अनिल पुष्कर
उर्मिला जैन के संग्रह गुनगुनी धूप का एक कतरा की कविताएं स्त्री वेदना को स्वर देती हैं। यहां स्त्री दुनिया के रचे कायदे-कानून का मखौल उड़ा रही है। ‘कठघरे में ईश्वर’ से होते हुए ‘आशीषों की छांह में: एक संदेह’ तक ईश्वर के होने की असलियत टटोलती हैं कि यह कैसा ईश्वर है, जो अपनी ही रची दुनिया में सब कुछ होते हुए देख रहा है। इस वक्त कितना लाचार और बेबस नजर आ रहा है।
एक स्त्री खुद जितना विस्तार पाती है उतनी ही उसमें हालात को देखने की पैनी नजर पैदा होती है। यह बहस ‘एक बार फिर: आठ मार्च’ से शुरू होती है। यह औरतों के हक की लड़ाई है, जो राजनीतिक अहाते में हुए फैसलों पर कुछ सवाल छोड़ जाती है: ‘आज ही/ अखबारों में/ फ्रंट न्यूज/ महिला बिल पर बन नहीं सकी आम राय/ सत्ता में भागीदारी देने पर/ नहीं हैं नेता तैयार/ यह स्त्री विमर्श है।’ यहीं से गुमराह करने वाली राजनीति को उजागर करने की दास्तान कविता में सिलसिलेवार चलती है।
‘माध्यम’ के जरिए औरत को विज्ञापन बनाने पर सख्त एतराज जताया गया है। ‘वह शहर कहां है?’ में निचले तबके की औरतों का पक्ष है। यहां उर्मिला जैन की कविता हाशिए के लोगों के साथ खड़ी होती है। यहां मजदूर, नौकरानी, गोबर पाथती बच्चियां, कूड़ा बीनती, घूरे में फेंकी लत्ते-सी दुल्हनें, बीमार पत्नी, रिक्शेवाला, जेलों में कैद निरपराध बेबस लोग हैं। यहां हाशिए का दुख है और जिंदा गोश्त के टुकड़े-सी परोसी जाने वाली औरतों के हक में एक अनथक संघर्ष यात्रा है: ‘वह शहर कहां है/ जहां उगता है सूरज हर कोने में/ चांद झांकता है खिड़कियों से/ बूंदें नाचती हैं छत पर/ और आंगन में/ खिलते हैं प्यार के फूल।’ एक आस जैसे हमेशा जिंदा है। एक उम्मीद बची रहती है।
‘मेरा पता’ में औरत अपना कुनबा संग लिए ठिकाना ढूंढ़ रही है। एक दुनिया बसाते हुए वह किस तरह हिंसक मुंडेरों पर जी नहीं पा रही। कैसी मजबूरी है। ‘मैं तलाशूंगी फिर एक नया घर’। यह जिगर के जोर पर ही कहा जा सकता है। यह कहना कतई आसान नहीं है। ‘एक अधिकारी दृष्टि’ में काम के बदले अनाज, विकास कार्यक्रम, गरीबी उन्मूलन, समाज कल्याण, महिला-बच्चों की विकास योजनाएं, रोजगार योजना को खंगालती है और पाती है कि फिर भी भूख से लोग मर रहे हैं। सरकार और आला अधिकारियों की कारगुजारी की बखिया उधेड़ती है। व्यवस्था पर एक टीस, एक त्रास से गुजर कर तल्ख लफ्जों में एक गहरा व्यंग्य करती है।
इन सारी चिंताओं से गुजरते हुए उर्मिला जैन औरत के यातना शिविरों को भूलती नहीं। चाहे वह ‘चुनिया की आजादी’ हो या फिर ‘महज एक इंसान’। वे औरतों के अंदरूनी द्वंद्व को एक मुश्किल सफर की तरह जीती हैं। ‘औरत का हिमालय’, ‘चलो आज चलें, ‘तेरी बातें’, ‘मुखौटा’, ‘मेरा आज का दिन’, ‘सच कहना’ और ‘प्रतिरोध’ ऐसी ही कविताएं हैं। ‘सुहाग भट्ठी’, ‘लिख मन’, और ‘एक बच्चा’ में बेहद संजीदगी से उस फलक पर दस्तक देती हैं, जहां उत्पीड़न और अत्याचार अपने पंजों से आसमान में फैले स्त्री के डैनों को कुतर कर अधमरा छोड़ देते हैं। मर्दवादी सोच के खिलाफ उनका स्वर इन कविताओं में तल्खी से उभरता है।
