राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच और विचारधारा में आस्था रखने वाले राकेश सिन्हा उन थोड़े-से लोगों में हैं जो यथाशक्ति अपनी बातों को तर्कपूर्ण ढंग से रखने की कोशिश करते हैं। इस प्रक्रिया में वे न सिर्फ वामपंथी और नेहरूवादी बौद्धिकता से तीखी मुठभेड़ करते हैं बल्कि संघ विमर्श की एक अलहदा जमीन भी तैयार करते हैं। हाल ही में प्रकाशित उनकी दो पुस्तकों- ‘संघ और राजनीति’ तथा ‘राजनीति और धर्मनिरपेक्षता’- को एक वैकल्पिक संघ विमर्श की प्रस्तावना के तौर पर देखा जाना चाहिए। इन पुस्तकों में पिछले डेढ़ दशक के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में लिखे गए उनके लेख संकलित हैं। हालांकि लेख-संग्रह होते हुए भी ये दोनों पुस्तकें अपनी संपूर्णता में स्वतंत्र वैचारिक पुस्तक का बोध कराती हैं।
राकेश सिन्हा अपने लेखों के माध्यम से इस बात का कड़ा प्रतिवाद करते हैं कि आरएसएस सांप्रदायिक, मुसलिम विरोधी एक दक्षिणपंथी संगठन है। ‘अल्पसंख्यकवादी मानसिकता व संघ’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं, ‘‘जो सवाल पूछा जाना चाहिए वह यह नहीं है कि संघ खतरनाक है या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि वह कौन-सी बात है जो संघ की विचारधारा को व्यापक सामाजिक समर्थन दिलाती है।’’ आरएसएस को गाली देकर अपनी बौद्धिक पहचान बनाने वाले और उसे जीवित रखने वाले बौद्धिकों को इस प्रश्न का गंभीर विश्लेषण तो करना ही चाहिए कि अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद 1925 में स्थापित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ-साथ समस्त वामपंथी राजनीति आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है, तो दूसरी तरफ 1925 में ही स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद आज राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर है।
लेखक का मानना है कि संघ की असल ताकत और उसकी स्वीकार्यता के मूल में नागरिक समाज के भीतर काम रहे उसके छोटे-बड़े तीन दर्जन संगठन हैं। संघ की सफलता इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि राजनीतिक सत्ता या राज्य के माध्यम से नागरिक समाज और उसकी संस्थाओं की सोच को नहीं बदला जा सकता, बल्कि नागरिक समाज के भीतर काम करके और संस्थाओं का निर्माण करके राजनीतिक सत्ता या राज्य को जरूर बदला जा सकता है। आरएसएस नागरिक समाज के माध्यम से भारतीय राज्य को बदलने के अपने दीर्घकालिक एजेंडे पर चल रहा है जिसमें उसे अपेक्षित सफलता भी मिल रही है। इसके उलट सेकुलर और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने नागरिक समाज में संस्थाओं के निर्माण में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
लेखक ने ‘कांग्रेसी शरीर’ और ‘वामपंथी मस्तिष्क’ द्वारा निर्मित आरएसएस की छवि को साफ-सुथरा दिखाने के लिए अपनी समस्त बौद्धिक क्षमता दांव पर लगा दी है। अपने इस प्रयास में उन्होेंने तर्क और कुतर्क, तथ्य और भ्रांति, अफवाह और सच्चाई, भ्रम और वास्तविकता का एक ऐसा मिश्रण तैयार किया है जिसे पहचानने और अलगाने के लिए एक तीक्ष्ण विवेक की दरकार है। नहीं तो, उनकी लेखन शैली और तर्क पद्धति ऐसी है कि आप बहुत जल्दी ही उसकी गिरफ्त में आ सकते हैं।
