वित्तमंत्री ने जब पिछले सप्ताह इशारा किया कि भारत सरकार सुनियोजित तरीके से निजी निवेश लाना चाहती है सरकारी योजनाओं में, तो फौरन राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर हल्ला मचाना शुरू कर दिया। ट्वीट करके कहा कि नरेंद्र मोदी की आर्थिक नीतियों ने देश को इतना कंगाल कर दिया है कि अब ‘ताज के गहनों’ को बेचने की नौबत आ गई है। अपने परम पूज्य युवराज के इस ट्वीट को देख कर वही बात कहने लगे उनके अंधभक्त। जी हां, इस किस्म के भक्त सिर्फ मोदी के नहीं हैं। हरिशंकर परसाई ने कहा था कि ‘अंधभक्त होने के लिए प्रचंड मूर्ख होना अनिवार्य शर्त है’। प्रचंड मूर्खों की कोई कमी नहीं है अपने इस भारत महान में, सो हाय-तौबा मचने लगी है राहुल गांधी के ट्वीट के बाद। राहुल के भक्तों ने सोच-समझ कर एक आंदोलन छेड़ दिया है सोशल मीडिया पर कि सत्तर वर्षों में कांग्रेस ने देश के ताज में जो नगीने जड़े थे, उनको बेचा जा रहा है।

झूठ है यह और इस झूठ को आसानी से साबित किया जा सकता है, अगर प्रधानमंत्री तय करते हैं ऐसा करने का। लेकिन अपने देश में आर्थिक सुधार फूंक-फूंक कर, डर-डर कर करने पर मजबूर हैं, इसलिए कि दशकों से आम लोगों को बताया गया है कि अगर उनके जीवन में समृद्धि की छोटी-सी किरण भी दिखने लगी है अभी तो सिर्फ इसलिए कि आजादी के बाद हमने समाजवादी आर्थिक नीतियां अपनाई हैं। जनता के दिमाग में कूट-कूट कर भर दिया गया है कि सरकारी कारखाने और बड़ी-बड़ी सरकारी कंपनियां बनी हैं मुनाफा कमाने के मकसद से नहीं, बल्कि इस नेक मकसद से कि हमारे गरीब लोगों के लिए रोजगार का अहम साधन बन सकें।

सो, बावजूद इसके कि इन सरकारी उद्योगों में सिर्फ पांच हैं, जिनके होने से तमाम सरकारी उद्योग क्षेत्रों का चालीस फीसद मुनाफा आता है केंद्र और राज्य सरकारों को। बावजूद इसके कि मुनाफे में चलते हैं केवल 184 उद्योग और रोजगार मिलता है केवल दस लाख के करीब लोगों को। अरबों रुपए खर्च किए गए हैं इन सरकारी उद्योगों को जीवित रखने के लिए। अगर यही पैसा खर्च किया जाता स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, बिजली, पानी पर तो भारत की आम जनता को कहीं ज्यादा लाभ मिल गया होता। मिसाल के तौर पर अगर गांवों में हमने इंटरनेट की तारें बड़े पैमाने पर बिछा दी होती अभी तक, तो आज इस शर्मनाक सच का सामना नहीं करना पड़ता कि करोड़ों ग्रामीण बच्चे पिछले अठारह महीनों में पढ़ना-लिखना सीख नहीं पाए हैं, क्योंकि महामारी के कारण ग्रामीण स्कूल सब बंद रहे हैं।

अब सुनिए, कि सरकारी उद्योगों को जीवित क्यों रखना चाहते हैं हमारे राजनेता और आला अधिकारी। सुनिए आइएल एंड एफएस की कहानी। शायद याद होगा आपको कि इस कंपनी ने 2018 में घोषित किया था कि करीब लाख करोड़ का घाटा हुआ है उसको। भारत सरकार इस अर्ध-सरकारी कंपनी में सबसे बड़ी निवेशक थी, सो फौरन हरकत में आई और कंपनी के बड़े अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन जो इस कंपनी का सबसे बड़ा अधिकारी था, वह चुपके से लंदन भाग गया इस्तीफा देने के बाद अपनी सेहत का हवाला देकर। जी हां, बिल्कुल वैसे जैसे विजय माल्या और नीरव मोदी खिसके थे। उनका तो नाम सबसे सुना है, लेकिन रवि पार्थसारथी का बहुत थोड़े लोगों ने सुना होगा, बावजूद इसके कि इस साल जून के महीने में उसको गिरफ्तार करके चेन्नई की किसी जेल में डाल दिया गया है।

पार्थसारथी साहब की पहुंच इतनी लंबी थी कि उनको पकड़ने की हिम्मत किसी की नहीं थी, सो आराम से देश वापस लौट कर मुंबई में रह रहे थे। जब भी इनको कोई गिरफ्तार करने आता, पार्थसारथी अपने किसी मेहरबान को दिल्ली में फोन लगाते और गिरफ्तारी रोक दी जाती उनकी। अब सुनिए, कि पार्थसारथी साहब की पहुंच क्यों इतनी लंबी थी। इन्होंने घूस देने का बहुत ही अद्भुत तरीका अपनाया था दशकों से। जब भी किसी आला अधिकारी के बेटे या बेटी को नौकरी की जरूरत होती थी, तो पार्थसारथी की मेहरबानी से उनको इस अर्ध-सरकारी कंपनी में नौकरी मिल जाती थी। किसी आला अधिकारी या राजनेता के बच्चे की पढ़ाई अगर किसी विदेशी विश्वविद्याल में करने की नौबत आती थी तो वहां भी पार्थसारथी मदद कर देते थे। और जब बड़े राजनेताओं या आला अधिकारियों की बीवियां विदेशों में छुट्टियां मनाना चाहती थीं तो किसी सम्मेलन का हवाला देकर जाया करती थीं आइएल एंड एफएस के पैसों से।

नाम लेना नहीं चाहती हूं मैं, लेकिन पार्थसारथी ने अपनी मुट्ठी में वित्तमंत्री तक को कैद कर रखा था और कुछ ऐसे लोग, जो राहुल गांधी के करीबी सलाहकार थे। कहने को तो पार्थसारथी किसी को घूस नहीं दे रहे थे, लेकिन घूस देने के तरीके अनेक हैं, इस बात को वे अच्छी तरह समझ गए थे। आज अगर जेल में सड़ रहे हैं पार्थसारथी, तो केवल इसलिए कि तमिलनाडु सरकार के आर्थिक अपराध विभाग ने हिम्मत दिखाई है और उनको बड़ी चतुराई से मुंबई में पकड़ कर ले गए चेन्नई। वहां उनका नाम दो सौ करोड़ रुपए वाले एक घोटाले से जुड़ा हुआ है। अभी तक उनको जमानत नहीं मिली है।

इस तरह के किस्से तकरीबन हर सरकारी उद्योग में मिल सकते हैं, लेकिन सवाल यह है कि ये घोटाले छिपे क्यों रहते हैं? क्या इसलिए कि इन शक्तिशाली, धनी कंपनियों के पास पत्रकारों को चुप रखने की ताकत है? या इसलिए शायद कि सरकारी अधिकारियों के साथ पंगा लेना खतरे से खाली नहीं है? कारण जो भी हो, यथार्थ यह है कि जिन लोगों को वहम है कि बड़े-बड़े घोटाले सिर्फ निजी उद्योग क्षेत्र में होते हैं उनको इस वहम को दूर करना चाहिए। यह सरासर झूठ है।