जब आप इस कॉलम को पढ़ रहे होंगे तो थोड़े से राज्य खुशी-खुशी और कुछ अनिच्छा से अठारह से चवालीस साल के लोगों के टीकाकरण का बड़ा आयोजन शुरू कर चुके होंगे। कुछ बिल्कुल नहीं करेंगे। दूसरा बड़ा आयोजन वोटों की गिनती का है जो आज आठ बजे शुरू हो चुकी होगी। मैं इन दोनों के नतीजे जाने बिना यह लेख लिख रहा हूं।

टीके की पहली खुराक लेने के लिए जिस तरह से लोग कतारों में लग रहे हैं और जो दूसरी खुराक नहीं मिलने के कारण लौट रहे हैं, उससे टीके को लेकर हिचकिचाहट का चला आ रहा मिथक टूट चुका है। दो अप्रैल 2021 को बयालीस लाख पैंसठ हजार एक सौ सत्तावन लोगों को टीका लग चुका था और कोई कारण नहीं कि हम रोजाना की इस संख्या को एक औसत की तरह हासिल कर न कर सकें। हालांकि अप्रैल में टीकाकरण की औसत दर गिर कर करीब उनतीस लाख प्रतिदिन पर आ गई। इसका संभावित कारण अस्पतालों को टीके की पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो पाना हो सकता है। दूसरा कारण पूर्णबंदी के दिन और इसका समय बढ़ा दिया जाना हो सकता है। इस दर पर तो बाकी सत्तर करोड़ वयस्कों को टीका लगाने में दो सौ चालीस दिन लग जाएंगे।

पैसा बाधा नहीं बनना चाहिए। औसत दाम ढाई सौ रुपए प्रति खुराक भी मान कर चला जाए तो सत्तर करोड़ वयस्कों में हरेक को दो खुराक देने के लिए पैंतीस हजार करोड़ रुपए की जरूरत होगी, जिसका बजट में आबंटन किया जा चुका है। बाकी सारी बाधाएं एक मई तक दूर हो जानी चाहिए। लेकिन यदि नए दाम पर तत्काल बात नहीं बनती है तो दो निमार्ताओं द्वारा घोषित पांच दाम एक बाधा बन सकते हैं।

टीकों की कमी क्यों?
टीकों की कमी अभी भी समस्या बनी हुई है और इसका आरोप सीधे केंद्र सरकार पर जाता है जो यह कर पाने नाकाम रही
-सीरम इंस्टीट्यूट आॅफ इंडिया और भारत बायोटेक के अलावा दूसरे निर्माताओं से करार,
-कोविशील्ड और कोवैक्सीन के अलावा दूसरे स्वीकृत टीकों के लिए आदेश देने में,
-निर्माण क्षमता बढ़ाने की जरूरत का अंदाजा लगा पाने और उत्पादन बढ़ाने के लिए दो भारतीय निर्माताओं को पैसे की पेशकश करने में,
-दोनों भारतीय निर्माताओं से समान उचित दाम को लेकर बातचीत,
-समान उचित दाम पर टीका बेचने के लिए दोनों भारतीय निर्माताओं को आवश्यक लाइसेंसिंग संबंधी प्रावधान लागू करने की चेतावनी का संकेत देने, और
-राज्यों से विमर्श कर टीकों की लागत को केंद्र के साथ बांटने की जिम्मेदारी बनवाने में।

केंद्र सरकार की अक्षमता को धन्यवाद कि दुनिया में भारत को दवा उद्योग का केंद्र बनाने की बात खत्म हो गई, और बजाय इसके हम उन दूसरे देशों और निर्माताओं से आपूर्ति की अपील कर रहे हैं जिनके पास भारत को देने के लिए सीमित मात्रा है। आखिरकार अपमान तो तब होगा जब हम सिनोफार्मा और चीन में बने दूसरे टीके लेने की चीन की पेशकश को मान लेते हैं। याद कीजिए, केंद्र सरकार ने डा. रेड्डीज लैब को कई हफ्ते तक रूसी टीके स्पूतनिक का परीक्षण शुरू करने से रोक दिया था।

यह भी याद करें कि डीजीसीआइ ने फाइजर-बायोएनटेक के टीके के आपात इस्तेमाल को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था, जिसे कई नियामक पहले ही मंजूरी दे चुके थे और अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के कई देशों में इसका इस्तेमाल हो रहा था।

