पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने मानवाधिकारों पर एक प्रवचन सुनाया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अट्ठाईसवें स्थापना दिवस पर दिया था यह प्रवचन। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी नजरों में मानवाधिकारों के बहाने देश को बदनाम किया जाता है। आगे यह भी कहा कि मानवाधिकारों का महत्त्व तभी मायने रखता है, जब जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी हो जाएं। उनकी इस बात को सुन कर कई राजनीतिक पंडितों को चिंता होने लगी है कि क्या अब राजनेता तय करेंगे कि मानवाधिकारों का हनन कब होता है?
निजी तौर पर मुझे चिंता ज्यादा होने लगी, जब प्रधानमंत्री के भाषण के कुछ दिन बाद एनसीबी (नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो) के किसी प्रवक्ता ने अदालत में कहा कि ड्रग्स के मामलों में माना जाता है कि अभियुक्त तब तक दोषी होते हैं, जब तक वे अपने आप को निर्दोष नहीं साबित कर देते। तो क्या आर्यन खान को जेल में तब तक रखा जाएगा, जब तक वे अपने आपको निर्दोष नहीं साबित कर पाते हैं? क्या जमानत मिलना अब अधिकार नहीं रहा?
सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत को अधिकार माना है और स्पष्ट किया है कि जमानत सिर्फ उनको नहीं मिलनी चाहिए, जो गायब हो सकते हैं या जो गवाहों पर दबाव डाल सकते हैं। आर्यन खान के मामले में मुख्य गवाह हैं भारतीय जनता पार्टी के एक कार्यकर्ता, जिन पर जाहिर है वे दबाव नहीं डाल सकेंगे। रही गायब होने की बात, तो शाहरुख खान के बेटे का गायब होना मुश्किल नहीं, नामुमकिन है। तो जमानत क्यों नहीं मिली? इस नौजवान ने दशहरा मुंबई की आर्थर रोड जेल में बिताया, सिर्फ इसलिए कि एनसीबी ने जमानत का निराधार विरोध किया।
मीडिया में चल रहे इस मुकदमे में नया आरोप है कि अंतरराष्ट्रीय ड्रग्स तस्करों से आर्यन का वास्ता है, तो क्या महीनों रहना पड़ेगा उनको जेल में, क्योंकि इतना गंभीर आरोप लग चुका है? मुमकिन है कि ऐसा होगा। मुंबई की फिल्मी दुनिया में अफवाहें गरम हैं कि शाहरुख खान को दंडित करने के लिए ही उनके बेटे को फंसाया गया है। दंडित इसलिए कि शाहरुख उन मुट्ठी भर लोगों में से हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी के सामने फर्शी सलाम नहीं किया है। प्रधानमंत्री के आलोचकों को दंडित करना दस्तूर बन गया है मोदी के राज में। जिन पत्रकारों ने उनकी कुछ ज्यादा आलोचना की है, उनके दफ्तरों पर छाप पड़े हैं आयकर वालों के और प्रधानमंत्री मिलते हैं सिर्फ दोस्ताना पत्रकारों से।
आलोचकों के साथ मोदी के राज में वैसा ही व्यवहार होता है, जो अपराधियों के साथ होना चाहिए। सो, दिल्ली दंगों के बाद कई छात्र जेल में बंद रहे हैं एक साल से ज्यादा, जिनको अभी तक आरोप-पत्र तक नहीं दिया गया है। इनमें से कुछ छात्रों को रिहा करते हुए जब दिल्ली की अदालत के एक साहसी जज ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए, तो उनका तबादला कर दिया गया।
सवाल यह है कि जब किसी को महीनों जेल में रखा जाता है बिना उस पर मुकदमा चलाए, तो क्या यह मानवाधिकारों का घोर हनन नहीं माना जा सकता है? प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि लोगों को बिजली, पानी, सड़क, रोटी, कपड़ा, मकान की ज्यादा जरूरत है, लेकिन शायद भूल रहे हैं मोदी कि आपातकाल के बाद मतदाताओं ने इंदिरा गांधी और उनके बेटे को सिर्फ इसलिए हराया था, क्योंकि उस दौरान लोगों के बुनियादी अधिकार छीन लिए गए थे।
आर्यन खान के पिता बालीवुड के बहुत बड़े सितारे हैं। बेटे के लिए अच्छे से अच्छे वकील रखने की क्षमता है उनके पास। इतनी अच्छी किस्मत उन लाखों नौजवानों की नहीं है, जिनको सालों हमारी जेलों में कैद रखा जाता है सिर्फ इसलिए कि वकीलों का पैसा नहीं दे सकते हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि मोदी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं, यूएपीए(गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के तहत गिरफ्तारियां कई गुना बढ़ गई हैं।
संसद में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए गृह राज्यमंत्री कृष्ण रेड्डी ने स्वीकार किया कि 2019 में ही गिरफ्तारियां बहत्तर फीसद बढ़ गई थीं। यही चीजें हैं, जिनसे बदनाम हुए हैं मोदी और वह भी ऐसे समय, जब अमेरिका के राष्ट्रपति मानवाधिकारों के उल्लंघन पर खास नजर रखे हुए हैं। मानवाधिकार सुरक्षित रहते हैं सिर्फ उन देशों में, जहां लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं।
भारत में हुआ करती थीं बहुत मजबूत लोकतंत्र की जड़ें, लेकिन पिछले कुछ सालों में कमजोर हुई हैं, इसलिए कि मोदी के राज में मानवाधिकारों का जिक्र करना भी खतरे से खाली नहीं रहा है। मोदी के प्रवचन से स्पष्ट हुआ है कि वे खुद तय करना चाहते हैं कि ये अधिकार किसको देना चाहते हैं और किसको इनकी जरूरत नहीं है।
सो, किसानों के बारे में कई बार कह चुके हैं मोदी के मंत्री, और मोदी खुद, कि ये किसान नहीं आतंकवादी हैं। जिन मुसलमानों ने नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया था उनको भी आतंकवादी और ‘आंदोलनजीवी’ कहा गया है। यानी जो लोग मोदी सरकार की नीतियों से सहमत नहीं हैं या उनकी आलोचना करने की हिम्मत दिखाते हैं वे सब देश के दुश्मन हैं।
रही बात उस संस्था की, जो राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए बनाई गई है, तो अब उसके मुखिया हैं एक ऐसे न्यायाधीश, जिन्होंने प्रधानमंत्री के प्रवचन के पहले उनकी इतनी प्रशंसा की, जिससे साबित हुआ कि उनको इस पद पर क्यों रखा गया है। ऐसे वातावरण में लोगों को मानवाधिकारों की चिंता नहीं होगी, तो कब होगी? ऐसे देश में जहां ज्यादातर लोग पहुंच नहीं पाते हैं अदालतों तक, मानवाधिकारों की चिंता होना आवश्यक है। ये ऐसे अधिकार हैं, जिनकी अहमियत हम आप तय करने का हक रखते हैं, राजनेता नहीं।