अपूर्वानंद
जनवरी में सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर हम किस गांधी को याद करना चाहते हैं। या कि उन्हें हम किस तरह याद करना चाहते हैं? किस मकसद से? कई बार याद करने की प्रक्रिया भुला दी जाने से अधिक क्रूर होती है। गांधी को चरखे और भजन की औपचारिकता के जरिए याद करना एक बात है। उनके अहिंसा के सिद्धांत को किसी भी नाइंसाफी के खिलाफ न्याय की मांग को गैरजरूरी ठहरा देने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। हत्यारे गांधी की तस्वीर अपने शिकार के सामने रख कर उससे कत्ल को न भूलने और उसके लिए जिम्मेदारी निश्चित करने की मांग करने की उसकी जिद को हिंसक घोषित कर सकते हैं। वे बिना क्षमा मांगे उसके क्षमा न कर पाने को गांधी-विरोधी करार दे सकते हैं।
पिछले कई दशकों से गांधी के साथ यही होता रहा है। और ‘गांधीवादी’ इन सबसे मुंह फेर कर भजन गाते रहे हैं। तीस जनवरी को सर्वधर्म प्रार्थना सभा करके वे गांधी पर माला चढ़ा देते हैं। क्या यह आश्चर्य की बात है कि उन्होंने शायद ही कभी गांधी के आखिरी उपवास को याद किया हो? इस उपवास से मुंह चुराना क्यों? क्योंकि किसी भी दूसरी चीज से अधिक इसी में गांधी के जीवन का संदेश छिपा है।
गांधी का अर्थ संघर्ष का शमन नहीं, बल्कि संघर्ष के अलावा और कुछ है ही नहीं। वे हमेशा खुद को और अपने लोगों को, और वे अनेक थे, अपनी सीमाओं को पहचानते और उनका अतिक्रमण करते रहने की चुनौती देते रहने में विश्वास करते थे। ‘सतत क्रांति’ को माओवादी से अधिक गांधीवादी मंत्र कहा जा सकता है।
गांधी का अंतिम उपवास इस संघर्ष का एक भीषण उदाहरण है। यह बहुमत को चुनौती देने के लिए किया गया उपवास था। अपने बहुमत या बहुसंख्या के बल के अहंकार से मुक्त होकर अल्पसंख्यक के साथ बराबरी के भाव से जीवन गुजारने का अभ्यास विकसित करने की कड़ी चुनौती। भारत में और अब भारत और पाकिस्तान में इसका अर्थ था मुख्यतया हिंदुओं और मुसलमानों के सम्मानपूर्वक साहचर्य का अभ्यास।
भारत लौटने के बाद गांधी इन दोनों धार्मिक समुदायों के बीच के तनाव और घृणा को अच्छी तरह पहचान पाए थे। मौका मिलते ही यह हिंसा में फूट पड़ती थी और इसकी क्षमता दोनों में समान थी।
गांधी उन सामाजिक और निजी संसाधनों की तलाश कर रहे थे, जिनके सहारे इस हिंसक स्वभाव का प्रतिकार किया जा सके। अहिंसक जीवन ही न्यायपूर्ण जीवन हो सकता है। इसलिए अहिंसा एकायामी हो भी नहीं सकती थी।
अंगरेजी हुकूमत से आजादी के पहले पूरे मुल्क में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खूंरेजी शुरू हो गई थी। अंगरेजों के जाने की निश्चितता के साथ खुल कर दोनों ही अपनी क्रूरता का प्रदर्शन कर रहे थे। और इसी के साथ हर जगह उसी औपनिवेशिक फौज और पुलिस के सहारे हिफाजत की गुहार होने लगी थी, जिसके खिलाफ आज तक संघर्ष किया गया था।
सत्ता हाथ में आते ही अहिंसा भुला दी गई। और यही परीक्षा थी अहिंसा की। गांधी ने उन्नीस सौ छियालीस और सैंतालीस में मुसलमानों और हिंदुओं की एक-दूसरे के खिलाफ क्रूरता को देख कर कहा कि अब वे समझ पाए हैं कि अंगरेजी हुकूमत के खिलाफ वे जो प्रतिरोध कर रहे थे, वह अहिंसक नहीं था। वह मात्र निष्क्रिय प्रतिरोध था। अहिंसा सच्चे मायनों में अहिंसा तभी है जब सत्ता हाथ आ जाने के बाद हिंसा के इस्तेमाल के लोभ पर विजय प्राप्त कर ली गई हो।
1946-47 में गांधी ने पाया कि अब तक जनता उनके नेतृत्व में जो उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन कर रही थी, उसकी अहिंसा अधूरी और एक अर्थ में अवसरवादी थी। अहिंसा को संपूर्ण आचरण में, निजी और सामाजिक, विन्यस्त होना शेष था। किसी भी प्रकार के वर्चस्व और प्रभुत्व के भाव की वह सहचारी नहीं हो सकती थी।
अहिंसा सत्य के नकार के साथ भी जीवित नहीं रह सकती। एक दिसंबर, 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने काठियावाड़ में मुसलमानों के साथ हुई हिंसा के तथ्य से इनकार करने पर लंबा वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा कि वहां के हिंदुओं को पहले इस कठोर सत्य को कबूल करना होगा कि मुसलमानों पर अत्याचार हुआ है। हिंसा के तथ्य से मुंह चुराना अहिंसक होना नहीं है। उसी तरह यह प्रश्न भी था कि जो हिंसा, हत्या में शामिल रहे हैं, उन्हें न्याय का सामना करना चाहिए या नहीं?
