कुलदीप कुमार

पेरिस में व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए आतंकी हमले के बाद हिंदुत्व की प्रयोगशाला चलाने वालों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण लगने लगी है और वे असहमति से लोकतांत्रिक ढंग से निपटने की जरूरत को स्वीकार करने लगे हैं। उनके जाने-माने प्रतिनिधि तरुण विजय ने गत रविवार इसी जगह छपे अपने स्तंभ में लिखा है: ‘‘असहमति है तो आप शास्त्रार्थ कर लीजिए, वाद-विवाद कर लीजिए, अपनी बौद्धिक क्षमता का परिचय देते हुए उसे परास्त करिए, जिसे आप गलत मानते हैं या खुद पराजय स्वीकार कर लीजिए।’’ उनकी इस बात से मेरी पूर्ण सहमति है। लोकतंत्र में भिन्न विचारों से निपटने का यही एकमात्र तरीका है। लेकिन क्या इसे अपनाया भी जाता है?

रामायण के विभिन्न रूपों के बारे में एके रामानुजन के निबंध से असहमत हिंदुत्ववादियों ने तो यह तरीका नहीं अपनाया, न ही वेंडी डोनिगर की हिंदू धर्म के बारे में पुस्तक से असहमत दीनानाथ बतरा ने। न ही उन लोगों ने, जिन्होंने मकबूल फिदा हुसेन के खिलाफ देश के अनेक नगरों की अदालतों में मुकदमे दायर किए और उनके चित्रों की प्रदर्शनी में तोड़फोड़ की। और भी कई कलाकारों की प्रदर्शनियां ध्वस्त की गई हैं। ऐसा करने वाले सिर्फ हिंदुत्ववादी हों, ऐसा नहीं है। अन्य धर्मों का झंडा बुलंद करने वाले सांप्रदायिक व्यक्ति और संगठन भी अक्सर ऐसा ही आचरण करते देखे जाते हैं।

दरअसल, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ इन लोगों की नजर में उतना और वैसा ही बोलने की आजादी है, जिससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत न हों। इस मामले में निश्चय ही आज स्थिति पहले से काफी बदतर है। उन्होंने चार्वाक का उल्लेख करते हुए कहा है कि भिन्न मत रखने के बावजूद उन्हें ऋषिपद दिया गया। मेरा सवाल सिर्फ यह है कि अगर आज चार्वाक हमारे बीच होते तो भी क्या उन्हें यह सम्मान मिलता? बहुत संभव है कि उन पर अनेक मुकदमे चल रहे होते, क्योंकि उनकी वेदनिंदा से निश्चित रूप से हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं आहत होतीं।

तरुण विजय को स्वामी दयानंद की भी याद आई है, लेकिन सिर्फ एक विशेष संदर्भ में। मुलाहिजा हो: ‘‘यह भी भुला दिया जाता है कि अगर पिछली शताब्दी में किसी ने सबसे पहले हिंदुओं पर हो रहे जिहादी और ईसाई मतांतरण के विरोध में आवाज उठाई थी और मतांतरित हो चुके हिंदुओं को वापस घर लौटाने का शुद्धिकरण आंदोलन शुरू किया था, तो वे स्वामी दयानंद थे, जिन्होंने स्पष्ट रूप से ‘सत्यार्थ प्रकाश’ द्वारा हिंदू समाज की रक्षा का अपना मंतव्य जाहिर किया और देश को सर्वश्रेष्ठ स्वतंत्रता सेनानी दिए।’’ पहली बात तो यह कि स्वामी दयानंद पिछली शताब्दी में नहीं, उससे पिछली यानी उन्नीसवीं शताब्दी में थे। शुद्धि आंदोलन उन्होंने नहीं, उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानंद ने बीसवीं शताब्दी में चलाया था। 1920 के दशक में सांप्रदायिक तनाव बढ़ने के पीछे अनेक कारण थे, जिनमें शुद्धि आंदोलन भी एक प्रमुख कारण था। इसी के कारण स्वामी श्रद्धानंद की एक मुसलिम युवक ने हत्या कर दी थी, क्योंकि उसकी धार्मिक भावनाएं ‘आहत’ हो गई थीं।

‘शुद्धि’ की अवधारणा स्वामी दयानंद की ही थी। उनके समय में जो हिंदू समुद्री यात्रा कर लेता था, उसे स्वदेश लौटने के बाद कट्टरपंथी ब्राह्मणों के दबाव में अपनी ‘शुद्धि’ करवानी पड़ती थी, और इसके बाद ही उसे हिंदू समाज में शामिल किया जाता था। स्वामी दयानंद ने पंजाब में कुछ व्यक्तियों को ईसाई बनने से विरत किया और कुछ को फिर हिंदू बनाया। लेकिन उन्होंने यह काम तभी किया जब कोई व्यक्ति स्वयं उनके पास आया या जिसके बारे में उन्हें सूचना दी गई। इसके लिए उन्होंने किसी प्रकार का सुनियोजित अभियान या आंदोलन नहीं छेड़ा। फिर भी जब ईसाइयों ने घबरा कर उनका विरोध किया, तो उन्होंने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। अमृतसर में रेवरेंड वेयरिंग ने अपने प्रमुख शिष्य पंडित खानसिंह को, जो कुछ ही वर्ष पहले ईसाई बने थे, स्वामी दयानंद के खिलाफ शास्त्रार्थ के लिए मैदान में उतारा। लेकिन पंडित खानसिंह स्वामी दयानंद के तर्कों के सामने निरुत्तर हो गए और ईसाई धर्म छोड़ कर फिर आर्यसमाज के सदस्य बन गए।

