‘प्रोमेनाड’ पर भारत छाया रहा। तेलंगाना, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने अपनी दुकानें खोली थीं निवेशकों को आकर्षित करने के लिए और अलग से भारत का ‘इंडिया लाउंज’ था, मोदीजी के एक पोस्टर के पास। इसके अलावा थीं इन्फोसिस, विप्रो और टीसीएस जैसी भारतीय साफ्टवेयर कंपनियों की दुकानें। भारत सरकार ने आला अधिकारियों की एक पूरी सेना भेजी थी इस बार, तीन वरिष्ठ मंत्रियों के नेतृत्व में।
मंत्रियों और उद्योगपतियों के अलावा आए हुए थे इतने भारतीय पत्रकार, कि इतने मैंने कभी पहले नहीं देखे हैं दावोस में। तो अगर किसी को लगा होगा कि इस साल दावोस में मुख्य विषय भारत रहा होगा, उनका अनुमान गलत न होता, लेकिन अफसोस कि यथार्थ कुछ और ही था। सम्मेलन कक्ष के अंदर भारत का जिक्र इतना कम था कि न होने के बराबर।
सम्मेलन कक्ष के अंदर छाया रहा यूक्रेन पर ब्लादिमीर पुतिन का क्रूर, नाजायज युद्ध और इस युद्ध के कारण पैदा हुई विश्व के लिए गंभीर समस्याएं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के शब्दों में, ‘मैंने अपने जीवन में कभी इतना बुरा वक्त नहीं देखा है आर्थिक और राजनीतिक तौर पर।’
इस युद्ध के कारण विश्व की अर्थव्यवस्था इतनी प्रभावित हुई है कि हो सकता है कि छोटे, गरीब देशों में भुखमरी बढ़ जाएगी, क्योंकि रूस ने, यूक्रेन से जो अनाज निर्यात होता था अफ्रीका और अरब देशों में, उसको तकरीबन बंद कर दिया है। इसका गंभीर असर अभी से दिखने लगा है और बढ़ता जाएगा आने वाले महीनों में, इसलिए कि युद्ध समाप्त होने के अभी कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।
युद्ध के कारण पैदा हुई इन आर्थिक समस्याओं पर खूब चर्चा हुई इस साल दावोस में और उससे भी ज्यादा चर्चाएं हुर्इं इस युद्ध से पैदा हुई राजनीतिक समस्याओं पर। सबसे बड़ा डर इस बात को लेकर है कि रूस के तानाशाह ने अब युद्धभूमि पर जीत हासिल करने का फैसला छोड़ दिया है और अब रणनीति है पुतिन की यूक्रेन के शहरों और ऊर्जा व्यवस्था को बर्बाद करने की।
सो, रोज हमले हो रहे हैं यूक्रेन के शहरों पर, जिसमें आम आदमी मारे जा रहे हैं, जिनमें बच्चे और बूढ़े भी हैं। शहरों के रिहाइशी इलाके ऐसे तबाह हो रहे हैं कि लोग सर्दियों के इस मौसम में अपने घरों में बिना बिजली के गुजारा कर रहे हैं।
एक लोकतांत्रिक देश पर इस नाजायज युद्ध को देख कर कहना गलत न होगा कि इस दौर के हिटलर हैं ब्लादिमीर पुतिन। इस युद्ध में एक तरफ हैं दुनिया के लोकतांत्रिक देश और दूसरी तरफ हैं दुनिया के तानाशाह देश। सो, पुतिन के साथ खड़े हैं ईरान और चीन।
ईरान तो युद्ध में मदद कर रहा है रूस की और चीन खुल कर इशारा कर चुका है कि वह रूस के साथ है। यूक्रेन के साथ खड़े हैं दुनिया के तकरीबन सारे लोकतांत्रिक देश, लेकिन भारत अभी तक न इस तरफ है और न उस तरफ। सो, भारत का नाम तक नहीं आया इस साल की अहम चर्चाओं में।
राजनीतिक तौर पर सबसे बड़ी वैश्विक समस्या यह है कि पुतिन अगर इस युद्ध में जीत जाते हैं, तो हौसले बढ़ेंगे हमारे सबसे बड़े दुश्मन चीन के, जो सालों से कोशिश कर रहा है ताइवान को हड़पने की। हमारी सीमाओं पर भी चीन का रुख आक्रामक रहा है, बावजूद इसके कि मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुत कोशिश की है चीन से दोस्ती करने की। ये सारी कोशिशें नाकाम रही हैं, क्योंकि चीन में भी राज करता है एक तानाशाह, जिसके साथ दोस्ती तकरीबन असंभव है।
हमारे भारत महान में अक्सर आम लोग विदेशी समस्याओं में कोई खास रुचि नहीं लेते हैं, लेकिन हैरत की बात है कि यूक्रेन को लेकर हमारे देश के बुद्धिजीवी भी कहते फिरते हैं कि भारत के राष्ट्रहित में नहीं है यूक्रेन का साथ देना। विनम्रता से अर्ज करती हूं कि यह बिल्कुल गलत है। माना कि युद्ध शुरू होने के बाद रूस से हमें मिला है सस्ता कच्चा तेल, लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि हम कैसे देख नहीं पाए हैं कि अब रूस बन गया है चीन का कनिष्ठ साझीदार। चीन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है और पाकिस्तान का सबसे बड़ा दोस्त। तो, क्या वास्तव में हमारे शासक अपने देश के हित की सोच रहे हैं?
हैरान मैं इस बात को भी लेकर हूं कि हम देख नहीं पाए हैं कि अगर पुतिन सफल हो जाते हैं यूक्रेन को हड़पने या उसे तबाह करने में, तो कल चीन ऐसा कर सकता है हमारे साथ लद्दाख में, अरुणाचल में और उस समय हमारा साथ कौन देगा? तो अगर भारत गायब रहा दावोस में सम्मेलन के मंच पर, तो इसलिए कि हम न इधर के रहे हैं और न उधर के। हम सम्मेलन के बाद जितना भी छाए रहे इस साल, दावोस में उतना ही गायब रहे सम्मेलन कक्ष के भीतर।
एक और बात कहना चाहती हूं मैं इस लेख को समाप्त करने से पहले, कि निवेशक अपने आप चले जाते हैं उन देशों में, जहां उन्हें मुनाफा दिखता है। दावोस आने की कोई जरूरत नहीं होती निवेशक खोजने के लिए। वह भी ऐसे दौर में, जब विश्व की अर्थव्यवस्था पर मंदी छाई हुई है।