अपूर्वानंद

प्रश्न करें या न करें: प्रश्न यही है! रोमिला थापर ने निखिल चक्रवर्ती की याद में दिए व्याख्यान में यह सवाल उठाया। यह शेक्सपीयर की प्रसिद्ध उक्ति के साथ एक शब्द-क्रीड़ा मात्र न थी। रोमिला की चिंता भारत के वर्तमान परिदृश्य को लेकर ही थी और है। उन्हें लग रहा है कि हम समाज के तौर पर पर्याप्त प्रश्न नहीं कर रहे हैं। सवाल यह है कि सवाल क्या हैं और किससे किए जाने हैं। सबसे पहले यही तय करना होता है कि किसी संदर्भ में कौन-सा सवाल महत्त्वपूर्ण और ‘अर्जेंट’ है। यानी वैसा सवाल जो अभी ही किया जाना चाहिए, जिसे स्थगित नहीं किया जा सकता।

रोमिला जिस सवाल की बात कर रही हैं, वह सत्ता से किया जाने वाला सवाल है। यानी असल सवाल वही हैं जो हर प्रकार की सत्ता से- चाहे वह राजनीतिक हो, धार्मिक हो या कोई और- किए जा सकें। दूसरे, उन धारणाओं को भी प्रश्न के घेरे में लाना जो सर्वस्वीकृत हैं और स्वाभाविक जान पड़ती हैं। जिस सवाल को सबसे ज्यादा अवरोध का सामना करना पड़े, वही करने योग्य है। हम जानते हैं कि ऐसा करने में जोखिम है। सवाल करने वाले मारे जा सकते हैं। अविजित रॉय, गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर- सूची बहुत लंबी हो सकती है।

धरती-केंद्रित ब्रह्मांडीय कल्पना पर सवाल उठाना और पुरुष-केंद्रित सामाजिक व्यवस्था पर सवाल उठाना एक-सा मुश्किल था। निजी संपत्ति के सिद्धांत की पवित्रता पर सवाल उठाना जितना मुश्किल था, उतना ही मुश्किल था पश्चिम की श्वेत-प्रभुता और भारत की ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर सवाल करना। कुछ प्रश्न बाद में विजयी होकर सत्तासीन हो जाते हैं। लेकिन इसके चलते प्रश्न करने की परंपरा प्रतिष्ठित नहीं हो जाती। या प्रश्न अपने आप में वरेण्य नहीं हो जाता।
रोमिला थापर ने यूरोप और भारत में प्रश्न की परंपरा का जिक्र किया। सुकरात से लेकर सिसेरो, लौक, ह्यूम, वाल्तेयर, रूसो, जिन्होंने परिपाटीबद्ध ज्ञान-व्यवस्था पर सवाल उठाए, या चर्च की प्रधानता पर। भारत में यह परंपरा उतनी ही दृढ़ रही है। बुद्ध सबसे बड़े नाम हैं, लेकिन आर्यभट्ट हों या चार्वाक या पूरी की पूरी श्रमण-परंपरा, प्रश्न भारत के लिए कोई पराया स्वभाव नहीं है। ऐसा नहीं कि यह अभ्यास हमने पश्चिम के ज्ञानोदय से प्राप्त किया। लेकिन उन्हें ऐसा लग रहा है कि आज के भारत में यह अभ्यास क्षीण पड़ गया है।

रोमिला के व्याख्यान पर विचार करते हुए इतिहासकार नीलाद्रि भट्टाचार्य ने कहा कि रोमिला एक प्रकार के अतीतमोह में हैं और वर्तमान को लेकर अतिरिक्त रूप से आशंकित हैं। उनके मुताबिक वीरोचित अंदाज में सवाल करने वालों की खोज करना न्यायसंगत नहीं है। लोग अपने रोजमर्रापन में ही छोटे-छोटे सवाल कर रहे हैं और उनका महत्त्व कम नहीं है।
दार्शनिक सुंदर सरुकाई ने संदेह को प्रश्न का स्रोत बताया। संदेह ज्ञान के लिए एक आवश्यक पद्धति है। संदेह को लगभग हर दार्शनिक परंपरा में प्राथमिकता दी गई है। फिर भी आस्था ने संदेह को हर जगह परास्त किया। क्यों?

प्रश्न फिर यह है कि ज्ञान के विस्तार के बावजूद, अज्ञात के भेदन में विज्ञान की क्षमता में अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद समाज में प्रश्न की प्रतिष्ठा क्यों घट रही है? इसका अर्थ यही है कि विज्ञान अपने आप में प्रश्न को मानवीय शील के लिए अनिवार्य बना पाने में सफल नहीं हो सका है।

प्रश्न करने की अर्हता फिर किसकी है और कैसे हासिल होती है? इसके लिए पूर्व ज्ञान, संदर्भ-बोध और संदेह अनिवार्य है। इनके बिना भी प्रश्न करने से किसी को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उसके प्रश्न को तवज्जो मिलने की गारंटी नहीं। इसके साथ ही पद्धतिगत शर्त यह है कि जिस रूढ़ि या परंपरा पर सवाल उठाया जाए, उसे यथासंभव बिना अपनी टिप्पणी के पहले प्रस्तुत किया जाए। बिना उसके पूरे परिचय के उसकी आलोचना या उस पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं मिलता। इसी तरह यह कहा जाता है कि कार्ल मार्क्स के लेखन में ही आपको पूंजीवाद के पक्ष में सारे तर्क मिल जाएंगे। पूर्व पक्ष की प्रतिष्ठा के बिना उत्तर पक्ष का अस्तित्व संभव नहीं।

