एक अर्थशास्त्री के बारे में तीखी टिप्पणी करते हुए एक दफा डॉ जगदीश भगवती ने कहा था, ‘‘अगर वह अर्थशास्त्री हैं तो मैं एक भरतनाट्यम नर्तक हूं!’’

डॉ अरविंद पानगड़िया एक इज्जतदार शख्स हैं। उनके पास एक अहम काम है, पर उनके पास नीति आयोग नाम का जो औजार है वह किसी काम का नहीं है। नीति आयोग को न तो मतभेदों को सुलझाने में निर्णायक मध्यस्थता और धनराशि आबंटन का अधिकार हासिल है और न ही यह नए खयालों तथा व्यवस्थित बदलावों का स्रोत है। नीति आयोग एक वीरान और करीब-करीब बिसरा दिया गया क्षेत्र है।

डॉ पानगड़िया की हताशा हाल में एक अखबार में छपे उनके लेख में देखी जा सकती है। अलबत्ता उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी बात रखी है, इस नोट के साथ कि ‘ये विचार व्यक्तिगत हैं और इन्हें सरकार या नीति आयोग से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए’!

हैरतनाक बयान

अपनी निराशा जाहिर करते हुए डॉ पानगड़िया ने कुछ चौंकाने वाली बातें कही हैं। यहां कुछ उद्धरण:
*मई 2004 में, (राजग से) यूपीए को जो अर्थव्यवस्था मिली थी उसने उससे पहले के पूरे साल में 8.1 फीसद की वृद्धि दर दर्ज की थी;

*यूपीए-1के दौरान औसत वृद्धि दर 8.4 फीसद रही। इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं है कि उस दौरान ऐसा क्या हुआ था जिसने यह उपलब्धि दिलाई…आप पाएंगे कि कुछ सुधार के कदम थे जिनकी बदौलत यह उपलब्धि हासिल हुई थी;

*आर्थिक सुधार की जो प्रक्रिया प्रधानमंत्री राव ने शुरू की थी और जिसे प्रधानमंत्री वाजपेयी ने आगे बढ़ाया वह यूपीए के शासनकाल में अचानक रुक गई;

*नतीजा यह हुआ कि जो अर्थव्यवस्था एक समय सरपट दौड़ती लग रही थी और यूपीए-2 के दरम्यान पहले तीन वर्षों में जिसकी औसत वृद्धि दर 8.1 फीसद रही थी, वह लुढ़क कर ऐसी जगह जा पहुंची कि संकट में फंसी नजर आने लगी।

इस तरह के क्षतिकारक और नितांत गलत बयान देने के बाद डॉ पानगड़िया इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘‘मई 2014 से काफी नीतिगत परिवर्तन हुआ है और भारत अब 8.3 फीसद की चमत्कारी वृद्धि दर की तरफ लौटने ही वाला है जो उसने 2003-04 से 2011-12 के दौरान हासिल की थी।’’

राजग और यूपीए का रिकॉर्ड

जब मई 2004 में यूपीए के हाथ में सत्ता आई, अर्थव्यवस्था 8.1 फीसद की रफ्तार से नहीं बढ़ रही थी। कोई भी तार्किक ढंग से सोचेगा तो वृद्धि दर का रुझान जानने या दर्शाने के लिए सिर्फ एक खास वर्ष को नहीं चुनेगा। राजग के उन वर्षों में वृद्धि दर इस प्रकार थी: 1999-00 में 7.6 फीसद, 2000-01 में 4.3, 2001-02 में 5.5, 2002-03 में 4.0, 2003-04 में 8.1

इस तरह पांच साल का औसत 5.9 फीसद था। 2003-04 में जो ‘उछाल’ दिखा था, उसकी वजहपिछले साल में (वृद्धि दर का) आधार नीचा रहने तथा पहले के तीन साल में औसत से कम वृद्धि दर की पृष्ठभूमि में थी।

हरेक टिप्पणीकार ने यह स्वीकार किया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के सबसे बेहतरीन वर्ष (मौजूदा मुख्य आर्थिक सलाहकार के मुताबिक ‘उछाल के वर्ष’) 2004 से 2009 के थे, जो कि यूपीए-1 का कार्यकाल था। भारत की अर्थव्यवस्था ऊंची लहर पर सवार थी, जब सितंबर 2008 में, विश्व की अर्थव्यवस्था एक भारी वित्तीय संकट में फंस गई थी। इस संकट के बावजूद, जिसने कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को अपना शिकार बनाया, भारत ने 2008-09 में 6.7 फीसद की वृद्धि दर दर्ज की, और पांच साल की औसत वृद्धि दर 8.4 फीसद थी, जो कि उम्मीद से भी ज्यादा थी। मुझे हैरानी है कि डॉ पानगड़िया ने उस संकट को याद नहीं किया है, क्योंकि उनके लेख में इसका कोई जिक्र नहीं है।

