देवशंकर नवीन

साहित्य के उद्देश्य पर पुराने आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा है। साहित्य समकालीन समाज की चितवृत्ति का वाहक होता है, इसलिए वह एक किस्म का इतिहास होता है। कई बार तो समकालीन साहित्य, इतिहास लेखन का साधन भी बनता है। हर समय के साहित्य के लिए यही सच है। साहित्य को पवित्र कर्म मानने वाले लोग आज भी सृजन के जरिए समाज और सामाजिक जीवन को परिष्कृत करने में तत्पर हैं। पर सच्चाई है कि इस वृत्ति को आत्म-प्रचार और आत्म-स्थापन का औजार बनाने वालों की आज भरमार है। लेखन का धंधा करने वाले ऐसे लोगों का प्रवेश पिछली शताब्दी के छठे दशक से शुरू हो गया था, जो खुद को समय का देवता साबित करने के लिए लेखन कर्म के नुस्खे गढ़ने लगे थे। पर साहित्य धंधा नहीं है।

सच्चे साहित्य का उद्देश्य सदा से समाज को मानवीय और मानव को सामाजिक बनाना रहा है। कलम उठाने से पहले हर रचनाकार को अपनी नैतिक जिम्मेदारी और सामाजिक सरोकार का बोध होना चाहिए। साहित्य और समाज का समुचित बोध और दायित्व निर्वाह की निष्ठा जिन्हें न हो, उन्हें अपने विवेक से इसे वर्जित क्षेत्र मान लेना चाहिए, क्योंकि आम पाठक मुद्रित पाठ के जरिए बेशक किसी लेखक को जानना शुरू करे, अंतत: वह लेखक के वैयक्तिक जीवन तक अवश्य पहुंच जाता है। कहना आसान है कि लेखक के लेखन और जीवन-प्रक्रिया को अलग-अलग देखा जाना चाहिए। पर, आम पाठक ‘आम’ ही होता है, वह कच्ची लकड़ी के तस्करों से पर्यावरण सुरक्षा का गीत नहीं सुन सकता। आम नागरिक अपने उपदेशक के केवल वक्तव्य में नहीं, उनके चरित्र में भी प्रेरणा और आदर्श का तत्त्व ढूंढ़ता है। आज हमारे यहां जीवनियां पढ़ी जाती हैं, लोग विद्यापति, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा की जीवनी पढ़ते हैं। आज जो लोग लेखन का धंधा कर रहे हैं, सौ-पचास वर्ष बाद, या आज ही, उनकी जीवनियां लिखी जाएं, तो वे अगली पीढ़ी को चरित्र और जीवन-यापन की कैसी प्रेरणा दे पाएंगी?

आदिकाल से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति के समय तक हमारे जो भी आचार्य, लेखक, चिंतक हुए; वे आज के रचनाकारों के नायक हैं। मगर आज के आत्मसुखलीन और शासन व्यवस्था में अपने लिए ऐशो-आराम की गुंजाइश ढूंढ़ने वाले रचनाकारों की संतति भविष्य में इनके किन सद्गुणों और सद््िवचारों के लिए इन्हें याद करेंगे?

भाषा से तो मनुष्य के सोच का संबंध है, जब तक मनुष्य सोचता रहेगा, किसी न किसी रूप में भाषा रहेगी। सोचने वाले की मानसिक बनावट या उसकी शब्द-क्षमता के आधार पर भाषा का संकोच और विस्तार होता रहेगा। मगर साहित्य का विकास और विस्तार लेखन-प्रकाशन, पाठ और प्रचार से होता है; मूल्यांकन से होता है। अब तो लोकसाहित्य भी लोगों को लिखित मिलने लगा; पुस्तकों और संग्रहालयों में कैद होने लगा, फेलोशिप और संस्कृति रक्षा के दौर में बचे-खुचे भी कैद हो जाएंगे।

लोककला मंत्रालयों के फेलोशिप की अर्हता हो गई। दादी-नानी के मुंह से अब किस्से नहीं होते, लोरियां नहीं गार्इं जातीं, बधावा नहीं गाया जाता- सबके सब सीडी, यू-ट्यूब जैसे उपादानों में कैद हैं। आधुनिकता ने हमें कितना कुछ दिया! भादों महीने के शुक्ल पक्ष के चौथे दिन, हाथ में फल लेकर चंद्रमा को प्रणाम करने वालों की संततियां चंद्रमा पर से सैर कर आर्इं। किताबों की पूजा करने वाले लोगों के पांव धोखे से किताबों में लग जाने पर उसे सिर चढ़ाने वाले लोगों की संततियां किताब छापने-बेचने लगीं। गरज कि लोग आधुनिक और अत्याधुनिक हो गए। पहले के विचारकों, चिंतकों को आम नागरिक तक अपनी बात पहुंचाने की सुविधा आज की तरह नहीं थी, फिर भी वे जन-जन के प्यारे थे। आज सारी सुविधाएं हैं, फिर भी वे पाठकों के प्यारे नहीं हो पा रहे हैं।

