सुधीर चंद्र

आज खुशी का दिन है। जीत का दिन। अब तक की जिल्लत और बेचारगी को भुला, अच्छे दिन की उम्मीद का दिन। अभी नौ महीने भी नहीं हुए हैं जब कुछ इसी तरह की उम्मीद हुई थी आम नागरिक को। वह उम्मीद अंशत: भी पूरी हुई होती- आसार भी होते उसके पूरा होने के- तो आज की इस खुशी की न जरूरत होती, न संभावना बनती।
क्या होगा इस बार की उम्मीद का? थोड़ी-बहुत भी आम आदमी की जिंदगी में साकार होगी यह?

धर्मनिरपेक्षता के तमाम उदारवादी और वामपंथी समर्थकों के लिए नागवार हो सकता है मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत और आज हुई ‘आप’ की जीत का इस तरह साथ रखा जाना। विचारधारा को दरकिनार कर दें तो भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि आप में थोड़ी भी आदमीयत है तो गुजरात 2002 के बाद आप नरेंद्र मोदी के विरोधी ही हो सकते हैं। न ही आप स्वीकार कर सकते हैं उस राजनीतिक दल को, जो ऐसे आदमी को सत्ता के लालच में अपना नायक बना सकता है।

पर बात यहीं नहीं पूरी हो जाती। आपको यह भी सोचना होगा कि अगर अपने सारे भ्रष्टाचार, दंभ और निकम्मेपन के बाद भी यूपीए की सत्ता में वापसी हो जाती तो देश में लोकतंत्र का क्या होता। अपने हर कुकृत्य, अपनी बड़ी से बड़ी हेराफेरी के बाद ताल ठोंक कर अपने आलोचकों से यह कहने वाले कि चुनावों के बाद पता चल जाएगा कि जनता किसके साथ है, कौन-सी और नई हदें न पार करते, अगर फिर चुन लिए जाते?

जनता की आजिजी की हद ने 2014 में बचा लिया उन हदों के उभरने और उनके लांघे जाने को।

यूपीए के जवाल को 2009 के बाद से शुरू हुआ मानें तो कुछ साल लग गए थे मनमोहन सरकार- सोनिया सरकार?- को अपनी बरबादी को अनिवार्य बनाने में। धर्मनिरपेक्ष उदारवादी और वामपंथी अपने विचारधारात्मक और मानवीय पूर्वग्रहों से हट कर याद करें मई 2014 के मूड को। यह भी याद करें कि कितना अप्रत्याशित था वह चुनावी परिणाम। रातोंरात जनता ने गठबंधन की उस राजनीति को ठुकरा दिया था जो, लगने लगा था, केंद्रीय सरकार की विनाशकारी नियति बन गई है। (कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि मोदी की राजग सरकार केवल अपने स्वरूप में गठबंधनी सरकार है।)

कोई अचरज नहीं कि मई की वह उम्मीद चली कुछ महीने। अचरज यह है कि नौ महीने से कम में ही इस कदर चुक गई।
सुखद अचरज है यह। जन की जागरूकता का अचूक प्रमाण। प्रमाण कि आप की बात को गौर से सुनेंगे वह, यकीन करना चाहेंगे आपकी नीयत और आपके वादों पर, लेकिन तैयार भी रहेंगे आपको आपकी बेईमानी या निष्क्रियता के लिए सजा देने के लिए। और जितना ज्यादा आपको विश्वास मिलेगा उतनी ही बड़ी सजा होगी विश्वास के टूटने पर।

यही स्थिति विपक्ष का सफाया कर ‘आप’ को सत्ता में लाई है। और इसी स्थिति में तय होगा ‘आप’ का भविष्य। जो हमारा भी भविष्य है। जनतंत्र का भविष्य।

मैं पिछले वाक्य में प्रजातंत्र लिखने जा रहा था। पर लगा कुछ गलत होगा यह शब्द आज के संदर्भ में। भले ही प्रजातंत्र में भाव यह हो कि तंत्र प्रजा के हाथ में है, प्रजा का अर्थ बनता है शासक के संदर्भ में। एक तरफ प्रजा और दूसरी तरफ शासक वर्ग। यही संबंध प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे राजनीतिक जीवन का वास्तविक यथार्थ रहा है। पुराने ‘हुजूर-माई-बाप’ का परिष्कृत रूप।

‘आप’ सिद्धांतत: एक नई राजनीति का आगाज है। कुछ वैसी ही राजनीति, जो गांधी के मन में थी, लेकिन शिक्षित वर्ग के ‘परोपकारी’ आभिजात्य का शिकार हो गई। मार्गदर्शन और प्रबंधन की नहीं, साझेदारी की राजनीति। अपने पहले स्वतंत्रता दिवस वाले भाषण में मोदी ने अपने को देश का प्रधान सेवक कहा था। वह अंगरेजी के ‘प्राइम मिनिस्टर’ का शाब्दिक अनुवाद भर था। भाव कुछ और ही था। अरविंद केजरीवाल ने शायद इस तरह से अपना परिचय नहीं दिया है। जरूरत भी नहीं है। चूंकि ‘आप’ की जो राजनीति है- सिद्धांतत:- उसमें शासक नहीं, मुख्य सेवक ही हो सकता है चीफ मिनिस्टर। शासन सेवा से भिन्न नहीं हो सकता।

