राजकुमार
केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, अब उनकी निगाह में शिक्षा का उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक विकास करना है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना की प्रस्तावना इसी तरफ संकेत करती है। पिछले दो-ढाई दशक में वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह के आर्थिक और औद्योगिक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें देखते हुए केंद्र सरकार ने शिक्षा के अर्थ और उद्देश्य में बदलाव किया है। यों पहले भी सरकार आर्थिक और औद्योगिक हितों की रक्षा करती रही है, लेकिन शिक्षा का मूल उद्देश्य पूरी तरह उस दिशा में नहीं मुड़ा था। कहीं न कहीं जोर इस बात पर था कि शिक्षा बेहतर मनुष्य का निर्माण करे। उसका उद्देश्य राष्ट्रीय और सामाजिक मूल्यों से जुड़ा था। पर अब इसके बिंदु बदल गए हैं।
इसके कई कारण हैं। पहला कि आर्थिक वृद्धि में सबकी सहभागिता हो, इसलिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को शिक्षित करना, रोजगार लायक कौशल, दक्षता और क्षमता विकसित कर रोजगार मुहैया कराना। दूसरा, घरेलू बाजार और उद्योगों की जरूरतों के मद्देनजर लोगों को शिक्षित करना। तीसरा, 2020 तक वैश्विक स्तर पर दक्ष, कुशल और प्रशिक्षित युवाओं की मांग को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में निवेश करना। चौथा, शिक्षा और शिक्षण संस्थाओं को उद्योग के लायक बनाना, ताकि वे आर्थिक हितों की पूर्ति कर सकें। पांचवा, भारतीय विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं को वैश्विक पहचान दिलाना, ताकि विदेशी छात्रों को आकर्षित किया जा सके। छठा, विदेशों की तरफ आकर्षित छात्रों को भारतीय संस्थानों में ही रोकना, ताकि भारतीय मुद्रा का प्रवाह रुक सके।
कहना न होगा, सरकार का उद्देश्य बाजार की मांग और शर्तों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाना है। इसलिए जरूरी है कि शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन किए जाएं। न सिर्फ बाहरी आधारभूत संरचना को, बल्कि भीतरी स्तर पर विभिन्न अनुशासनों, विषयों को भी बदला जाए। बाजार, उद्योग, कॉरपोरेट जगत और समाज की जरूरतों के हिसाब से नए विषय जोड़े जाएं और नई अध्ययन सामग्री तैयार की जाए। परंपरागत रूप से पढ़ाए जा रहे विषयों को भी तकनीकी से जोड़ा जाए, ताकि दक्ष और कुशल छात्र तैयार हों। मगर सवाल है कि क्या हमारे देश के उच्च शिक्षण संस्थान, विश्वविद्यालय आदि इसके लिए तैयार हैं?
हकीकत यह है कि पिछले तीन-चार दशक से शिक्षण केंद्र यथास्थितिवाद के शिकार हैं। समयानुरूप बदलाव के अभाव में सरकारी संस्थानों की जगह निजी संस्थानों ने छेंकनी शुरू कर दी है। वे बाजार के मानकों को ध्यान में रख कर आगे बढ़े, लेकिन उन्होंने शिक्षा का पूरी तरह बाजारीकरण-कॉरपोरेटीकरण कर दिया। सिर्फ उन्हीं अनुशासनों को चुना, जो बाजार में खपने लायक थे। नई शिक्षा नीति (1984) की अनिवार्यता का ध्यान रखते हुए मानविकी के भीतर भी सिर्फ व्यावहारिक पाठ्यक्रम का चुनाव किया, जो बाजार के अनुरूप है। उद्योग की जरूरतों के हिसाब से पाठ्यचर्या ही तैयार नहीं की, शिक्षा को भी उद्योग बना दिया। इससे वह आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई। समाज के आर्थिक रूप से मजबूत लोगों के काम की चीज हो गई।
इन हालात में सरकार ने बारहवीं पंचवर्षीय योजना में सुधार योजनाओं को अमलीजामा पहनाना चाहा। प्रतिस्पर्धात्मक आर्थिक दुनिया की चुनौतियों को देखते हुए उच्च शिक्षा को ‘वर्कफोर्स’ में बदलने पर जोर दिया गया। शिक्षा को सीधे रोजगार से जोड़ने की बात की गई। इसके लिए संसाधनों में सुधार और बेहतर उपयोग, शोध संस्कृति को बढ़ावा, गुणवत्ता में सुधार, पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप की प्रस्तावना की गई। रोजगारोन्मुखी शिक्षण पद्धति के लिए बदलाव की दिशा में पहल करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय को ‘प्रयोगशाला’ के रूप में इस्तेमाल किया गया।
