ज्योति सिडाना
भारतीय संस्कृति में विवाह को संस्कार की संज्ञा दी गई है, पर उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसके स्वरूप और अर्थ दोनों बदल दिए हैं। परिवार में कोई भी आयोजन करना हो, चाहे सालगिरह, मुंडन संस्कार, नामकरण, विवाह की वर्षगांठ, विवाह सभी कुछ बाजार के हवाले हो गया है। जितना ज्यादा भव्य आयोजन होगा उतनी समाज में आपकी प्रतिष्ठा अधिक होगी। समाज वैज्ञानिक थर्सटन वेबलेन इसे दिखावे का उपभोग कहते हैं।
भव्य मैरिज लॉन, पांच-सात सितारा होटल, महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक इमारतों की प्रतिकृति (मॉडल) से बने विवाह स्थल, विलासितापूर्ण भोजन, शानदार मयखाने और देशी-विदेशी हर प्रकार के व्यंजन आदि की उपस्थिति यह दर्शाती है कि अब विवाह या कहें कि खर्चीला विवाह सार्वजनिक प्रदर्शन की वस्तु बन गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि विवाह संस्कार वर्तमान दौर में एक उद्योग के रूप में बदल गया है, जहां भारतीय पद्धति पर आधारित विवाह एक ब्रांड बन कर उभरा है। विवाह की इस प्रणाली ने न केवल देश में, बल्कि विदेशों में भी अनेक लोगों को प्रभावित किया है। जन्म-जन्मांतर के स्थायी संबंध, पति-पत्नी के बीच सौहार्द और एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायित्वों के निर्वाह की प्रतिबद्धताओं ने भारतीय विवाह को पवित्रता और शालीनता के साथ जोड़ कर प्रस्तुत किया है। यही वह आकर्षण है, जो वर्तमान दौर में विवाह को पर्यटन उद्योग के निकट ले आता है। लोग विदेशों से आकर भारतीय परिवेश में भारतीय रीति-रिवाजों से विवाह करने लगे हैं।
विवाह में बेपनाह धन का खर्च केवल वर्तमान युग का यथार्थ नहीं है। प्राचीन भारतीय समाज में भी इस प्रकार के खर्चीले विवाह देखे जाते थे, लेकिन केवल धनी और शाही परिवार ऐसा करते थे। इस तरह भारतीय समाज में विवाह संस्था सदैव असमानतामूलक रही है और पुरुष सत्ता को प्राथमिकता मिलती रही है। हाल के दशकों में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रियाओं ने विश्व में भारत सहित लगभग सभी समाजों में एक ऐसे विशिष्ट तबके को जन्म दिया है, जिसके पास अकूत धन है। उनके लिए विवाह संस्कृति उद्योग का एक सांस्कृतिक उपादान यानी ‘कल्चरल आब्जेक्ट’ बन गया है। इस उपादान पर अपने अधिकार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करने के लिए इस समृद्ध तबके ने विवाह को अत्यंत खर्चीला बना दिया है।
बड़े उद्योगपतियों, राजपरिवारों, राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों, फिल्मी हस्तियों, बाजार पर नियंत्रण करने वाली व्यापारिक ताकतों का विवाहों पर करोड़ों रुपए खर्च करना अब एक सामान्य बात हो गई है। इसके साथ ही विवाह में ‘एडवेंचर’ भी सामान्य बात हो गई है, जैसे गुब्बारों में बैठ कर आकाश में विवाह या समुद्र की गहराई में विवाह संपन्न करना आदि। करोड़ों रुपए खर्च करके ये परिवार ‘धन ही शक्ति है और धन का प्रदर्शन प्रतिष्ठा का पर्याय’ को सिद्ध करते हैं। इसलिए खर्चीले विवाहों को सफल बनाने के लिए प्रबंधन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। विवाह में इस्तेमाल होने वाले प्रत्येक संस्कारमूलक कृत्य को सफल बनाने का काम प्रबंधकों या विशेषज्ञों को दिया जाने लगा है।
इस तरह विवाह स्वयं में एक उद्योग बन गया है। कैटरिंग, नृत्य, ब्यूटी पार्लर, वरमाला, मंडप सज्जा, विदाई को यादगार बनाना, पंडितों का चुनाव, विवाह की फिल्म बनाना, महंगे कार्ड, भोजन का प्रबंध आदि के लिए सफल प्रबंधकीय समूहों/ विशेषज्ञों की तलाश की जाती है। इस तरह विवाह उद्योग ने अन्य अनेक सह-उद्योगों को भी जन्म दिया है। इन खर्चीले विवाहों के व्यापक प्रदर्शन ने अनेक विदेशी पर्यटकों को प्रेरित किया है कि वे अपने विवाह को यादगार बनाने के लिए भारत में भारतीय पद्धति का खर्चीला विवाह करें।
