तरुण विजय
घृणा, विद्वेष और घनीभूत ईर्ष्या के बिना क्या राजनीति हो सकती है? उत्तर प्रदेश में जब पचास के दशक में जनसंघ की हार के बावजूद पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा- ‘हम जीत गए’ तो स्तब्ध कार्यकर्ताओं को उन्होंने समझाया- भाई, जो भी जीता, है तो आखिर भारतीय ही।
इससे तो लगता है विद्वेष और कटुता के बिना भी राजनीति की जा सकती है।
भाई कुमार विश्वास ने ‘जनसत्ता’ के मेरे पिछले स्तंभ पर कहीं से फोन नंबर लेकर बधाई दी, और चुपके से नहीं, ट्वीट करके। बहुत अच्छा लगा। उनकी कविताओं और भाई मुनव्वर राना की हृदय को झकझोर देने वाली पंक्तियों का मैं कायल रहा हूं। इतना अवकाश तो होना ही चाहिए कि बाकी तमाम विषयों पर असहमति के बावजूद आत्मीयता का निश्छल छंद कहीं, थोड़ा-सा ही सही, बचा रहे। बस प्रभु अहंकार न दे। व्यक्ति बड़े धन से धनपति नहीं होता, विनय आ जाए तो कुबेरपति हो जाता है। कुमार विश्वास को जन्मदिन की ढेरों बधाइयां, और जीत की भी बधाई। क्या जीत पाई भाई!
कांग्रेस, कम्युनिस्ट और अन्य उन दलों में, जिनके विरुद्ध बोल-बोल कर, लिख-लिख कर हम थकते नहीं, अच्छे, विनम्र और सज्जन स्वभाव के इतने लोग मिले कि उनके पास जाकर बैठने, बात करने का हमेशा मन रहा। भानुजी का स्वभाव ऐसा था कि उन सभी दलों में, जिनके विरुद्ध हम संपादकीय लिखते थे, उनके मित्र थे। यह उस समय की बात है जब दिग्गज कम्युनिस्ट नेता सी. राजेश्वर राव से मैं पांचजन्य के लिए इंटरव्यू करने गया था- वह छपा भी और एक शब्द भी ऐसा नहीं था, जिस पर वरिष्ठ कम्युनिस्ट महासचिव को आपत्ति होती।
हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस महामंत्री के नाते इंदिराजी के समय इंटरव्यू दिया, टेप चलता रहा, पर रिकार्ड नहीं दबा, लंबा इंटरव्यू था, कैसेट में कुछ आया ही नहीं। मैं घबरा गया।
फोन किया। बोले, डरो मत, आ जाओ। उन्होंने दुबारा उन्हीं सवालों के जवाब दिए, ऐसी सौजन्यता आज कहीं मिलेगी?
पर अब दीवारें बड़ी गहरी होती दिखती हैं। आपस में ही अनौपचारिक मिलना-जुलना, सुख-दुख बांटना संभव नहीं होता, तो दीवारें लांघ कर कौन जाए? जाए भी तो डरा-सा रहता है कि मुसीबत गले पड़ जाएगी। कुछ साल पहले कराची से जंग अखबार के संपादक महमूद शाम दिल्ली आए तो मैंने उन्हें संघ कार्यालय आमंत्रित किया। तब सुदर्शनजी सर संघचालक थे।
उनके साथ भोजन हुआ। चलते हुए उन्होंने एक शेर सुनाया- ‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों।’ बड़ा सटीक था। विरोध करना, असहमति रखना तो स्वाभाविक है। लेकिन हम सरहद पार के शत्रुओं से कदाचित ज्यादा व्यवहार कुशल सौजन्यता दिखा जाते हैं, बनिस्बत अपने ही राष्ट्रीय, सामाजिक हम-नस्ल, हम-वतन सहोदरों के।
हमारे सामने वाली पार्टी के कई मित्र गाहे-बगाहे अपना दर्द बताते रहते थे। जब दूसरे, तीसरे स्तर के नेता भी संसद में उनकी बेंचों के बीच बने गलियारे से गुजरते तो वे हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते और वे जब तक बाहर के दरवाजे से निर्गत नहीं हो जाते, उसी दिशा में घूमते हुए उनकी नजरें अपनी ओर मोड़ने का प्रयास करते। पर वे अपनी ही धुन में चलते जाते और ये सांसदगण मायूस होकर यह सोचते हुए बैठ जाते कि शायद अगली बार वे मेरी ओर देखेंगे।
देख भर लीजिए, इतने मात्र से जो उपकृत हो जाते हैं, उनको आत्मीय दृष्टि का सुख तक जो नहीं देते, वे उनसे पार्टी के लिए जान देने की अपेक्षा करते हैं।
यति भैया होते तो जोरदार कुछ सुनाते। यति भैया, यानी यतींद्र जीत सिंह। सिर्फ अड़तालीस की उम्र में उनका ऐसे अवसान हुआ मानो अभी-अभी यहीं थे, अभी-अभी चले गए।
