देवेंद्र पाल
फ्रांसीसी फिल्मकार फ्रांसुआ त्रुफो कहते थे कि सिनेमा अच्छा होता है या बुरा होता है। मगर उन्हें कहां पता था कि भारत में फिल्म को पुरस्कृत और प्रतिबंधित करने का अलग ही पैमाना है।
कोई भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जब किसी फिल्म को मिलता है तो उसके आगे-पीछे की राजनीति पर चर्चा गरम होते ही खासी रौनक-सी लग जाती है। ऐसे माहौल में याद आता है कि जरूरी नहीं कि सहमति-असहमति वैचारिकता से ही प्रेरित हो। वजहें और भी हो सकती हैं।
एक फिल्म को ताजा-ताजा राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। प्रशंसा सुनने को तो बहुत मिली, लेकिन फिल्म देखने को नहीं मिली थी। राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा के साथ ही खबरों में बताया गया कि रविवार रात नौ बजे वह फिल्म दूरदर्शन पर दिखाई जाएगी। उन दिनों ‘ये जो है जिंदगी’ और ‘हमलोग’ जैसे धारावाहिक सिनेमा के दर्शकों को खींचने लगे थे। फिर भी सार्थक फिल्म के प्रसारण की खबर बहुत बड़ी होती थी। हम पालथी मार के बैठ गए कि फिल्म देखेंगे। पर यह क्या! दूरदर्शनी धुन बजी, विज्ञापन भी दिखाई दिए, लेकिन उसके बाद ‘कृषि-दर्शन’ नुमा कोई कार्यक्रम शुरू हो गया। जिस फिल्म ‘न्यू देहली टाइम्स’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था, उसे नहीं दिखाया गया। भन्नाए हुए सिरों में सवाल उठ खड़ा हुआ, क्यों?
रमेश शर्मा द्वारा निर्देशित ‘न्यू देहली टाइम्स’, भारतीय लोकतंत्र की दुरवस्था में मीडिया घरानों और पक्ष-विपक्ष के राजनेताओं के आपसी गठजोड़ का शिकार हुए एक ईमानदार पत्रकार की कहानी पर बनी फिल्म थी, जो व्यवस्था के भीतर की खामियों और आम आदमी की लाचारगी को बखूबी रेखांकित करती है। यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि संपादक अखबार का मालिक नहीं होता और संपादक की सत्ता पाकर भी वह सीमाबद्ध होता है। उसका उपयोग वह आम आदमी के पक्ष में मालिकों द्वारा निर्धारित सीमा तक ही कर सकता है। ‘न्यू देहली टाइम्स’ प्रतिरोध की आवाज की कोई बात किए बगैर लज्जा का बोध करा सकने वाली एक विचारोत्तेजक फिल्म कही जा सकती है। शायद ‘लज्जा’ ही वह मुख्य वजह रही होगी या फिर कार्टूनों से भी डरने वालों का रचनाशक्ति के प्रति वह ‘खौफ’ कि घोषणा कर दिए जाने के बाद भी इस फिल्म का दूरदर्शन पर कभी प्रसारण नहीं किया गया।
महान फिल्में इत्तेफाक से नहीं बन जातीं, न ही बहुत सारा पैसा लगा कर बनाई जा सकती हैं। उसके पीछे एक अलग किस्म की आग होती है, एक जोश, एक आवेग, एक अनुराग, एक तमक या फिर उसे जुनून कहें, जो निर्माण के वक्त फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति के लहू में दौड़ रहा होता है। या फिर बलराज साहनी जैसी कोई प्रेरणादायी शक्ति होती है, जिसके चलते बिना साउंड रिकॉर्डिंग के, सिर्फ एक कैमरा और एक लेंस की मदद से महज दो लाख उनचास हजार रुपए में ‘गरम हवा’ जैसी महान फिल्में (आगरा शहर में जाकर) शूट हो जाती हैं।