एक और नया पक्ष उभर कर आया है। आजकल विवाह से पहले ‘प्री-फोटोशूट’ करवाने या ‘डेस्टीनेशन मैरिज’ का चलन भी तेजी से बढ़ा है। इस डिजिटल होती दुनिया में सब कुछ हकीकत की दुनिया से कोसों दूर है। जहां सब कुछ दिखावटी है, क्षणभंगुर है। वर-वधू खुद को परीलोक का निवासी या बॉलीवुड स्टार समझने लगते हैं, लेकिन जब विवाह के बाद यथार्थ का सामना होता है, प्रतिदिन की कशमश से गुजरना पड़ता है, तब रिश्ते की हकीकत सामने आती है।
आज तलाक की दर में वृद्धि हुई है, रिश्ते निभाने की इच्छा में भी कमी देखी जा सकती है, रिश्तों पर अहं हावी हो गया है, परिवार बिखरने लगे हैं। यह एक तथ्य है कि दिखावे के उपभोग ने विवाह जैसे पवित्र बंधन को भी बाजार का हिस्सा बना दिया है। एक होड़-सी नजर आती है कि अपने बच्चों की शादी में कौन कितना खर्च कर सकता है। जो जितना ज्यादा खर्च करेगा उसकी प्रतिष्ठा समाज में उतनी बढ़ेगी। प्रतिष्ठा के इस खेल में पता ही नहीं चला कि कब रिश्ते पीछे छूट गए।
पर इसके साथ ही खर्चीले विवाहों के इस चलन ने मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के सामने अनेक समस्याएं उत्पन्न की हैं। चिंतित करने वाली बात यह है कि खर्चीला विवाह ग्रामीण परिवेश में भी प्रविष्ट हो गया है। खर्चीले विवाहों में दहेज सम्मिलित नहीं हैं, क्योंकि सब कुछ स्वैच्छिक रूप से प्राप्त हो जाता है। इस दृष्टि से दहेज अब धीरे-धीरे मध्यवर्गीय घटना बनता जा रहा है, पर खर्चीले विवाहों में दिए जाने वाले उपहार इतने महंगे होते हैं कि ऐसे विवाह न केवल मध्यवर्ग, बल्कि उच्चवर्ग में भी उपहार प्राप्ति की आकांक्षाएं उत्पन्न करने लगते हैं और दहेज का चरित्र प्रतियोगितामूलक हो चला है। सामान्य और कम खर्च के विवाह अब अपमानजनक भी बनने लगे हैं।
वर का हेलीकॉफ्टर से आना या महंगी कार का इस्तेमाल, यह दर्शाने लगा है कि मध्यवर्ग और निम्नवर्ग अपने विवाह को खर्चीला बनाने के लिए ऐसी क्रियाएं करने लगा है, जो मानसिक कुंठा और अस्मिता के संकट को दर्शाते हैं। इन वर्गों का विवाह को खर्चीला बनाने का प्रयास ऋणग्रस्तता को बढ़ाता है। महंगा उपहार न दे पाना संकोच को जन्म देने लगा है। परिणामस्वरूप विवाह का सौहार्द और सहभागितामूलक चरित्र समाप्त होने लगा है। विवाह के विभिन्न कार्यक्रमों में परिजनों की सहभागिता न होकर विशेषज्ञों की सहभागिता होने लगी है।
विवाह के इस बदलते स्वरूप ने सामंती जीवन-शैली को परिवारों में प्रविष्ट करा दिया है। आर्थिक असमानतामूलक समाज में ऐसे विवाह केवल विलासिता की संस्कृति का प्रचार हैं, जो मध्यवर्ग और निम्नवर्ग को हाशिए पर ला रहे हैं, क्योंकि खर्चीला विवाह करने वाले परिवार के अनेक संबंधी मध्य और निम्नवर्ग के हो सकते हैं। और कहीं न कहीं यह विचार उत्पन्न करते हैं कि हम जो अनेक वर्षों में अर्जन नहीं कर पाते, उससे कई गुना अधिक हमारा यह संबंधी विवाह पर खर्च कर देता है। खर्चीले विवाह का यह प्रदर्शन न केवल धन, शक्ति और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन है, बल्कि राज्य के कल्याणकारी चरित्र को समाप्त करता है।
खर्चीला विवाह समानता का निषेध है। दरअसल, उपभोक्ता संस्कृति से पनपी प्रतियोगिता ने बाजार के वर्चस्वकारी चरित्र को विवाह के बीच लाकर खड़ा कर दिया है, जिसमें भावनाएं भी कृत्रिम रूप से प्रदर्शित होती हैं। इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि इससे सामाजिक एकजुटता टूटती है और आपराधिक प्रवृत्ति की कुंठाएं जन्म लेती हैं। विवाह को संस्कार ही रहने दें, बाजार का हिस्सा न बनने दें। विवाह प्रदर्शन की वस्तु नहीं है, बल्कि संबंधों को विस्तार देने और मजबूत बनाने की संस्था है। परिवार मजबूत होगा, तो समाज और राज्य भी मजबूत होंगे।