पर सिद्धांत- आदर्श- कब उतरे हैं पूरी तरह व्यवहार में? न ही उतारे जा सकते हैं व्यवहार में अगर जिद हो उनको एक साथ ही उनकी पूरी विशुद्धता में बरतने की। पग-पग पर तरह-तरह के दबावों में कुछ न कुछ समझौता करना ही पड़ता है। ‘आप’ को भी इस नई राजनीति को कारगर बनाने के लिए निरंतर आदर्श और व्यावहारिकता के बीच खासा नाजुक संतुलन बनाए रखना होगा।

अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के विवेक की निर्णायक भूमिका रहेगी इस नई राजनीति के भविष्य निर्धारण में। जो वादे ‘आप’ ने किए हैं वे स्पष्ट हैं। उनका सीधा संबंध आम आदमी की बुनियादी जरूरियात से है। न सिर्फ बिजली, पानी, सड़क और मकान की जरूरत, बल्कि भ्रष्टाचार से मुक्ति और बेखौफ हो इज्जत से जीने की इच्छा पूरी हो सकने की जरूरत भी। आजादी के अड़सठ साल बाद भी ये बुनियादी जरूरियात सही मायनों में सिर्फ अमीरों, असरदारों और सशक्तों को मयस्सर हैं। गरीबों से लेकर मध्यवर्गीय सामान्य नागरिक तक का जीवन और जो हो, बेखौफ और इज्जत का नहीं है।
आम आदमी की इन जरूरियात को भारतीय राजनीति के केंद्र में ले आना ही एक बड़ी उपलब्धि है ‘आप’ की। यही उपलब्धि एक बड़ी चुनौती भी है। और एक ऐसा खतरा, जिससे पार पाना दुष्कर होगा। कारण कि भरसक कोशिश करने के बाद भी ‘आप’ इन वादों को पूरा नहीं कर पाएगी। आंशिक सफलता ही हाथ लगेगी, पूरी लगन से काम करने के बावजूद।

जब ऐसा होगा तब न केवल ‘आप’ की असली परीक्षा होगी, उन लोगों का नागरिकबोध भी पता लगेगा, जिन्होंने आज पुरानी राजनीति करने वालों को धता बताई है। क्या उस वक्त वे, परिस्थितिजन्य व्यावहारिक संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए, वही साझेदारी निभाएंगे, जिसके बगैर इस नई राजनीति का आगाज नामुमकिन था?

साथ ही, उस वक्त से पहले ‘आप’ को सत्ता में लाने वाले ये लोग क्या इसी साझेदारी के तहत अपने तर्इं उस नागरिक दायित्व को निभाएंगे, जिसके बगैर- समाज के सहकार के बगैर- नई राजनीति सफल न हो पाएगी?

क्या होगा, क्या नहीं होगा, भविष्य बताएगा। अरविंद केजरीवाल और उनके साथी विवेक से काम करेंगे, प्रभुता के मद से बचे रहेंगे, दिल्ली सरकार को मिली सीमित शक्ति के सहारे अधिक से अधिक फल प्राप्ति कर सकेंगे, अपने विपक्षियों से तालमेल कर सकेंगे या संघर्ष में फंस जाएंगे, कुछ भी आज विश्वास से कह पाना मुश्किल है। यह और बात है कि भविष्य में- उम्मीद करें पूरे पांच साल बाद- जो कुछ भी हुआ होगा- या नहीं हुआ होगा, उसको हम, अतीत के परिप्रेक्ष्य में, अवश्यंभावी मान लेंगे।

अपनी बात खत्म करने से पहले एक बार और मैं नौ महीने पहले के माहौल को याद करना चाहूंगा। यूपीए की हार भले ही उस समय प्रजातंत्र की जीत लगी हो, मोदी की जीत से डर भी हुआ था। और बढ़ता ही गया था वह डर एक के बाद एक राज्य में फैलने वाली मोदी-लहर से। दिल्ली ने दूर कर दिया है वह डर। साथ ही प्रबंधन, जोड़तोड़ और दंदफंद की राजनीति को जो चुनौती दी है दिल्ली ने, उससे एक नई जान आ गई है हमारे लोकतंत्र में।

चूंकि ‘आप’ की जीत लोक की जीत है, ‘आप’ के सफल होने में लोक का हित है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, खुशी और उम्मीद के इस क्षण में, और यह मानते हुए भी कि आदर्श के लिए भी समझौते करने पड़ते हैं, यह कहना जरूरी है कि ‘आप’ ने शुरुआत ही एक ऐसी गलती से की है, जो उसके चरित्र से मेल नहीं खाती। अरविंद केजरीवाल कितनी ही शिद्दत से इस आरोप का खंडन करते रहे हों, निराधार नहीं है यह संदेह कि कुछ संदिग्ध व्यक्तियों को ‘आप’ ने अपना प्रत्याशी बनाया और अब वे लोग विधायक हैं। शिवजी की बरात एक मोहक प्रतीक हो सकता है, प्रभावी भी राजनीतिक वाक्युद्ध में। पर जानते-बूझते अवांछित तत्त्वों को दल में मान्यता देना देर-सबेर घातक होगा ही।

अब जबकि ऐसी अभूतपूर्व सफलता पाकर ‘आप’ सत्ता में आ गई है, बड़े-बड़े शातिर घुसना चाहेंगे दल में। भांति-भांति के फायदे भी होंगे उनको अपना बना कर। ‘आप’ को प्रलोभन होगा अपने महत् उद्देश्य के नाम में गलत साधन अपनाने का। अपने आप से ही सतर्क होना होगा ‘आप’ को। अपना अलग चरित्र बनाए रखने के लिए। वह चरित्र जो इसे उस आंदोलन से मिला है, जिससे इसका जन्म हुआ है।

 

 

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