कुलदीप कुमार
वर्ष समाप्ति की ओर बढ़ रहा है और देश अजीब किस्म की अफरातफरी की ओर। जिस सुशासन का वादा किया गया था, वह कहीं नजर नहीं आ रहा। वैचारिक स्वैराचार फल-फूल रहा है। विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ नेता प्रवीण तोगड़िया काफी समय तक शांत रहने के बाद फिर से आग उगलने लगे हैं और ‘जबर्दस्ती मुसलमान और ईसाई बनाए गए लोगों को’ हिंदू बनाने के कार्यक्रम पर अडिग हैं। बजरंग दल के मेरठ संयोजक बलराज डूंगर ने चेतावनी दी है कि भारत में रह रहे बांग्लादेशी या तो देश छोड़ दें या हिंदू बन जाएं। विहिप नेता रामविलास वेदांती अगले माह अयोध्या में चार हजार मुसलमानों को हिंदू बनाने की घोषणा कर रहे हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा और पूर्वोत्तर में रहने वाले मुसलमान, ईसाई और आदिवासी ही नहीं, केरल और कर्नाटक जैसे राज्य भी इस अभियान के निशाने पर हैं। लगता है समूचे देश में इस तथाकथित ‘घर वापसी’ के अलावा कोई और मुद्दा नहीं है।
इसी बीच हिंदू महासभा ने भी लंबे समय तक सोए रहने के बाद अचानक अंगड़ाई ली है। उसकी नींद तोड़ने का श्रेय भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज को जाता है, जिन्होंने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘राष्ट्रभक्त’ बता कर गौरवमंडित करने की कोशिश की है। इन परिस्थितियों में हिंदू महासभा ने सोचा कि जब उसके नेता का गुणगान भाजपा सांसद कर ही रहे हैं, तो वह पीछे क्यों रहे? उसके नेता गोडसे की प्रतिमाएं लगाने के लिए सरकार से जमीन मांग रहे हैं और न मिलने पर अपने कार्यालयों के परिसर में ही प्रतिमाएं लगाने का इरादा जता चुके हैं। तीस जनवरी का दिन, जब पूरा राष्ट्र महात्मा गांधी की स्मृति में शहीद दिवस मनाता है, अब हिंदू महासभा शौर्य दिवस के रूप में मनाना चाहती है, क्योंकि उस दिन महात्मा गांधी को मार कर नाथूराम गोडसे ने ‘शौर्य’ दिखाया था।
गोडसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य भी था। उसने पकड़े जाने के बाद कहा था कि वह संघ छोड़ चुका था, लेकिन उसके छोटे भाई गोपाल गोडसे ने कई बार इसका खंडन किया और कहा कि ऐसा उसने संघ नेतृत्व को बचाने के लिए किया था। वह संघ और हिंदू महासभा, दोनों का सक्रिय कार्यकर्ता था। महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर के ‘हिंदुत्व’ को संघ भी अपना मार्गदर्शक मानता है। उसके दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर की पुस्तिका ‘हम, और हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता’ सावरकर की पुस्तिका पर ही आधारित थी। गोलवलकर ने ‘धर्मांतरण का अर्थ राष्ट्रांतरण है’ जैसे सूत्रवाक्य दिए हैं और भारतीय और विदेशी धर्मों के बीच अंतर करते हुए माना है कि गैर-हिंदू ‘हमारे राष्ट्रजीवन के लिए विदेशी हैं’। उनकी दृढ़ धारणा थी कि ‘केवल हिंदू समाज का जीवन भारत की इस पवित्र भूमि का वास्तविक चिरंतन एवं वैभवशाली राष्ट्र-जीवन रहा है।’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल इस अर्थ में राजनीतिक संगठन नहीं है कि वह अपने नाम से चुनाव नहीं लड़ता। वह इस अर्थ में भी राजनीतिक संगठन नहीं है कि उसके लक्ष्य तात्कालिक नहीं, बल्कि दूरगामी, वैचारिक और रणनीतिक हैं। राजनीतिक पार्टियां केवल चुनाव लड़ती हैं, स्कूल-कॉलेज नहीं चलातीं। उनका लक्ष्य अपना वैचारिक प्रभावक्षेत्र बढ़ाने का कम, जनाधार बढ़ाने का ज्यादा होता है। इसीलिए यह जनाधार अक्सर अगला चुनाव आने तक कम या ज्यादा हो जाता है, लेकिन संघ जैसे संगठनों का वैचारिक आधार नहीं खिसकता। संघ का उद्देश्य देश और समाज के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपने वैचारिक प्रभाव का विस्तार करना है, ताकि अधिक से अधिक हिंदू उसकी यह बुनियादी आस्था कबूल कर लें कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। देश की शिक्षा व्यवस्था, अतीत के बारे में लोगों की धारणाएं और वर्तमान के बारे में उनके सपने, सभी कुछ उसके हिंदुत्व के दर्शन में रंगे हुए हों।
उसका अंतिम लक्ष्य केंद्र में सरकार बनाना नहीं, धर्मनिरपेक्ष भारत को एक हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना है और इस रणनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्र और राज्यों में सरकार बनाना केवल एक जरूरी कदम भर है। वरना राजनीतिक सत्ता पाने का क्या अर्थ, अगर उसके जरिए दूरगामी वैचारिक लक्ष्यों को हासिल करने की ओर कदम न बढ़ाया जा सके?