स्वामी दयानंद ने सामूहिक रूप से ‘शुद्धि’ यानी धर्मांतरण का अभियान नहीं छेड़ा। जब भी सामूहिक रूप से धर्मांतरण होता है, उसके कारण तनाव पैदा होता है, क्योंकि धर्म एक निजी मामला है, सामूहिक नहीं। सामूहिक होते ही वह राजनीतिक भी हो जाता है और तनाव पैदा करने का कारण बनता है। 1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में सामाजिक उत्पीड़न के कारण तीन सौ दलित परिवार एक साथ मुसलमान बन गए थे। इसके बाद आर्यसमाज ने वहां स्कूल वगैरह खोले, लेकिन उनकी ‘शुद्धि’ के प्रयास विफल ही रहे, क्योंकि उन्हें मुसलमान बनने के लिए किसी और ने नहीं, उनके गांव के तेवर जाति के लोगों द्वारा ढाए जाने वाले जुल्मों ने मजबूर किया था। आज भी हिंदू धर्म के स्वयंभू रक्षक यह बुनियादी सच्चाई समझने को तैयार नहीं हैं कि कुछेक अपवादों के अलावा अधिकतर हिंदू अपनी इच्छा से धर्म बदलते हैं, क्योंकि जाति-आधारित उत्पीड़न आज भी जारी है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाएं आहत होने के मामले में किसी को स्वामी दयानंद की याद नहीं आती, जो कुंभ के मेले में जाकर निर्भीक भाव से अपनी ‘पाखंड-खंडिनि पताका’ फहराते थे और वैदिक मत के अलावा हर मत की खुलेआम आलोचना करते थे। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का ग्यारहवां समुल्लास पूरी तरह हिंदू धर्म में मौजूद हर मत के खंडन को समर्पित है। दयानंद पाखंडियों के लिए ‘पोप’ शब्द का इस्तेमाल करते थे, जिसकी परिभाषा उन्होंने इन शब्दों में की है: ‘‘छल-कपट से दूसरों को ठग कर अपना प्रयोजन साधने वाले को ‘पोप’ कहते हैं।’’ जिन संतों, महंतों, महामंडलेश्वरों और मठाधीशों को इकट््ठा करके हिंदुत्ववादियों ने रामजन्मभूमि आंदोलन चलाया था, वे सब स्वामी दयानंद के अनुसार ‘पोप’ ही हैं।

दयानंद मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे। उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज में किसी भी जाति का व्यक्ति यज्ञ करने का अधिकारी था। उन्हें हर किस्म के पाखंड से घृणा थी, वे उसके खिलाफ खुल कर बोलते और लिखते थे। उन्होंने दलितों को वेद पढ़ाने, खान-पान में छुआछूत न मानने, स्त्रियों को शिक्षा देने और विधवाओं की समस्याओं को समझ कर सुलझाने की जोरदार हिमायत की थी। वे तो बड़ी उम्र की विधवाओं के लिए नियोग की वकालत भी करते थे। यह अलग बात है कि आर्यसमाजी अक्सर इसकी जगह विधवा विवाह की बात किया करते थे। उन्होंने तो कभी इस बात की परवाह नहीं की कि सनातनी हिंदुओं की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हैं या नहीं।

स्वामी दयानंद ने सभी प्रमुख धर्मों और मतों की सख्त आलोचना की, चाहे वे वैष्णव, शैव, शाक्त, तांत्रिक, कबीरपंथी, सिख, जैन, बौद्ध, स्वामी नारायण, ईसाइयत और इस्लाम ही क्यों न हों। फिर आज इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में स्वाधीन भारत के नागरिकों से क्यों यह मांग की जा रही है कि वे स्वेच्छा से अपनी आवाज दबा लें, वरना उसे हिंसक तौर-तरीकों से दबा दिया जाएगा?

आज स्थिति यह है कि वेंडी डोनिगर, रामानुजन और ‘पीके’ पर प्रतिबंध चाहने वालों को तसलीमा नसरीन और सलमान रुश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो प्रिय है, लेकिन मकबूल फिदा हुसेन की! अगर ये लोग ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ लें तो उस पर भी प्रतिबंध लगाने की मांग करने लगेंगे। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष कहते हैं कि महाभारत और रामायण की घटनाएं ठीक वैसे ही घटित हुई थीं जैसे वर्णित की गई हैं, जबकि स्वामी दयानंद ने उपहास करते हुए लिखा है: ‘‘व्यासजी ने चार सहस्र चार सौ और उनके शिष्यों ने पांच सहस्र छह सौ अर्थात दस सहस्र श्लोकों के प्रमाण ‘भारत’ बनाया था। वह महाराज विक्रमादित्य के समय में बीस सहस्र, महाराज भोज कहते हैं कि मेरे पिता के समय में पच्चीस और मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त ‘महाभारत’ का पुस्तक मिलता है। जो ऐसे ही बढ़ता चला तो ‘महाभारत’ नाम का पुस्तक एक ऊंट का बोझा हो जाएगा और ऋषि-मुनियों के नाम से पुराणादिक ग्रंथ बनावेंगे।’’

यानी आज के इतिहासकारों की तरह ही स्वामी दयानंद भी मानते थे कि ‘महाभारत’ की रचना एक लंबी अवधि के दौरान हुई और उसका वर्तमान रूप, मूल रूप का अत्यधिक परिवर्धित रूप है। तो, बाद में जोड़े गए हिस्सों में वर्णित घटनाएं प्रामाणिक कैसे हैं? क्या यह सवाल उठाना करोड़ों हिंदुओं की आस्था का अपमान करना, उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करना है?

 

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