सबसे बड़ी चिंता टीकों की पर्याप्त आपूर्ति नहीं होने को लेकर है। प्रतिष्ठित अस्पतालों तक से टीके की कमी की खबरें आ रही हैं। अगर महानगरों में यह हालत है तो दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों और बड़े कस्बों के अस्पतालों, खासतौर से छोटे और मझौले अस्पतालों, की पीड़ा का अंदाजा लगाया जा सकता है। अस्पतालों पर अठारह से चवालीस साल के वयस्कों का बोझ पड़ते ही टीकों की कमी और गहरा सकती है। आज जो हालत अस्पतालों में बिस्तर और आॅक्सीजन को लेकर हो रही है, वैसी ही मारामारी अगर टीकों के लिए मची और गुस्साए लोगों ने अस्पतालों के प्रशासकों का घेराव शुरू कर दिया तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा।

सब कुछ कोई नहीं जानता
केंद्र सरकार इस दयनीयता के साथ नाकाम क्यों हो गई? मैं उन कारणों को गिना सकता हूं जिनकी सूची मीडिया खासतौर से विदेशी मीडिया ने तैयार की है।
(1) अक्खड़पन (मंत्रियों ने कहा, ‘मोदी ने जिस तरह से कोरोना को हरा दिया, दुनिया उसका जश्न मना रही है’, स्वास्थ्य मंत्री ने उन्हें ‘विश्व गुरु’ कह डाला),
(2) केंद्रीयकरण : सारे फैसले एक ही व्यक्ति, प्रधानमंत्री, लेता रहा और राज्यों को आज्ञाकारी मातहत बना कर छोड़ दिया,
(3) कमजोर सलाह : डा. पॉल, डा. गुलेरिया और डा. भार्गव, जिनके प्रति काफी सम्मान है, लगता है तीनों अपना वक्त टीवी पर ज्यादा गुजारते हैं, बजाय इसके कि आंकड़ों का अध्ययन करते और प्रधानमंत्री को बेखौफ सलाह देते।
(4) खराब योजना : बिना योजना आयोग के कोई संगठन ऐसा नहीं दिखता जो यह जानता हो कि योजना क्या होती है, कई तरह की परिस्थितियों की कल्पना करना जिनमें सबसे बदतर भी हों और कई योजनाओं को साथ चलाने का कौशल भी।
(5) आत्मनिर्भरता पर अनुपयुक्त जोर, बिना यह महसूस किए कि आत्मनिर्भरता को राष्ट्रभक्ति तक सीमित कर दिया गया है, और
(6) टीकों के निर्माण या आयात व उनके दक्षतापूर्वक वितरण के राष्ट्रीय प्रयास में और निमार्ताओं को शामिल करने के बजाय दो निर्माताओं को सिर पर बैठा लेना।

आगे का रास्ता
देश भारी कीमत चुका रहा है। उनतीस अप्रैल को संक्रमितों का रोजाना का आंकड़ा तीन लाख छियासी हजार सात सौ पनचानवे की नई ऊंचाई पर पहुंच गया, उपचाराधीन मामलों की संख्या इकतीस लाख सत्तर हजार दो सौ अट्ठासी थी और मृत्यु दर 1.11 फीसद, जो संभवतया कम करके बताई गई। दुनिया में रोजाना होने वाले संक्रमितों में भारत की भागीदारी चालीस फीसद हो गई है।

हम अभी भी दुर्गति से बच सकते हैं। प्रधानमंत्री को कदम उठाने की जरूरत है। एक उच्चाधिकार समूह (नौ लोगों से ज्यादा नहीं) बनाया जाए जिसमें स्वतंत्र सोच वाले मंत्री, चिकित्सा विशेषज्ञ, योजनाकार और उन्हें लागू करने वाले हों (इनमें सेवारत या सेवानिवृत्त, सरकारी सेवक या नागरिक भी हो सकते हैं) और इसे आपदा प्रबंधन समूह नाम दिया जाए। इसे पूरा समर्थन दिया जाए और इस समूह को महामारी से प्रसार से लड़ने का जिम्मा लेने दिया जाए। प्रधानमंत्री को सिर्फ नतीजों का मूल्यांकन करना चाहिए। हार्वर्ड यही सिखाता है, यह कड़ी मेहनत से ही संभव होता है।