नरेंद्र मोदी की सरकार जिस वैचारिक परिवेश के भीतर काम कर रही है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह उम्मीद करना कि मोदी संघ और उससे जुड़े सभी संगठनों पर लगाम लगा सकते हैं, व्यर्थ होगा। इसी तरह की चुनौतियां अटल बिहारी वाजपेयी के सामने भी आई थीं। लोग भूले न होंगे कि प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने रामजन्मभूमि आंदोलन को ‘राष्ट्रीय भावनाओं का प्रकटीकरण’ कहा था। जब 1998-99 में गुजरात के डांग जिले में ईसाइयों के विरुद्ध सुनियोजित हिंसा की जा रही थी, तब उन्होंने ही धर्मपरिवर्तन पर राष्ट्रव्यापी बहस का आह्वान किया था। आज फिर उसी तरह का आह्वान किया जा रहा है। इतना ही नहीं, उदारवादी समझे जाने वाले वाजपेयी ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक ‘साजिश’ भी करार दिया था। हद तो तब हो गई जब अमर्त्य सेन को नोबेल पुरस्कार मिलने के पीछे विहिप के शीर्ष नेता अशोक सिंघल को ईसाई साजिश दिखने लगी थी।
उस समय वाजपेयी सरकार अन्य दलों के समर्थन से चल रही थी। लेकिन आज नरेंद्र मोदी सरकार को किसी अन्य दल के समर्थन की दरकार नहीं है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वाजपेयी और मोदी दोनों संघ के पूर्णकालिक प्रचारक रह चुके हैं। उनकी कार्यशैली भिन्न हो सकती है, लेकिन मूलभूत मान्यताएं नहीं। जो मजबूरी वाजपेयी के सामने थी, वही मोदी के सामने भी है- सरकार चलाने और जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने की। अगर इस काम में कोताही हुई तो जो जनता किसी नेता को सिर पर बिठाती है, वही उसे उठा कर जमीन पर भी फेंक देती है। लेकिन संघ, विहिप और बजरंग दल या हिंदू जागरण मंच जैसे संगठनों के सामने कोई मजबूरी नहीं है। उनके सामने केवल उनके वैचारिक लक्ष्य हैं, जिन्हें वे सत्ता का सहारा लेकर पूरा करना चाहते हैं।
नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने सिर्फ साढ़े सात महीने हुए हैं। लेकिन इस छोटी-सी अवधि के भीतर उनका जादू उतरने लगा है। लोग सवाल करने लगे हैं कि उनकी कथनी और करनी में इतना अंतर क्यों है? जिन मुद्दों पर वे कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार का विरोध करते थे, अब उन पर उनकी सरकार वही रवैया क्यों अपना रही है? अरविंद केजरीवाल के उनचास दिन के शासन में दिल्लीवासियों ने कम से कम एक बात महसूस की थी कि सरकारी दफ्तरों में रिश्वत लेने की घटनाएं काफी कम हुई थीं। लेकिन क्या मोदी सरकार के तथाकथित सुशासन में जनता को किसी भी तरह का फर्क महसूस हुआ है? महंगाई केवल सरकारी आंकड़ों में कम हुई है, वरना सब्जी-फल या खाने-पीने की चीजों की कीमतों में कोई खास गिरावट नहीं आई है।
जिन्हें इस सरकार से बहुत आशाएं थीं, वे चिंतित हैं, क्योंकि सभी जानते हैं कि अगर सांप्रदायिक तनाव बढ़ेगा और सामाजिक शांति भंग होगी, तो उसका सबसे पहले और सबसे बुरा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। मोदी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान जिस आर्थिक चमत्कार की उम्मीद जगाई है, वह इस तनावग्रस्त माहौल में पूरी नहीं हो सकती। लोग इसलिए भी मायूस हैं, क्योंकि रेडियो पर नियमित रूप से ‘मन की बात’ कहने वाले मोदी धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद में मौन रहे। संसद के बाहर भी उन्होंने इस विषय पर कुछ नहीं कहा। क्या यह इस बात का संकेत है कि वे संघ द्वारा खींची गई रेखा को लांघने में असमर्थ या अनिच्छुक हैं? हकीकत कुछ भी हो, उनके समर्थक भी इससे निराश हुए हैं।
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