आरएसएस पर सबसे अधिक आक्रमण स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी भूमिका को लेकर होता है। लेखक ने इधर-उधर से कुछ छिटपुट उदाहरणों को सामने रख कर यह साबित करने का प्रयास किया है कि संघ शुरू से ही साम्राज्यवाद विरोधी था। वे अपने लेखों में बार-बार सावरकर, मुंजे, नाथूराम गोडसे आदि की सोच से आरएसएस को अलगाते चलते हैं। हिंदू महासभा और उसके जैसे संकीर्ण तथा उग्र हिंदूवादी संगठनों- हिंदू राष्ट्र दल, शक्ति दल, हिंदू सेना दल, हिंदू राष्ट्र सेवा आदि- से आरएसएस को अलग दिखा कर उसके इतिहास को उज्ज्वल बताने का अथक परिश्रम उन्होंने किया है। उनके इस अथक परिश्रम का ऐतिहासिक आधार कितना ठोस है यह बहस का विषय हो सकता है, पर यह तो स्पष्ट है कि आरएसएस अब अपने इतिहास के नकारात्मक पहलुओं से पीछा छुड़ाने के लिए छटपटा रहा है।
राकेश सिन्हा के संघ विमर्श का अनिवार्य घटक भारतीय धर्मनिरपेक्षता है। उनकी दृढ़ मान्यता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता और कुछ नहीं बल्कि अल्पसंख्यकवाद है। इसके लिए वे मुख्य रूप से नेहरू को जिम्मेवार मानते हैं। यह देखना कम दिलचस्प नहीं है कि लेखक ने ‘राजनीति और धर्मनिरपेक्षता’ पुस्तक के लगभग हर दूसरे लेख में नेहरू को निशाना बनाया है। इस प्रवृत्ति को सुविधा के लिए ‘नेहरू फोबिया’ कहा जा सकता है। यह पुस्तक आरएसएस वालों की तुलना में नेहरूवादियों के लिए अधिक मददगार है। इस पुस्तक के साक्ष्य पर कहा जा सकता है कि संघ की सोच और एजेंडे को जिस एक व्यक्ति ने सर्वाधिक क्षति पहुंचाई या उसे ध्वस्त किया, वे नेहरू थे। एक और बात गौर करने लायक है कि लेखक ने सचेत रूप से गांधी पर चुप्पी साघ ली है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि संघ ने कम से कम आधिकारिक तौर पर गांधी-विरोध की वैचारिकी से किनारा कर लिया है। उसका पूरा आक्रोश नेहरू पर आकर केंद्रित हो गया है।
राकेश सिन्हा प्रतिबद्ध और ईमानदार स्वयंसेवक हैं। वे अपने लेखन में सिद्धांतों, आदर्शों और मूल्यों की बात बार-बार दोहराते हैं। उनके आदर्श दीनदयाल उपाध्याय और दत्तोपंत ठेंगड़ी हैं। ये दोनों संघ परिवार के भीतर अब तक के सर्वाधिक जनपक्षधर सोच वाले व्यक्ति रहे हैं। वे बार-बार अपने लेखों (खासतौर पर आर्थिक मसलों पर लिखे गए लेखों) में उन्हें याद करते हैं। पर यह तो स्पष्ट है, जैसा कि स्वयं आडवाणी कह चुके हैं कि भाजपा दीनदयाल उपाध्याय जैसों के रास्ते से भटक चुकी है। राकेश सिन्हा भी इस बात को महसूस तो करते हैं, पर कहते नहीं हैं। उनके लेखों को गौर से पढ़ें तो अनुभूति और अभिव्यक्ति में यह द्वंद्व सर्वत्र दिखाई देता है। इस द्वंद्व के कारण न तो वे पूरी तरह हिंदुत्ववादी बन पाते हैं और न ही पूरी तरह जनपक्षधर। शायद यही उनकी नियति भी है।
दिनेश कुमार
‘संघ और राजनीति’; ‘राजनीति और धर्मनिरपेक्षता’: राकेश सिन्हा, सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-2, मूल्य: 400 रुपए (प्रत्येक)।