वहां सरकार की योजनाओं के अनुरूप पहले वार्षिक अध्ययन पद्धति की विदाई हुई। फिर बारहवीं पंचवर्षीय योजना की प्रस्तावना के अनुरूप कई और अभूतपूर्व बदलाव किए गए। मसलन, चारवर्षीय पाठ्यक्रम, स्किल डेवलपमेंट के अंतर्गत फाउंडेशन कोर्स, आधुनिक तकनीक के अंतर्गत सभी छात्रों को मुफ्त लैपटॉप, वाई-फाई की सुविधा, प्राध्यापकों के लिए आइसीटी प्रशिक्षण, पूरी तरह न सही, पर यथासंभव ब्लैकबोर्ड की विदाई और कक्षाओं में प्रोजेक्टर, क्लस्टर इनोवेशन सेंटर, इनोवेशन प्रोजेक्ट, आइ ट्रीपल एल (जीवनपर्यंत शिक्षण केंद्र), मुक्त और दूरस्थ शिक्षण केंद्रों को बढ़ावा, इ-लर्निंग सामग्री और इलेक्ट्रॉनिक कॉन्फें्रसिंग शिक्षण पद्धति पर बल, देश भ्रमण के माध्यम से शिक्षा ग्रहण (ज्ञानोदय एक्सप्रेस की संकल्पना), इंटरडिसिप्लीनरी विषय, इंटरनल फैकल्टी का विदेशों में अध्ययन-प्रशिक्षण आदि।
लेकिन शैक्षणिक सुधार के नाम पर चारवर्षीय पाठ्यक्रमों का जो हश्र हुआ, सबके सामने है। इस सन्नाटे के भीतर बदलाव की सारी कवायद सरकार की देखरेख में हो रही है। केंद्र की नई सरकार का उच्च शिक्षा को लेकर कोई खाका अब तक सामने नहीं आया है। मानव संसाधन विकास मंत्री के साथ कुलपति की जो बैठकें हुई हैं और जो सूचनाएं प्रकाशित हुई हैं, वे सब पिछली सरकार की योजना के अनुरूप ही हैं। तकरीबन चीजें उसी दिशा में बढ़ती नजर आ रही हैं। फिर प्रश्न है कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने जो सुधार की पहल की, उस पर कुठाराघात क्यों?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आम चुनाव के दौरान और सरकार गठन के बाद भी स्किल डेवलपमेंट की बात करते रहे। जबकि बारहवीं पंचवर्षीय योजना की प्रस्तावना में इसका साफ उल्लेख है। क्या यह विचार पूरी तरह नरेंद्र मोदी का है या उधार लिया हुआ है। बहरहाल, यह विचारणीय है कि अगर चारवर्षीय पाठ्यक्रम के अंतर्गत फाउंडेशन कोर्स स्किल डेवलपमेंट की कसौटी और शर्तों पर खरा उतरने की स्थिति में नहीं था, तो उसमें सुधार किया जाना था या उसका विकल्प ढूंढ़ना था।
आखिर निरस्त करने का हासिल क्या है? आखिर वार्षिक अध्ययन पद्धति के उस पाठ्यक्रम का क्या करें, जो जबरन तीन वर्ष पूर्व सेमेस्टर प्रणाली पर विरोध और आंदोलन की स्थिति में थोप दिया गया था? क्या सेमेस्टर के पाठ्यक्रमों के लिए गहन चर्चा और बदलाव की जरूरत नहीं थी? क्या यह सच नहीं है कि बदलाव का सिर्फ विरोध कर हम शिक्षा और समाज को पीछे ढकेल रहे हैं। क्या शिक्षक संगठनों, शिक्षाविदों के समूहों के पास कोई ऐसा खाका है, जिसे सामने रखा जा सके? विकल्प के तौर पर पेश करने में क्या हर्ज है?
इस पर पुनर्विचार होना चाहिए कि मोदी सरकार जिसे ‘स्किल डेवलपमेंट’ कहने की कोशिश कर रही है और उसे पाठ्यक्रमों से जोड़ने की बात चल रही है उसके निहितार्थ क्या हैं? उद्योग, बाजार और कॉरपोरेट जगत की जरूरतों, शर्तों और मापदंडों को पूरा करने का हुनर, कौशल, प्रशिक्षण और इसकी प्राप्ति के साथ ही रोजगार की गारंटी। लेकिन क्या हमारे विश्वविद्यालयों-कॉलेजों के पास ऐसी आधारभूत संरचना, पाठ्यक्रम और संसाधन हैं? क्या उद्योग या बाजार से जुड़े बगैर यह संभव है? क्या यह ‘पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप’ की दिशा में आगे बढ़ना नहीं है? फिर दोनों सरकारों के बुनियादी सोच और पहल में क्या अंतर है?
तात्त्विक और नीतिगत रूप से दोनों में कोई विरोध नहीं है। इसे पूरी तरह खारिज करने से पहले इसके विकल्पों पर सोचना चाहिए था। एक विकल्प यह हो सकता था कि परंपरागत रूप से विकसित लघु और कुटीर उद्योगों से संबंधित प्रशिक्षण, कौशल की भी व्यवस्था होती और पाठ्यक्रमों में उसे शामिल कर उसका आधुनिकीकरण किया जाता। उसे अत्याधुनिक तकनीक से जोड़ कर नई शक्ल में ढालने की जरूरत थी, ताकि परंपरागत पेशे से भागने वाले युवा इसके हिस्सेदार बनें और ज्यादा से ज्यादा रोजगार का सृजन हो सके। यह समाज में उपलब्ध संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल का जरिया होता। भारत की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक गतिविधियों को इससे ज्यादा ताकत मिलती।
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