‘गुनगुनी धूप का एक कतरा’ की हर कविता इस बात की तस्दीक करती है कि औरतों का होना इंसानी दुनिया का होना है। उनकी हिफाजत, हक की लड़ाई एक बेहद गंभीर मसला है। यह भी औरतों को तय करना है कि उन्हें किस तरह आजादी हासिल हो। उन पर हो रही बर्बरता और अत्याचार कैसे रोके जा सकें। किस तरह इस बढ़ते हुए समाज में उनका दखल हो। किस तरह बराबर से लोक और तंत्र में साझेदारी हो। कोई भी प्रभुता किसी भी रूप में न हो- चाहे वह तंत्र, संस्था, व्यक्ति विशेष ही क्यों न हो। उसके जरिए जीने और सम्मान के हक की खातिर औरत कोई समझौता अब नहीं करेगी। उसकी अस्मिता किसी की गिरफ्त में न होगी, किसी के हवाले न होगी। औरतें खुद अपने हक की लड़ाई लड़ें और अपनी सही जगह हासिल करें। इस बात को ये कविताएं बहुत संजीदगी से कह जाती हैं।
तिरस्कार और यंत्रणा ने औरत के सारे सुखों को सोख लिया और उसे भोग्या बना कर जिस्म तक सिमट कर रहने और जीने को मजबूर किया। ‘बिन घरनी’, ‘देन’, ‘अहर्निश’ जैसी कविताएं इन ऐंठनों को, गांठों को मजबूती से कुरेदती-काटती हैं, पीड़ा को निकालने की डगर तलाशती हैं। वह गठबंधन का नकाब उतार कर असली शक्ल जादुई अंदाज में सामने लेकर आती है: ‘शेर, सियार, चीता, खरगोश/ गिद्ध, मोर, सांप/ और हाथी/ सब बन बैठे हैं साथी।’
धूप का एक कतरा बिरादरी से बाहर के दरीचों में ले जाता है। धूप कुछ रचने के क्रम में रचना की साझेदारी के सवाल से टकराती है। उर्मिला जैन के सोच का दायरा यहीं से विस्तार पाता है, जहां प्रकृति और आदमी के बीच संवाद भी पैदा होता है, भूमंडलीकरण के खिलाफ एक ज्वार खदबदाता है। छलकते हुए दुखों के पारे फूट पड़ते हैं। मन कचोटता है, एक कसैलापन भरने लगता है: छौने जैसी याद कोई, यादों की धुंध, जबलपुर की एक सांझ: टूटती मन:स्थितियों में, वो फिसलती संभलती हुई एक संतुलन बनाए रखती है।
यहां औरतें दुनिया में इंसान की वंशबेल बढ़ाने का जरिया मात्र नहीं हैं, बल्कि वे अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद हैं। उनके भीतर कहीं बहुत गहरे खुले विचार, आजाद खयाल पैदा हो रहे हैं। भीतर ढेरों जज्बात उठ रहे हैं। धड़कनों में बवंडर उठ रहे हैं। वे दुनिया की गति को थामे साथ-साथ चल रही हैं। इस बार उन्होंने इबादत और आत्मसमर्पण के बजाय मुकाबला करने का मन बना लिया है। दुनिया की कू्ररता का कवच तोड़ कर अपनी अस्मिता के साथ निकलने की तैयारी में हैं: ‘उठो नूरजहाओं/ खड़ी हो जाओ/ कब्रों से निकल कर/ जागो नूरजहाओं/ खड़ी हो जाओ/ चिताओं से उठ कर/ एक हो जाओ/ नूरजहाओं/ आवाजों को मिला कर/ हुंकारों/ धरती कांप उठे/ फट जाय आकाश का सीना/ अब मांगो नहीं छीन लो तुम भी/ हक जीने का/ एक आदमजात की तरह।’ ये संघर्ष के लिए संगठित होने की पहली शर्त है।
भूमंडलीकरण की जमीन पर जहां औरत की सौदेबाजी चल रही है। हमारे सामने की दुनिया जो औरतों की देह मंडी बनती जा रही है, मजहब ने औरतों की देह को भोग-वस्तु में ढाल दिया है। ऐसे मुश्किल हालात में यह कहना कि: ‘अब औरत खिड़की से झांकेगी नहीं/ उसे पूरा खोल देगी/ दरवाजों को खुला छोड़/ आ जाएगी बाहर/ वह निहारेगी ही नहीं/ सूरज, बादल, आकाश/ सूरज तापेगी/ बादल निचोड़ेगी/ आकाश नापेगी/ उसकी तलाश हो गई है पूरी।’ उसके जागरूक होने का सबूत है।
एक औरत के बनने में तमाम लघु अस्मिताएं शामिल होती हैं। ये अस्मिताएं औरत की दुनिया को रचती हैं। संग्रह के अंत तक आते-आते जैसे किसी सुकून ने जगह पा ली हो। लड़ाई अपने मकसद में कामयाब हुई है। कोई ख्वाहिश, कोई खलिश अब बाकी नहीं बची।
गुनगुनी धूप का एक कतरा: उर्मिला जैन; नई किताब, 1/11829, प्रथम मंजिल, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली; 170 रुपए।
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