असल बात है कि आज के लेखक अपने निजत्व, अपनी लिप्सा, अपनी आकांक्षा, अपनी वासना से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। और यही कारण है कि पाठक उन्हें जनसरोकार के करीब नहीं देख रहा है। मान्यता, पुरस्कार और आत्मसुख के अन्य उपादानों को लूटने में लिप्त रचनाकार कभी कालजयी रचना कर पाएंगे- इसमें किसी की सहमति नहीं हो सकती।

आज हमारी भाषाओं में पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्थानों की इतनी सुविधा है, किसी को अभिव्यक्ति का कोई संकट नहीं है- फिर भी आज के रचनाकार जनता से दूर हैं। भारतीय नागरिक का जीवन-संघर्ष और अस्तित्व का संकट आज के लेखकों को उतना ही दिख रहा है, जितना वे अपने लिए हितकर समझते हैं। कुछ तो नॉस्टेल्जिया के आधार पर ही जीवन खेप लेते हैं। कुछ दूसरों से सुन कर जनजीवन का अनुभव अरजते हैं। किसी जनपद के एक व्यक्ति से कहीं भेंट मुलाकात हो जाए, उनसे चार बातें हो जाएं, तो वे खुद को उस जनपद का विशेषज्ञ मान बैठते हैं। किसी स्त्री, दलित, भोक्ता की वास्तविक स्थिति आज की वणिकबुद्धि तक आकर कितनी तीक्ष्ण और त्रासद हो जाती है- इसका उदाहरण एक खोजें, हजार मिलेंगें।

दरअसल, आज हम एक बाजार में जी रहे हैं। यहां वस्तुस्थिति को खबर और खबर को बिकाऊ बनाया जाता है। साहित्य और खबर को बिकाऊ बनाने के लिए, उनसे ऊंची कीमत दूहने के लिए किए जाने वाले उपक्रमों में लीन व्यापारियों को कभी यह चिंता नहीं होती कि इस लाभ की कीमत पर हम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। सौंवीं, सवा सौंवीं जयंती, पुण्यतिथि मनाने का ढोंग भी वाणिज्य का हिस्सा है। हमारी पीढ़ियों ने अपने रचनाकारों का मूल्यांकन नहीं किया, उन्हीं में से कोई अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए कोई विवादास्पद पंक्ति घोषित कर खुद को चर्चित करने की गुंजाइश ढूंढ़ लेंगे- गजब है यारो!

आखिर क्या कारण है कि आज भी हमें तुलसी, सूर, कबीर प्रासंगिक दिखते हैं और आज के कई रचनाकार राजनेता दिखने लगे हैं। असल बात है कि आज के ऐसे रचनाकारों का मूल सरोकार साहित्य या समाज से नहीं है। वे पुरस्कार की राजनीति से, विदेश यात्रा से, विदेशी भाषाओं में अपनी रचनाओं के अनुवाद से, राज्यसभा के सदस्य की कुर्सी पाने के करिश्मे से, संस्थाओं के अध्यक्ष, सचिव, सलाहकार, न्यासी बनने से ज्यादा ताल्लुक रख रहे हैं। वे लेखन को जितना जरूरी समझते हैं, उसके प्रकाशन, अनुवाद, समीक्षा, चर्चा को और उससे अधिकतम उगाही को, उससे अधिक जरूरी समझते हैं। उत्पादन, प्रचार और व्यापार- सभी की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं ले रखी है।

रचना को अधिक से अधिक पढ़ा जाए- यह आज के लेखक-प्रकाशक का प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। प्राथमिक उद्देश्य है उसकी बिक्री, अनुवाद, प्रचार, चर्चा। फिर अनुवाद और चर्चा की चर्चा। इस तिकड़म में लगे लोग एक से एक तरीका निकालते जा रहे हैं। मंत्री के हाथों लोकार्पण, पत्रकारों-समीक्षकों के साथ पुस्तक-चर्चा उनका उद्देश्य हो गया है। पुस्तकालयों की आलमारी में जाकर कैद होना पुस्तकों की नियति हो गई है। देशी-विदेशी संस्थाओं से मान्यता और पुरस्कार प्राप्त करने वाले लेखकों या लेखन को बड़े करीने से साइड बिजनेस मानने वाले रचनाकर्मियों, भाषाजीवियों के लिए समाज की समझ और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। सच्चे साहित्यसेवियों की मान-मर्यादा को रौंद कर अपना वर्चस्व कायम कर चुके लोग अब पथ-प्रदर्शक हो गए! बीते छह दशकों में इन्होंने अपने चारित्रिक वैशिष्ट्य का काफी विस्तार किया है।
मगर अब ऐसा नहीं कि साहित्य की गरिमा समझने वाले लोगों की संख्या और क्षमता कम है। सच्चाई और सच्चरित्रता की ताकत संख्या में नहीं गिनी जाती। उन्हें इन आचार्यों और उनके शिष्यों से सावधान रहना होगा।