देश के युवाओं में अपने भविष्य के प्रति चिंता लगातार बढ़ी है। पालकों और परिवारों में तनाव भी उसी परिमाण में बढ़ा है। लगभग सभी अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानते हैं कि जब भी बच्चे तनावग्रस्त होंगे, तो परिजन उनसे अधिक तनाव में आ जाएंगे। पिछले कुछ वर्षों से प्रवेश परीक्षाओं और प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार गड़बड़ी और धांधली की ऐसी घटनाएं हुई हैं, जो देश भर के युवाओं के मन-मस्तिष्क ही नहीं, सामान्य नागरिक के जीवन में भी व्यवस्था के प्रति अविश्वास और आशंकाएं लगातार बढ़ रही हैं। केवल नीट नहीं, संचार माध्यम बता रहे हैं कि, सत्तर ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। युवाओं से संबंधित अनेक समस्याओं की चर्चा जब भी होती है, यह अवश्य दोहराया जाता है कि छह-सात दशक पहले ऐसी समस्याएं नहीं थीं। यह सच है। जिन लोगों ने 1970 के पहले किसी विश्वविद्यालय से परीक्षा पास की हो, वे निश्चित रूप से बताएंगे कि सत्र नियमित ढंग से चलते थे, परिणाम समय पर आते थे, अपवाद स्वरूप अगर नकल के प्रकरण व्यक्तिगत स्तर पर पकड़े भी जाते थे तो नकल करनेवाले की ही नहीं, उसके परिवार की भी सामाजिक स्थिति रसातल में चली जाती थी।

देश के लोक सेवा आयोग तथा राज्यों के सेवा आयोगों पर युवाओं को पूर्ण विश्वास था। उनके अध्यक्ष और सदस्य राजनीतिक आधार पर नियुक्त नहीं होते थे। प्रतिभा, ईमानदारी तथा सामाजिक योगदान के लिए जाने जाते थे। पीढ़ियां बदलीं, सामाजिकता बदली, पश्चिम की सभ्यता की चकाचौंध में व्यक्ति तथा समाज की सोच ने नए आयाम ग्रहण किए। अगर पिछले तीस वर्षों में केवल कुछ बड़े राज्यों के विभिन्न नियुक्ति आयोगों की सदस्यता तथा उनकी सुयोग्यता का अध्ययन किया जाए तो आंख खोलने वाले तथ्य सामने आएंगे। परीक्षा व्यवस्था के नियोजन और आयोजन के लिए शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का केवल तबादला होता, या उनको मुअत्तल कर दिया जाता है, जिसका न तो कोई महत्त्व होता है और न ही ऐसे लोगों के ‘करिअर’ पर कोई आंच आती है। राजस्थान में एक विश्वविद्यालय ने तैंतालीस हजार फर्जी डिग्रियां कुछ वर्षों के अंतराल में बांट दी।

क्या ऐसा केवल अक्षमता के कारण होता है? ऐसा नहीं माना जा सकता। इसका कारण केवल स्वार्थ लिप्सा, अकूत धन संग्रहण की लालसा तथा देश की न्याय व्यवस्था की निर्मम शिथिलता के कारण ही संभव होता रहा है। अगर ऐसा न होता तो ऐसी खबरें कैसे आतीं कि जिस माफिया ने इस बार परीक्षा पत्र बेचे थे, वह ऐसा पहले भी एक से अधिक बार कर चुका है! ऐसा वर्षों से चल रहा है। न पुलिस सुधार होते हैं, न न्याय व्यवस्था अपने को व्यवस्थित करने का कोई प्रयास करती है। अगर जनता के चयनित प्रतिनिधिओं को- अपवाद छोड़कर- लोक की चिंता होती, या कर्तव्यबोध उनकी प्राथमिकता होती, तो यह स्थिति बहुत पहले सुधार चुकी होती।

पश्चिम के प्रभाव और उसके साथ वैश्वीकरण की चकाचौंध में हम भारतीय संस्कृति की मूल भावना से दूर होते गए। देश में साक्षरता बढ़ी, 18 फीसद से हम 80 फीसद के आसपास आ गए, वह भी जब जनसंख्या 40 करोड़ से 140 करोड़ हो गई। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। मगर शिक्षा व्यवस्था भूल गई की ‘विद्या ददाति विनयम्’ का दर्शन इसी बीच कहीं खो गया। व्यक्ति समाज के लिए सुपात्र तभी बनता है जब उसमें वियनशीलता लगातार बढ़ रही हो! हमारे पास ऐसा कोई प्रावधान कहीं नहीं है, जिसके तहत सरकारी नौकरियों में सुपात्रता के लिए वियनयशीलता का भी मूल्यांकन होता हो!

केवल धनसंग्रह से सुख नही मिलता, धन और सुख के बीच कुछ और भी आवश्यक है, और वह है धर्म या सही आचरण। व्यक्ति का पंथ/आस्था कोई भी हो, धर्म सभी के लिए समान है; राजधर्म, राष्ट्रधर्म, सेवाधर्म सभी के लिए प्रकृति तथा मानवता के प्रति उत्तरदायित्व निर्वहन के लिए आवश्यक है। अगर स्वतंत्रता के पश्चात देश की भावी पीढ़ी को इस ‘सद आचरण या धर्म’ को आत्मसात करने का अवसर प्रदान किया गया होता तो आज देश के लाखों युवा व्यथित न होते, एक बड़ा अधिकारीवर्ग अपने सामाजिक तथा नैतिक उत्तरदायित्व से मुंह न मोड़ चुका होता।

1932 में कार्ल वाशबर्न ने ‘रिमेकिंग आफ मैनकाइंड’ नाम की अपनी पुस्तक में गांधीजी से अपनी भेंट का वर्णन लिखा है। उनका प्रश्न था कि स्वतंत्र भारत के समक्ष सबसे बड़ी समस्या या चुनौती क्या होगी? जो उत्तर आया उसकी कल्पना भी शायद वाशबर्न या किसी भी अन्य ने शायद कभी न की होगी। उत्तर था- चरित्र निर्माण! इसी कथा में एक और प्रकरण पहली बार सुना था। एक ईसाई मिसनरी डाक्टर मोटे ने गांधीजी से पूछा था कि स्वतंत्र भारत के लिए उनकी सबसे बड़ी चिंता क्या है। गांधीजी ने प्रश्न दोहराया और फिर कहा- पढ़े-लिखे और प्रबुद्ध लोगों की बेरुखी! स्वतंत्रता के पश्चात अगर नीति निर्धारकों ने ये दो शब्द- चिंता और चुनौती- गांधी की निगाहों से देखे होते तो शायद चरित्र निर्माण और प्रबुद्ध वर्ग की सतर्कता बढ़ाने को नीतियों में आवश्यक प्राथमिकता मिल गई होती।