लेकिन प्रश्न सिर्फ दार्शनिक ऊहापोह का मामला नहीं है। रोमिला दरअसल प्रश्न करने वालों की एक जमात के अभाव से चिंतित हैं। इन्हें वे बुद्धिजीवी या सार्वजनिक बुद्धिजीवी कहती हैं। विभिन्न अनुशासनों के विद्वानों का होना एक बात है और उनका बुद्धिजीवी होना बिल्कुल अलग।

अपने ज्ञानानुशासन में दक्षता के बावजूद जो उसकी सीमा लांघ नहीं पाता, वह बुद्धिजीवी नहीं कहला सकता। उसी तरह जो किसी स्थिति या समस्या के विश्लेषण मात्र तक रुक जाता है, वह भी बुद्धिजीवी नहीं। टेरी ईगल्टन कहते हैं कि विश्वविद्यालयों या शोध संस्थानों में पिस्सू की योनि-संरचना जैसे सूक्ष्म शोध करने वाले मिल जाएंगे, लेकिन वे बुद्धिजीवी नहीं हैं। बुद्धिजीवी तो वे हैं जो समाज को प्रभावित करने वाले विचारों का आविष्कार कर सकें या समाज की समझ पेश कर सकें, ताकि उसे अधिक न्यायसंगत दिशा में प्रवृत्त किया जा सके। इसका अर्थ यह है कि बुद्धिजीवी किसी स्थिति के लिए तर्क मात्र प्रस्तुत करके नहीं रह जाता, वह स्थितियों से असंतुष्ट होता है, उन पर क्रुद्ध होता है और उन्हें बदलना चाहता है।

अक्सर कहा जाता है कि बुद्धिजीवी का काम सत्ता को सत्य बताना है। नोम चोम्स्की कहते हैं कि सत्ता जानती है कि सत्य क्या है और जान कर उसके खिलाफ काम करती है। जैसा ‘महाभारत’ में दुर्योधन ने कहा है कि धर्म जानता हूं, लेकिन उस ओर प्रवृत्ति नहीं; अधर्म भी जानता हूं, लेकिन उससे निवृत्ति नहीं। क्या यह सत्ता मात्र का स्वभाव है? तो ऐसी स्थति में बुद्धिजीवी का कर्तव्य क्या है?

बुद्धिजीवी इसके लिए अभिशप्त है कि वह प्रकार की सत्ता-व्यवस्था के इस स्वभाव से लोगों को सावधान करता रहे। मुक्तिकामी विचार की अपनी सत्ता बन जाती है, इसलिए उसे भी आलोचक की आवश्यकता है। जब वह उनसे पीछा छुड़ा लेता है, जैसा लेनिन ने गोर्की के साथ किया तो तुरत दमनकारी व्यवस्था में बदल जाता है।

बुद्धिजीवी इस तरह अगर प्रश्न करने का अधिकार चाहता है तो उसे यह सुविधा नहीं कि वह थोड़ी देर के लिए ही सही, किसी व्यवस्था का पैरोकार हो। उसी तरह न्याय के नाम पर बनी व्यवस्था के किसी अन्याय पर अगर वह सही अवसर के अभाव के बहाने चुप रह जाता है तो आगे प्रश्न करने का हकदार नहीं रह जाता। या वह खुद संदेह के घेरे में आ जाता है।

भारत में प्रश्न करने वाले के समुदाय की विश्वसनीयता समाप्त होने का एक कारण सही अवसर की प्रतीक्षा करने का उसका स्वभाव है। दूसरे, वह प्रश्न करने के मामले में सुविधानुसार चुनाव करता रहा है। हाल के वर्षों में जिनके सवाल बाबरी मस्जिद या गुजरात-संहार के प्रसंगों में जनता के अस्त्र थे, सिंगूर-नंदीग्राम की हिंसा के समय उनमें से कई की खामोशी या उसके अप्रत्यक्ष समर्थन ने उनके दूसरे जायज सवालों की धार भी कुंद कर दी। या वे प्रश्न करने का अधिकार खो बैठे।

प्रश्न करने की क्या पेशेवर जमात होगी? रोमिला थापर हों या टेरी ईगल्टन, उदारवादी अर्थव्यवस्था के चलते विश्वविद्यालयों की भूमिका में आ रही तब्दीली को भी एक कारण मानते हैं, प्रश्न के अभ्यास में ह्रास का। वह है, लेकिन ज्यादा बड़ी वजह है न्याय और बराबरी के नाम पर खड़े आंदोलनों की यह मांग कि उनसे सवाल न किया जाए।

प्रश्न के अधिकार को जब न्याय के नाम पर निरस्त किया जाता है तो अन्याय की ही प्रतिष्ठा होती है। इसलिए अगर प्रश्न की जगह बनाए रखनी है तो किसी भी प्रश्न को एक पल के लिए भी स्थगित करने के लोभ को तुरंत पहचानना होगा। दूसरे, जैसा पीटर डी सूजा ने कहा, मित्रता का लिहाज भी इसके आड़े नहीं आना चाहिए। कवि ने तो महात्मा का लिहाज भी नहीं किया था। तीसरे, सवाल के बिल्कुल सही होने की सम्मति प्राप्त होने की प्रतीक्षा उसे नाकारा बना देती है। वह अपने जन्म के पहले क्षण में ही किया जाकर कारगर हो पाएगा।

उनकी चिंता यह है कि विशेषज्ञ तो हैं, लेकिन बुद्धिजीवी नहीं हैं। विशेषकर सार्वजनिक बुद्धिजीवी।

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