इस्मत चुगताई की एक अप्रकाशित सच्ची कहानी पर एमएस सथ्यू ने यह अविस्मरणीय फिल्म एफएफसी (उन दिनों ‘एनएफडीसी’ को ‘एफएफसी’ कहा जाता था) से कर्ज लेकर बनाई थी। बलराज साहनी ‘गरम हवा’ नहीं देख पाए थे। इस फिल्म का अंतिम संवाद डब करने के अगले दिन वे गुजर गए थे। विभाजन के बाद देश को जिस त्रासदी के जख्म अपनी देह पर झेलने पड़े थे, उसकी कहानी कहती इस अद्वितीय फिल्म को बाद में बेशक राष्ट्रीय पुरस्कार दे दिया गया, लेकिन दंगे भड़कने का खतरा बताते हुए इसे भी आठ महीने तक सेंट्रल बोर्ड ने लटकाए रखा था। कर्ज राशि पर लगने वाले सूद का हिसाब तो लगाया जा सकता है, लेकिन सथ्यू साहब को इस फिल्म को रिलीज कराने के लिए सरकारी अफसरों, नेताओं और पत्रकारों के दरवाजे पर दस्तक देते वक्त जिस भयावह पीड़ा से गुजरना पड़ा था, उसका हिसाब कोई नहीं लगा सकता।
2002 में गुजरात में हुई कत्लोगारत ने फिल्मकार राहुल ढोलकिया जैसे बहुतों को आहत किया था। राहुल के एक दोस्त का परिवार भी इस हिंसा का शिकार हुआ था। गुलबर्गा हाउसिंग सोसाइटी में हुए जनसंहार के भुक्तभोगियों में एक पारसी परिवार भी था, जिसका दस वर्षीय बेटा अजहर मोदी गायब हो गया। राहुल ने इसी बच्चे को केंद्र में रख कर इस सच्चे हादसे पर पटकथा तैयार की। उसने मुंबई और अमेरिका में अपने जानने वालों से कर्ज लिया और नसीरुद्दीन शाह और सारिका को लेकर फिल्म बनाई- ‘परजानिया’।
‘परजानिया’ के गुजरात में प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई। इसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, प्रशंसा मिली, लेकिन निजी सेनाओं के हमले के डर से दर्शक नहीं मिले। ‘परजानिया’ को मिली प्रशंसा की वजह से राहुल की अगली फिल्म (जो वे गुजरात के विकासशील शराब माफिया पर बना रहे हैं) में शाहरुख खान और फरहान अख्तर मुख्य भूमिका निभाने को राजी हो गए थे, लेकिन यह तब की बात है जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। अब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद शाहरुख खान (जिन्हें ‘हैप्पी न्यू इयर’ के बाद राहुल की फिल्म करनी थी) उसका फोन नहीं उठा रहे।
सोनाली बोस ने एक फिल्म बनाई- ‘अमू’, जो सिख-विरोधी हिंसा में मारे गए परिजनों को ढूंढ़ती एक लड़की की कहानी है। इस फिल्म में कोंकणा सेन शर्मा के अलावा माकपा नेता वृंदा करात ने भी अभिनय किया था। पहले तो सेंसर बोर्ड ने शोनाली को नाकों चने चबवा दिए। छह महत्त्वपूर्ण जगहों पर कैंची चलाई, फिर ‘ए’ सर्टिफिकेट थमा दिया। फिर कानूनी धोबी-पाट लगाया और दूरदर्शन पर टेलीकास्ट करने पर रोक लगा दी। सोनाली ने एक बार फिर सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट में रियायत की मांग की तो और दस मिनट पर कैंची लगा कर फिल्म में से वे सारे दृश्य उड़ा देने को कहा, जिसमें सिख विरोधी हिंसा का जिक्र तक किया गया था। ‘अमू’ को भी सर्वश्रेष्ठ अंगरेजी फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सत्यजित राय मानते थे कि ‘शिल्पी की स्वतंत्रता निर्दिष्ट परिधि में ही आबद्ध रहती है।’ 1971 में सिक्किम नरेश (चोग्याल) पालदेन थोंदूप नांग्याल ने सत्यजित राय से उनके चचेरे भाई के जरिए संपर्क किया। सिक्किम नरेश और उनकी दूसरी अमेरिकी पत्नी होप कुक उन दिनों सिक्किम राष्ट्र की संप्रभुता पर चीन और भारत की ओर से मंडराते खतरे को भांप गए थे, इसलिए राय से एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनवाना चाहते थे। बांग्लादेश युद्ध के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी भी इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार बता रहे थे, सत्यजित राय सिक्किम को फिल्मा रहे थे।