उत्तर प्रदेश में एक बड़े मंत्रीजी के यहां गए। कनपुरिया भाषा में बताए कि मंत्रीजी के आठ-दस गिरोहबाज लटक पसरे हुए थे। एक अधिकारी की बदमिजाजी और निर्लज्ज पैसा कमाऊजिदों की शिकायत की तो मंत्रीजी यों देखे कि काहे वक्त खराब कर रहे हो! यह भी कोई शिकायत करने का विषय है। पर कोई कारण रहा होगा, सो सुन लिया- बोला- ठीक है, मैं तुरंत कुछ करता हूं। ऐसा कैसे चलेगा? हम सहन नहीं करेंगे। आपको तो सब जानते ही हैं। बाद में क्या हुआ? मंत्रीजी ने कहलवाया- उस अधिकारी से माफी मांग कर मामला रफा-दफा कर दो।
धन होना चाहिए- बाकी सब अपने आप ‘सेट’ हो जाता है। सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ति! धन सब गुणों की खान है। अरबपति लोग देश, पार्टी, विचार, धन- सब डुबाते जाएं, तो भी वे वंदनीय, पूजनीय, चरण-स्पर्श योग्य बने ही रहते हैं? कांग्रेस में ऐसा ही हुआ। कभी देखा है इन बड़े लोगों के पांव छूने वालों की कतारों का दृश्य? नेताजी चैया पीते रहेंगे, बतियाते रहेंगे, पान पीकदान में थूकते रहेंगे, बेचारी रियाया, परजा, स्वार्थ और कामनाओं की पूर्ति की अंध इच्छाओं से गतिमान होने वाले जनपदीय नागरिक, फूल, फूलों के महंगे गुच्छे, महंगी मार्बल की मूर्तियां सर के चरणों में रखते हुए, पांव छूते हुए किनारे की ओर धसकते जाएंगे। अधरों पर वह एक वाक्य रेडीमेड धरा रहेगा, जो सर के आपकी ओर मुखातिब होते ही बोलना है- ‘वाह, वो लखनऊ, पटना, कोलकाता (या ऐसा ही कुछ) वाला आपका बयान तो सर एकदम मिसाइल था, मिसाइल। लोटन राम का तो सिंहासन डोल गया। छुट््टन भैया बोल रहे थे कि जरा सर से कह दें इतना कठोर बयान न दिया करें।’
सर प्रसन्न। अरे कठोर? हम तो फिर भी नरमाई से बोले। गलत काम करेंगे और सोचेंगे हम छमा करेंगे? हुंह? सर वो हमरा काम बाकी था… बस लाइन जुड़ गई। ड्रग माफिया, बिल्डर गिरोह, खान मालिक, सब सेक्युलर सरकार के लटक होते हैं। दरबार है। देश दुकान है। ठीक रेट दोगे तो सौदा पट जाएगा, वरना कानून अपना दास ही तो है।
हे प्रभु! जो घर फूंके आपना, चलै हमारे साथ। ऐसा कहने वाले तो मर-मरा गए। अब तो तुम्हारा घर फूंक कर हम अपना चिराग रोशन करेंगे।
नफरत और ईर्ष्या का साथ होता तो 1925 में पांच स्वयंसेवकों को लेकर डॉ. हेडगेवार ने इतना बड़ा संसार न रचा होता। वे लोग जो दत्तोपंत ठेंगड़ी, यादवराव जोशी, हो.वे. शेषाद्रि, के. भास्कर राव को नहीं जानते, वे भारत को नहीं समझ पाएंगे। नुक्कड़ सभाओं और मीडिया कैमरों की चकाचौंध में तमाशे देश नहीं बनाते। इसलिए तनिक-सी हार से न जी छोटा करना होगा, न अपनों पर ही वार करने की संकीर्ण बुद्धि दिखानी होगी। जीते भी साथ में थे, जिस जीत ने सारी दुनिया को प्रभावित किया। जीतेंगे भी साथ में, जिस जीत के लिए उन लोगों ने अपनी हड्डियां गला दीं, जिनके नाम कभी पुरस्कारों की सूची में नहीं आएंगे। क्षणिक विजय के क्षणों में अपनों को पराया बनाना और क्षणिक हार के क्षणों में परायों को अपनों से बेहतर मान लेना मन की कमजोरी ही दिखाता है। हार का हालाहल तो पीना ही होगा, यदि शिव बनना है।
इस विराट देश की आशाओं, सपनों, यहां छाई गरीबी, तंगहाली, बीमारी और कुपोषण, क्या मंदिर-मस्जिद दूर करेंगे या मंदिर से पहले भूखे की भूख दूर करने का मन रखने वाले? क्या करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह फुटपाथ और रेल की पटरियों के इर्द-गिर्द जिंदगी जिएं और हम अपने-अपने भगवानों को करोड़ों रुपयों के घरों में रख उनके झंडे लिए झगड़े करें तो जन्नत, स्वर्ग, हैवन मिलेगा? फिर हम विवेकानंद, मार्टिन लूथर किंग को अपनी तकरीरों में शामिल करते रहेंगे?
देश कुछ वोटों की राजनीतिक दुकान, अहंकार और धन के बल से नहीं, बल्कि अपना अस्तित्व जन के साथ विलीन करने वाले सौजन्य से बनता और बचता है। चाहे चीन हो या अमेरिका, हर उन्नत देश के सिर्फ उस कार्यकर्ता और नेतृत्व ने शून्य से महाशक्ति बनने का सफर तय किया, जिसने अपने अहं, अपनी जीत-हार से बड़ा देश का अहं, देश की जीत-हार को माना। हम हार जाएं, तो क्या! देश नहीं हारना चाहिए।
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