नहीं लेते। हमारा हिसाब बाकायदा हर वर्ष आॅडिट होता है और अब तक उसमें कुछ भी अनियमित नहीं पाया गया है। इस तीक्ष्णबुद्धि विदुषी को किस या किन घपलों की खबर है, पता नहीं। हिम्मत हो तो वे अफवाह फैलाने के बजाय सार्वजनिक रूप से बताएं।
दो लेखकों द्वारा बनाया गया, साहित्य और भाषा के संवर्द्धन के लिए, एक ट्रस्ट शुरू से ही विभिन्न कारणों से निष्क्रिय रहा आया। उसके संस्थापक ट्रस्टी ने अपने से यह प्रस्ताव किया कि फाउंडेशन उसे अपने में समाहित कर ले और उसके साधन और देनदारियों की जिम्मेदारी ले ले। उस ट्रस्ट को एक बड़ी राशि हमने दे भी दी। हमने यह प्रस्ताव उसे सिर्फ भाषा और साहित्य के लिए उपयोग करने की प्रतिश्रुति के साथ स्वीकार कर लिया और कानूनी कार्रवाई शुरू हो गई है। इस विदुषी ने अब यह अफवाह फैलानी शुरू कर दी है कि हम या फाउंडेशन उस ट्रस्ट और उसकी संपत्ति को षड्यंत्र कर हड़प रहे हैं! फाउंडेशन को कोई राशि या संपत्ति दे, सिर्फ भाषा और साहित्य पर उसका उपयोग करने के लिए, तो हम उसे सहर्ष-साभार स्वीकार करेंगे। लेकिन हमारे पास संसाधनों की, रज़ा साहब की उदारता के कारण, कमी नहीं है। हम जो करना चाहते हैं अपने फाउंडेशन के उद्देश्यों के अनुरूप उसके लिए सौभाग्य से हम सक्षम हैं: हमें षड्यंत्र करने, किसी का कुछ हड़पने की कोई न तो दरकार है या इच्छा। किसी की कृपा के भी हम मुहताज नहीं।
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