डॉ पानगड़िया कहते हैं कि यूपीए-1 के दौरान शानदार उपलब्धि का कारण वे सुधार के कुछ कदमों में देखते हैं। ‘आर्थिक सुधार क्या हैं, क्या नहीं’ शीर्षक से लिखे अपने स्तंभ (जनसत्ता, 29 नवंबर, 2015) में मैंने सुधार के ऐसे ग्यारह कदमों को सूचीबद्ध किया था जिन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था की प्रकृति बदल कर रख दी। उनमें से एक कदम वाजपेयी सरकार के दौरान और तीन यूपीए सरकार के दौरान उठाए गए थे। इस सूची में वे बदलाव और उपाय भी जोड़े जा सकते हैं जिनसे देश को व्यापक सामाजिक-आर्थिक लाभ हुए, मसलन मनरेगा, सूचना अधिकार कानून और राष्ट्रीय (नई) पेंशन व्यवस्था। इसमें पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लिए सत्ताईस फीसद आरक्षण और स्वास्थ्य तथा शिक्षा के मदों में साल-दर-साल आबंटनों में हुई बढ़ोतरी को भी जोड़ दें। यूपीए का रिकॉर्ड शानदार है।

हर लिहाज से 2007-08 सबसे बेहतरीन साल था। 2008 के संकट के बाद भारत को एक मुश्किल चुनाव करना था। क्या हम राजकोषीय मजबूती के रास्ते पर डटे रहें और बुनियादी कारकों के सहारे वृद्धि को गति दें? या हम तय एजेंडे के हिसाब से चलें और ऊंची वृद्धि दर बनाए रखने के लिए ठहर गई अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन-लाभ दें? सरकार ने एक के बाद एक तीन प्रोत्साहन-पैकेज देना तय किया। परिणाम यह हुआ कि तीन साल के लिए ऊंची वृद्धि दर सुनिश्चित हो गई, लेकिन राजकोषीय घाटा, चालू खाते का घाटा और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर, ये सब तय सीमा से एकदम बाहर चले गए।

यूपीए-2 के आखिरी दो साल (2012-13 और 2013-14) अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने में गए। इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली: राजकोषीय घाटा 2011-12 के 5.73 फीसद से 2013-14 में 4.43 फीसद पर आ गया, और इसी अवधि में चालू खाते का घाटा 78 अरब डॉलर से 32 अरब डॉलर पर आ गया। नवंबर 2013 से महंगाई में कमी आने लगी। हालांकि वृद्धि दर फीकी रही, 4.47 फीसद और 4.74 फीसद। राजग सरकार द्वारा किए गएसंशोधित आकलन के मुताबिक यह वृद्धि दर 5.1 फीसद और 6.9 फीसद थी।

वृद्धि दर पर संशय

क्या डॉ पानगड़िया को 6.9 फीसद के संशोधित अनुमान पर यकीन नहीं है? अगर उनको अपनी ही सरकार के आंकड़े पर भरोसा नहीं है, तो वे कैसे यह दावा करते हैं कि वृद्धि दर बढ़ कर 2014-15 में 7.2 फीसद और 2015-16 में 7.6 फीसद हो गई?

आखिरकार, वह ‘काफी नीतिगत परिवर्तन’ क्या है, जिसकी ओर डॉ पानगड़िया ने इशारा किया है? उन्होंने मौजूदा सरकार के समय में हुए ऐसे एक भी बड़े सुधार का जिक्र नहीं किया है जिससे वृद्धि दर तेज होगी। अर्थव्यवस्था अनिश्चितता के साए में है: रोजगार के नए अवसर सृजित नहीं हो रहे हैं, निर्यात क्षेत्र रसातल में है, ऋण-वृद्धि दर बहुत फीकी है, घरेलू बचत लुढ़क गई है, और निजी क्षेत्र नए निवेश करने में हिचकिचा रहा है।

डॉ पानगड़िया मुझे माफ करें, पर मैं कहना चाहता हूं कि एक भरतनाट्यम नर्तक अर्थव्यवस्था की हालत को बेहतर समझा सकता है।