सिक्किम की संप्रभुता के एक दस्तावेज के तौर पर राय ने उन्हें फिल्म ‘सिक्किम’ बना कर दी, जिसकी स्क्रीनिंग सिर्फ चोग्याल परिवार के लिए की गई और औपचारिक रूप से इस फिल्म को कहीं रिलीज नहीं किया गया। 1975 में बाईसवें राज्य के तौर पर सिक्किम के भारत में विलय हो जाने के बाद इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया और इसकी सभी उपलब्ध प्रतियां नष्ट कर दी गर्इं।
बरसों तक इस फिल्म का कहीं कोई जिक्र नहीं हुआ। 2003 में कहीं से खबर आई कि इस फिल्म की एक प्रति अच्छी हालत में ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट के पास सुरक्षित है। फिल्म का यह प्रिंट बहुत बुरी हालत में कोलकाता स्थित सत्यजित राय सोसाइटी को चोग्याल परिवार के पास मिला, जिसे सुधार कर देखने योग्य बना पाना अपने यहां संभव नहीं था। इसलिए इसकी मरम्मत का बीड़ा लंदन की अकादेमी आॅफ मोशन पिक्चर आर्ट्स ऐंड साइंसेस ने उठाया और सुधरा हुआ प्रिंट 2008 में फ्रांस के एक फिल्म मेले में ‘राय रेट्रोस्पेक्टिव’ में दिखाया गया।
शायद यह सोच कर कि भोपाल की त्रासदी भूल चुके लोगों को सिक्किम की कहानी कहां याद होगी, 2010 में फिल्म ‘सिक्किम’ पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और उनतालीस साल बाद दर्शकों से खचाखच भरे कोलकाता के फिल्म और सांस्कृतिक केंद्र ‘नंदन’ में लोगों ने फर्श पर बैठ कर इस फिल्म का एकमात्र शो देखा। उसके बाद कोई और शो नहीं हो पाया, क्योंकि सिक्किम की अदालत ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक का फरमान जारी कर दिया था।
कुछ फिल्में प्रतिबंधित होकर भी चुपचाप इतिहास का हिस्सा बन जाती हैं। युवा फिल्मकार शुभ्रदीप चक्रवर्ती और मीरा चौधरी की सांप्रदायिकता के खिलाफ दो घंटे सत्ताईस मिनट लंबी दस्तावेजी फिल्म ‘इन दिनों मुजफ्फरनगर’ का नाम भी इतिहास में इस वजह से शामिल हो गया है कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में प्रतिबंधित होने वाली यह पहली फिल्म है। पिछले दिनों मैं मुंबई में था, जब किसी दोस्त ने फोन पर बताया कि शुभ्रदीप नहीं रहे, दिमाग की नस फट जाने की वजह से उनका देहावसान हो गया। जब यह फोन आया मैं टीवी देख रहा था, जिस पर लोग ‘हर हर मोदी’ के नारे लगा रहे थे और उनकी तरफ हाथ हिलाते हुए मोदी के चेहरे पर खिली हुई मुस्कान थी।
किस आधार पर कहा जा सकता है कि आने वाले वक्तों में भी कुछ अच्छा होगा? आखिर कब तक सार्थक सिनेमा दूरदर्शन के कब्रिस्तान में धक्के खाएगा या फिल्म मेले से बाहर आते ही मंशा याद की कहानी के किसी पात्र की तरह वीरगति को प्राप्त होता रहेगा? सार्थक सिनेमा के अच्छे दिन तो तब आएंगे, जब उसको लेकर सार्थक चिंताएं ठोस रूप से प्रतिबिंबित होंगी। इसके लिए जरूरी है कि हर शहसवार ‘अंधे घोड़े का दान’ लेने से इनकारी हो जाए और दानोत्सव वीरान हो जाएं।
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