गांधी ने पूछा कि अब जब अंगरेजी हुकूमत नहीं है तो क्या हमलावर अपने कांग्रेसी मंत्रियों से माफी मांगेंगे और वह उन्हें दे दी जाएगी? वे यह स्वीकार नहीं कर सकते थे। जिन्होंने हिंसा की, उन्हें कानून के हिसाब से उसका नतीजा भुगतना ही पड़ेगा। अहिंसा के सिद्धांत में अपने कृत्य के परिणाम से बच निकलने का कोई उपाय नहीं है।
कलकत्ते में जिन्ना की सीधी कार्रवाई के एलान के बाद हिंदुओं पर हुई हिंसा और जवाबी हिंसा को रोकने के लिए लंबा वक्त बंगाल में गुजारने के बाद गांधी पंजाब जाना चाहते थे। वे बिना पासपोर्ट के पाकिस्तान जाने का इरादा भी रखते थे, जिन्ना को याद दिलाना चाहते थे कि उन्होंने एक ऐसे निजाम की कल्पना की थी, जिसमें बहुसंख्यक मुसलिम आबादी के साथ अल्पसंख्यक हिंदू और सिख आबादियां इज्जत और हक के साथ रह सकती हैं। क्या मुसलमान हिंदुओं और सिखों के साथ और हिंदू मुसलमानों के साथ जीवन व्यतीत करने को तैयार नहीं थे? गांधी के लिए यह नाकाबिले-मंजूर था।
गांधी को दिल्ली में रुकने का फैसला करना पड़ा, क्योंकि पाकिस्तान से सब कुछ लुटा कर आए शरणार्थियों के क्रोध का सामना यहां के मुसलमान कर रहे थे। वे असुरक्षित थे, मस्जिदों में पनाह लिए हुए थे। मस्जिदों को मंदिरों में बदला जा रहा था।
गांधी ने निर्णय किया कि भारत में अगर अल्पसंख्यकों के हक को सुनिश्चित करना है, तो दिल्ली की हिंसा को रोकना पड़ेगा। भारत के लिए दिल्ली की केंद्रीय प्रतीकात्मकता को वे बखूबी समझते थे। यहां अपील हिंदुओं को करनी थी।
गांधी ने अपना आखिरी अस्त्र निकाला: उपवास का। यह बेमियादी था और तब तक चलने को था जब तक उन्हें यकीन न हो जाए कि हिंदू-मुसलमान-सिख मिल कर रहने को तैयार हैं। आखिर यह यकीन कैसे हो? गांधी की एक मांग थी अविभाजित भारत के खजाने से पाकिस्तान का पावना उसे देने की। पाकिस्तान के हमलावर रुख के बीच इस फैसले के लिए खासी नैतिक दृढ़ता चाहिए थी। हिंदुओं की नाराजगी का खतरा तो था ही। फिर भी गांधी पाकिस्तान को इससे वंचित करने को भारत की कमजोरी मानते थे।
भारत सरकार ने यह बात मान ली। लेकिन गांधी उपवास छोड़ने को राजी नहीं थे। उन्हें अभी यकीन होना था कि दिल्ली के हिंदू और सिख मुसलमानों को अपने बीच हिफाजत और इज्जत से रहने का रास्ता हमवार करेंगे। उपवास के चौथे दिन दिल्ली के शरणार्थी शिविरों, मोहल्लों और संगठनों ने एक संकल्प-पत्र स्वीकार किया: महरौली के ख्वाजा कुतुबुद्दीन के मजार का सालाना उर्स पहले की तरह ही होता रहेगा, मस्जिदें खाली कर दी जाएंगी, पाकिस्तान चले गए मुसलमानों की वापसी का स्वागत होगा और वे पहले की तरह जिंदगी बसर कर सकेंगे।
गांधी ने इस संकल्प को कबूल करके अठारह जनवरी को पौने एक बजे उपवास तोड़ा। उन्होंने संकल्प करने वाले प्रतिनिधियों से कहा, जिनमें हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी थे, सिर्फ दिल्ली नहीं, पूरे भारत में यह एकता कायम करना उनका फर्ज है। उन्होंने अगर ऐसा नहीं किया तो यह ईश्वर के साथ धोखाधड़ी होगी।
गांधी को सख्त एतराज था कि मुसलमानों से भारत की वफादारी का बार-बार एलान करने को कहा जाए। इस उपवास के पहले वे अपनी प्रार्थना सभाओं में गो-हत्या के विरुद्ध कानून बनाने के खिलाफ भी बोल चुके थे। वे किसी भी तरह हिंदू जीवन पद्धति की श्रेष्ठता को भारत पर आरोपित करने के पक्ष में नहीं थे।
गांधी ने कहा, ‘‘मैंने सत्य के नाम पर उपवास आरंभ किया था, जिसका परिचित नाम ईश्वर है। बिना जीवंत सत्य के, ईश्वर का कोई वजूद नहीं।’’
फ्रेंच अखबार ‘ले मोंदे’ ने लिखा, ‘‘… गांधी ने एक बार फिर दिखा दिया कि वे हमारे वक्त के सबसे बड़े विद्रोही हैं।’’ विद्रोहियों को सजा दी जाती है। उपवास समाप्त होने के बारह दिन बाद गांधी को इस विद्रोह के लिए मौत की सजा दी गई। 2014 में वह विचारधारा सत्तारूढ़ हुई, जिसने गांधी को हिंदुत्व का गुनहगार माना था। यह सही वक्त है कि हम गांधी की इस आखिरी विद्रोही कार्रवाई के अर्थ पर विचार करें।
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