ज्योति सिडाना
आदिम समाज में या कहें कि पूर्व वैज्ञानिक युग में मनुष्य प्रत्येक घटना के लिए धर्म और जादू को जिम्मेदार मानता था। जैसे बरसात का होना या न होना इंद्र देव की प्रसन्नता और नाराजगी पर निर्भर करता है, किसी महामारी के लिए दैवीय प्रकोप को जिम्मेदार मानना, बीमार होने पर झाड़-फूंक करवाना आदि-आदि।
परंतु वैज्ञानिक युग में प्रवेश करने के बाद परिवेश में घटने वाली हर घटना के पीछे के कारणों और परिणामों में संबंधों से मनुष्य परिचित होता गया। तब उसे पता चला कि बरसात कैसे होती है या बीमारी-महामारी के पीछे के कारण क्या हैं।
इस तरह अंधविश्वास के युग से विज्ञान के युग तक की यात्रा अनुकरण से तार्किकता की ओर बदलाव की कहानी को बताती है।
अंधविश्वास जहां एक तरफ पारंपरिकता और रूढ़िवादिता को व्यक्त करता है, वहीं विज्ञान आधुनिकता का परिचायक है। आज विज्ञान हर जगह प्रवेश पा चुका है। घर में, रसोई में, प्रत्येक कार्यालय में, खेती में यहां तक संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया में भी विज्ञान का वर्चस्व दिखाई दे देता है।
यानी कहा जा सकता है कि जीवन के प्रत्येक पक्ष को विज्ञान और प्रौद्योगिकी निर्देशित व नियंत्रित करने लगे हैं। ऐसे समय में अगर आए दिन अंधविश्वास की घटनाएं देखने और सुनने को मिलें, तो इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि आज भी हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सभी के जीवन मूल्य का हिस्सा नहीं बना पाए।
हाल में राजस्थान के राजसमंद जिले के खमनोर क्षेत्र में एक घटना सामने आई। सात वर्षीय बच्चे को दो साल पहले आंख में फुंसी हुई थी। परिवार वाले दो साल तक मेडिकल स्टोर से दवा लाकर देते रहे। दर्द बढ़ने पर गांव के एक भोपे के पास ले गए। करीब चार महीने तक वह भोपा तंत्र-मंत्र से इलाज करता रहा।
बच्चे की तकलीफ कम होने की बजाय इतनी बढ़ गई कि उसकी आंख तीन इंच तक बाहर निकल आई। अस्पताल ले गए तो पता चला आंख का कैंसर है। डाक्टरों के मुताबिक बच्चे की आंख निकालनी पड़ेगी।
सवाल इस बात का है कि यह कैसी आस्था है जिसकी वजह से एक बच्चे को केवल अंधविश्वास और उपेक्षा के कारण अपनी आंख खोने को मजबूर होना पड़ा। एक अन्य घटना में जालौर जिले के भीनमाल शहर में एक दंपति से तंत्र-मंत्र के नाम पर एक तांत्रिक ने लाखों रुपए और गहने हड़प लिए।
कारण इस दंपति के दो पुत्रिया हैं और पुत्र प्राप्ति की लालसा में वह इस तंत्र विद्या का शिकार बने। उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जनपद के गणेशपुर गांव में एक नौ वर्षीय बच्चे की बुखार से मौत होने के बाद परिजनों ने उसे कब्रिस्तान में दफन कर दिया था। इसी बीच गांव की एक महिला बच्चे के घर पहुंची और परिजनों को कहा कि आपके बच्चे को किसी ने तंत्र-मंत्र से मार दिया और वह उसे फिर जिंदा कर सकती है।
ऐसी घटनाएं आम हैं और गांवों से लेकर शहरों तक में रोजाना देखने को मिलती हैं। इन घटनाओं को देख या सुन कर क्या लगता है कि हम किसी आधुनिक वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं? ऐसी घटनाओं पर कुछ बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया होती है कि ये सब अनपढ़-अशिक्षित लोग ही करते हैं।
परंतु यह सच नहीं है। पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं पर नजर डालें तो दिल्ली का बुराड़ी कांड, आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में शिक्षक दंपति द्वारा अंधविश्वास के कारण अपनी दो युवा बेटियों की हत्या कर देना और दिल्ली में ही एक चिकित्सक दंपति द्वारा एक बेटे को अधिक बुद्धिमान बनाने के लिए अपने दूसरे बेटे की बलि दे देना ऐसे उदाहरण हैं जो उच्च शिक्षित वर्ग में भी गहरी जड़ें जमाए अंधवविास को बताते हैं।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि ऐसी घटनाओं का शिक्षा के स्तर से कोई संबंध नहीं दिखाई देता।
पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि पिछले सात वर्षों में डायन-बिसाही के नाम पर झारखंड में हर साल औसतन पैंतीस हत्याएं हो जाती हैं और इनकी शिकार नब्बे फीसद महिलाएं ही हैं। ऐसा तब हो रहा है जब हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 51(क) में स्पष्ट उल्लेख है कि यह सभी नागरिकों की बुनियादी जिम्मेदारी है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करें।
इसके बावजूद अंध आस्था का बाजार तेजी से विस्तार लेता जा रहा है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि न तो संविधान और न ही शिक्षा अंधविश्वास को रोक पाने में सक्षम साबित हुई है। यह न केवल चिंता का विषय है, अपितु आज के वैज्ञानिक युग के समक्ष एक गंभीर चुनौती भी है।
जहां एक तरफ मनुष्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी की सहायता से रोबोट बना कर और मानव मन को एक चिप के माध्यम से पढ़ लेने का दावा कर स्वयं को सर्वशक्तिमान के रूप में स्थापित करने में लगा है, वहीं आज भी बिल्ली के रास्ता काटने, काम पर जाते समय किसी के छींक देने, पुत्र या संतान प्राप्ति के लिए तंत्र-मंत्र का सहारा लेने, अमुक दिन बाल और नाखून नहीं काटने, बरसात न होने पर यज्ञ करने जैसी बातें विज्ञान को धता बताती नजर आती हैं।
महाराष्ट्र में अंधविश्वास उन्मूलन की दिशा में सक्रिय योगदान देने वाले डाक्टर नरेंद्र दाभोलकर ने अपनी किताब में लिखा है कि ढकोसले और चमत्कारों का शिकार बना मन मानसिक गुलामी को जन्म देता है। भारतीय समाज की रचना अथवा व्यवस्था मूल रूप से दैववाद की बुनियाद पर खड़ी है। कोई भी छोटा-बड़ा संकट उनके लिए भाग्य का फेर होता है।
लोग मानते हैं कि दैवीय शक्ति को प्राप्त किए बाबा हमें संकटों से मुक्ति दिलाएंगे। समस्याओं का मुकाबला करने की बजाय चमत्कार के अंधविश्वासी लोग ढकोसले की ओर मुड़ते हैं। इसलिए हमारा समाज ईश्वर, रूढ़ियों, कर्मकांडों जैसे अंधविश्वास के चक्रव्यूह में फंसा पड़ा है और डरपोक बन गया है।
कठिन यथार्थ से डर कर लोग अपनी बुद्धि और स्वाभिमान को तांत्रिकों या बाबाओं के पास गिरवी रख देते हैं। इसीलिए आवश्यक है कि समाज को आत्मविश्वासी, भयमुक्त और तार्किक बनाने की दिशा में गंभीर प्रयास किए जाएं।
प्रकृति की पूजा इसलिए नहीं करनी चाहिए कि उसके नाराज होने से कोई महामारी फैलेगी या कुछ बुरा होगा, बल्कि इसलिए करनी चाहिए कि प्रकृति मनुष्य के जीवन का आधार है।
इसलिए यह जरूरी है कि दाभोलकर की तरह ही समाज के अनेक बुद्धिजीवियों का यह कर्तव्य है कि वे अपने विचारों और संवाद के द्वारा लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करे और विज्ञान की बढ़ती खोजों के साथ मनुष्य को उनकी तार्किक क्षमता से भी परिचित करवाएं।
यह सत्य है कि धर्म का अंधविश्वास से कोई संबंध नहीं होता, क्योंकि धर्म आस्था और विश्वास पर टिका होता है और अंधविश्वास बेबुनियाद भय और तर्कहीनता पर आधारित होता है। कुछ स्वार्थी लोग अपने हितों को पूरा करने के लिए अंधविश्वासों की निरंतरता को बनाए रखने की कोशिश करते हैं और लोगो में भय का मनोविज्ञान पैदा कर अपने हित साधते रहते हैं।
यही कारण है कि आज भी जब कुछ लोग किसी समस्या में फंसते हैं या खुद पर विश्वास खो देते हैं तो उन्हें ओझा, तंत्र-मंत्र, बाबाओं की शरण ही अंतिम विकल्प नजर आता है।
इसलिए जरूरत है कि भय के मनोविज्ञान के स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लोगों की मानसिकता में प्रवेश कराया जाए। इसके लिए शिक्षा के माध्यम से इस तरह के अंधविश्वासों पर कुठाराघात किया जाना चाहिए, विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में इनका विरोध और वैज्ञानिक सोच का प्रसार करना चाहिए, ताकि बचपन से ही संविधान में शामिल वैज्ञानिक सोच नागरिकों की चेतना और व्यक्तित्व का हिस्सा बन सके।