अब जब आलोचना करना चाहते हैं तो अक्सर इतना ही कहते हैं कि असली परीक्षा इस यात्रा की तब होगी जब राहुल गांधी को देखने जो लोग एकत्रित होते दिखे हैं यात्रा की शुरुआत से, क्या ये लोग उनको वोट भी देंगे। कहने का मतलब यह है कि अब राहुल गांधी उनके लिए सिर्फ ‘पप्पू’ नहीं रहे। अब उनकी नजर में वे राजनेता बन गए हैं और 2024 में नरेंद्र मोदी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी बन सकते हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले आठ सालों में खूब पिटने के बावजूद कांग्रेस पार्टी ही वह दल है, जो भारतीय जनता पार्टी को चुनौती दे सकती है अगले लोकसभा चुनाव में। प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में विपक्षी राजनेता और भी हैं। फेहरिस्त लंबी है, लेकिन कुछ नाम जो सबसे ऊपर हैं, वे हैं नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, शरद पवार, अखिलेश यादव, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और ओड़िशा के नवीन पटनायक। बड़े राजनेता हैं ये सब, लेकिन इनमें से सब ऐसे हैं, जिनके राजनीतिक दल उनके बिना चल ही नहीं सकते हैं। परिवारवाद की राजनीतिक बीमारी इन सबमें है और इससे कमजोर हैं इन राजनीतिक दलों की जड़ें।
कांग्रेस ही एक ऐसा राजनीतिक दल है विपक्ष में, जिसमें परिवारवाद के रोग के बावजूद पार्टी के राजनीतिक ढांचे को कायम रखा गया है। सबूत है अगर तो यही कि इस यात्रा को इतनी दूर तक लाना मुश्किल होता, अगर कांग्रेस की जमीनी संस्था थोड़ी-बहुत जीवित न होती। इतने चुनाव हारने के बाद भी अनुमान लगाते हैं चुनावी पंडित कि कांग्रेस का ‘वोट शेयर’ बीस फीसद से कम नहीं है। किसी दूसरे विपक्षी दल के पास इतनी ताकत नहीं है, सो ठीक कहते हैं वे लोग जो मानते हैं कि विपक्षी एकता कांग्रेस पार्टी के बिना कभी बन ही नहीं सकती है। अभी तक कांग्रेस की समस्या रही है नेतृत्व को लेकर।
सोनिया गांधी की सेहत कमजोर रही है। प्रियंका गांधी अभी तक साबित नहीं कर पाई हैं कि उनमें राजनीतिक समझ है या नहीं। ऊपर से श्रीमतीजी के जीवन साथी राबर्ट वाड्रा उनकी छवि को खराब करते हैं जब भी वे दिखते हैं उनके आसपास मंडराते हुए। रही बात इस परिवार के असली वारिस की, तो राहुल गांधी ने इतनी विदेशी छुट्टियां मनाई हैं पिछले आठ वर्षों में कि उनको गंभीरता से लेना मुश्किल था, खासकर इसलिए कि वे कई बार गायब हुआ करते हैं चुनाव हारने के फौरन बाद।
भारत जोड़ो यात्रा जब शुरू हुई थी, तो मोदी के भक्तों ने खूब मजाक उड़ाया था कि राहुल गांधी बीच में निकल कर भाग जाएंगे किसी बाहरी देश में आराम करने। मगर ऐसा करने के बजाय रोज दिखे हैं राहुल गांधी यात्रा का नेतृत्व करते हुए और एक नया आत्मविश्वास दिखाते हुए। राजनीतिक संदेश उनका भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक संदेश से बिल्कुल अलग है। दिल्ली में बैठे देश के आला शासक मानें या न मानें, लेकिन यह बात सच है कि देश में दरारें पैदा हुई हैं सिर्फ इसलिए कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए जबर्दस्त कोशिश की है।
पिछले सप्ताह बजरंग दल के सदस्यों ने सिनेमा घरों में जाकर शाहरुख खान की फिल्म ‘पठान’ के पोस्टर फाड़े। शाहरुख खान अगर हिंदू अभिनेता होते तो क्या इस तरह हमेशा निशाने पर रहते हिंदुत्ववादियों के?
उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेश में जहां मुसलमानों की आबादी काफी है उनके रोजगार के साधन समाप्त किए गए हैं। गोरक्षकों ने योगी आदित्यनाथ के आने के बाद ऐसा आतंक फैलाया है कि न पशु पालन संभव है अब और न मांस का व्यापार। इन दोनों क्षेत्रों में अक्सर मुसलमान काम करते हैं। ऊपर से जब भी दंगा-फसाद हुआ है किसी भाजपा शासित प्रदेश में तो हिंसा का सारा दोष मुसलिम समाज पर थोपा गया है और इस बहाने बुलडोजर न्याय की प्रक्रिया शुरू की गई है।
सो, जब राहुल गांधी कहते हैं कि देश में मोहब्बत की जरूरत है, आपसी भाईचारे की जरूरत है, नफरत की दरारें कम करने के लिए, तो उनकी बातें अच्छी लगती हैं। समस्या यह है कि राहुल गांधी का राजनीतिक संदेश जितना ठीक है, उनका आर्थिक संदेश उतना ही गलत है। जब भी बोलते हैं आर्थिक मुद्दों पर राहुल, ऐसे पेश आते हैं जैसे कि किसी अति-दकियानूसी कम्युनिस्ट पार्टी से उन्होंने अपने आर्थिक विचार हासिल किए हैं।
पिछले आठ सालों से राहुल अडानी-अंबानी को गालियां देते आए हैं, यहां तक कि अब भी कहते फिरते हैं कि नोटबंदी इन दोनों उद्योगपतियों की जेब में जनता का पैसा डालने के लिए की गई थी। बचकानी बातें हैं ये और इसका खमियाजा कांग्रेस पार्टी को जरूर भुगतना पड़ेगा। लेकिन ऐसा कहने के बाद यह भी कहना जरूरी है कि इस भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी एक असली राजनेता बन कर निकले हैं। उनको गंभीरता से ले रहे हैं राजनीतिक पंडित शायद पहली बार और गंभीरता से ले रहे हैं भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता। आगे आगे देखते हैं होता है क्या, अभी पिक्चर बाकी है।