परेड ने परेड को मारा। परेड ने परेड करने वालों को भी मारा। वो एनजीओ चेहरा, जो मसीहा बन कह रहा था कि इस बार की परेड यादगार होगी, तो सचमुच यादगार हुई। झूठ बोल-बोल कर एक सच बनाया गया, फिर सच को पीट-पीट कर झूठ बनाया गया।
ट्रैक्टर परेड ने छब्बीस जनवरी की परेड को जम कर रौंदा। सारे नियम-कानून तोड़े गए। ट्रैक्टर परेड बारह बजे निकलनी थी। सात बजे निकाली। बैरीकेड तोड़े, रूट बदले। आईटीओ रौंदा। पुलिस को ठोंका।
आईटीओ पर बने ये तीन सीन अमर होते दिखे : पहला- एक निहंग एक लंबी बरछी एक बाइक पर बैठे सिपाही पर मारता है। सिपाही बाल-बाल बचता भागता है। निहंग उसके पीछे भागता है।
दूसरा- कुछ युवा कई ट्रैक्टरों को टैंकों की तरह पुलिस और पत्रकारों पर दौड़ा देते हैं। पुलिस, पत्रकार चपेट में आने से किसी तरह बचते दिखते हैं। पुलिस एकदम रक्षात्मक है।
तीसरा- एक ट्रैक्टर तेज रफ्तार से बैरीकेड को टक्कर मारता है और पलट जाता है। ड्राइवर गिरता है और सिर पर चोट लगने से मर जाता है। पुलिस बचाने पहुंचती है, तो भगा दी जाती है। वे कहते हैं कि उसे पुलिस ने गोली मारी है। एक नामी एंकर रिपोर्ट करने पहुंचता है, भीड़ उसे दलाल कह कर हंकाल देती है। भीड़ से डरा हुआ वह भीड़ की फेक न्यूज को सही मान कर ट्वीट कर देता है!
एक चैनल इसे ‘ट्रैक्टर टेरर’ कहता है। ट्रैक्टरों को हथियार की तरह चलाया जाता है। हाथ में तिरंगा, ट्रैक्टर पर तिरंगा, लेकिन मन में एक लफंगा!
दोपहर बाद तक आईटीओ फतह करने के बाद ‘ट्रैक्टर सेना’ लालकिले की प्राचीर पर चढ़ाई कर देती है और देखते-देखते हजारों की भीड़ में से कुछ युवा तिरंगे के पोल पर पहले एक धार्मिक झंडा, फिर किसान झंडा लहरा देते हैं। खास धार्मिक नारे लगाते हैं! एक तिरंगा देता है, तो उसे नीचे फेंंक दिया जाता है!
जब पुलिस उनको बरजने आती है, तो उस पर तलवारों से हमला बोल दिया जाता है। दर्जनों पुलिसकर्मी लालकिले की बीस-पचीस फुट गहरी खाई में कूद कर अपनी जान बचाते हैं। ट्रैक्टर परेड की कृपा से लगभग चार सौ सिपाही घायल होते हैं।
लालकिले की प्राचीर के अराजक दृश्यों की लाइव कवरेज टीवी दर्शक वर्ग को हिला देती है। एंकर और रिपोर्टर सब इसे ‘राष्ट्र विरोधी’ और ‘अक्षम्य कार्रवाई’ बताते हैं और देखते-देखते किसान आंदोलन ‘हमदर्दी’ खो देता है!
लेकिन फिर वही वही होने लगता है। सभी तिरंगे की अवमानना की निंदा करते दिखते हैं और इस बात पर लड़ने लगते हैं कि जिसने यह किया, वह किसका आदमी था? सत्ता के प्रवक्ता उसे खालिस्तानी कहते, जबकि किसान प्रवक्ता उसे भाजपा का बताते।
प्रेस कांफ्रेंस में एक गरम लाइन वाला किसान नेता ‘रिवर्स फॉसिज्म’ की लाइन देता है कि जब यह सब हो रहा था, तो पुलिस ने गोली क्यों नहीं चलाई?
इसकी ‘सब-टेक्स्ट’ यह कि पुलिस गोली चलाती। सौ दो सौ मारे जाते तो हमारी मनचीती होती। हमें शहादत मिलती। पहले से ही ‘फासिस्ट’ कही जाती सरकार ‘डबल फासिस्ट’ कहलाने लगती। दुनिया में थू थू होती। हम जीत जाते!
इसे कहते हैं ‘फासिज्म की जनेच्छा’! यही है ‘रिवर्स फासिज्म’! ‘पलट आ फासिज्म’! सरकार ने मारा तो थू थू और न मारा तो थू थू्! दोहरी मार!
तिरंगे की अवमानना से हमदर्दी छीजी, तो वृहस्पतिवार चैनल तंबू उखड़ने की खबरें दिखाने लगे। दो किसान यूनियनों ने चैनलों को आंदोलन से हटने की खबर दी। फिर दो और संगठनों के हटने की भी खबर दी!
गाजीपुर बार्डर पर भी तंबू कम दिखे, लेकिन शाम तक टिकैत सबसे बड़े खबर बनाने वाले बने। सड़क खाली करने के अल्टमेटम के बाद एक-डेढ घंटे के भीतर उनके तीन अवतार दिखे। पहले अवतार में बोले कि वे चले जाएंगे, लेकिन जाने से पहले ‘अच्छी-सी बाइट’ देकर जाएंगे, फिर एक स्थानीय भाजपा नेता के लोगों की नारेबाजी के कारण या किसी और कारण से टिकैत ने लाइन बदल दी। वे मंच पर ही रोने लगे और भरे गले से बोलते रहे कि किसानों के लिए मैं मर जाऊंगा यहीं फांसी लगा लूंगा, लेकिन यहां से नहीं जाऊंगा…
टिकैत के आंसुओं ने पांसा पलट दिया। आंसुओं ने टिकैत के प्रति हमदर्दी पैदा कर दी। वे सत्ता के ‘विक्टिम’ की तरह दिखने लगे। कुछ पहले तक की खबरों का ‘खलनायक’ फिर से ‘नायक’ हो गया। हमदर्दी का तबादला हो गया!
अल्टीमेटम देने वाले पुलिस अफसर गायब दिखे। टिकैत के गांव से और किसानों के कूच करने की खबरें आने लगीं। बार्डर खाली नहीं हुआ! टिकैत और भी बड़े हीरो हो गए! शुक्र की सुबह विपक्ष के नेता उनको विजिट करने लगे।
उधर विपक्ष के अठारह दल, बजट सत्र में राष्ट्रपति के भाषण का बायकाट करते दिखे!