दूसरे महायुद्ध के बाद जितने भी देश साम्राज्यवाद के चंगुल से मुक्त हुए, उनमें से अधिकतर ने लोकतंत्र की आवश्यकता को स्वीकार किया। उपनिवेशवाद से छुटकारा अनेक प्रकार के त्याग, बलिदान और संघर्ष के बाद मिला था। स्वतंत्र होने के समय इन देशों को गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, साधनहीनता, विशेषज्ञों की कमी जैसी कितनी ही कठिन चुनौतियां विरासत में मिली थीं। इन सबके समाधान के लिए जिस अनुभव की आवश्यकता थी, वह भी उपलब्ध नहीं थी। स्वतंत्रता संग्राम के तपे हुए सेनानियों ने ही अपने-अपने देश में पहली बार सत्ता संभाली। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कहा जा सकता है कि ज्यादातर से ‘सत्ता संभली नहीं’! आचार्य चाणक्य ने कहा था कि राजकीय कर्मचारी उस मधुमक्खी की तरह होंगे, जो छत्ते में मधु बढ़ाती तो है, मगर कुछ न कुछ उसके पंखों में भी लगा रहता है! सत्ता के शीर्ष पर बैठे नायक भी इससे बच नहीं सके।
समय के साथ पीढ़ियां बदलीं, जीवन मूल्य और दृष्टिकोण बदले
ऐसी स्थिति जहां-जहां पनपी, लोकतंत्र विफल हो गया, सत्ता पर सेना या निरंकुश तानाशाहों का आधिपत्य हो गया। प्राचीन भारत की विरासत में निहित ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का प्रभाव और गांधी द्वारा आजादी के आंदोलन में प्रचार-प्रसार और व्यावहारिक उपयोग का उदाहरण सत्ता में आए लोगों के मन-मस्तिष्क पर स्वतंत्रता के बाद के प्रारंभिक वर्षों में भी बना रहा। उनकी कर्मठता और समर्पण भावना सत्ता में आने पर भी डिगी नहीं, इसीलिए भारत में लोकतंत्र की जड़ें ठीक से जमीं, और विश्व ने उसे स्वीकर किया। समय के साथ पीढ़ियां बदलीं, जीवन मूल्य और दृष्टिकोण बदले; भारत में भी सत्ता का प्रभाव लोगों और विशेषकर जन-प्रतिनिधियों को संग्रहण और संचय की ओर ले गया- मधुमक्खियों ने अपने पंखों का अधिकाधिक मधु अपने और अपनों के लिए छत्ते से दूर ले जाकर सहेजना शुरू कर दिया।
गांधी चाहते थे कि हर कोई पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की ओर देखे और सोचे कि उसके लिए क्या किया जा सकता है। अधिकांश लोगों नें इसे भुला दिया, अपने से आगे वाले की ओर सारा ध्यान केंद्रित कर दिया और वे सभी उपाय करने लगे, जिससे वे साधन संपन्नता में किसी से पीछे न रहें। इस सोच में नैतिकता, मानवीय मूल्यों के प्रति सम्मान तथा राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव पूरी तरह अनुपस्थित था। ऐसी स्थिति में राष्ट्रनीति की वस्तुनिष्ठ संकल्पना, निर्माण और उसका ईमानदार क्रियान्वयन व्यावहारिकता में ढूंढ़ पाना लगभग असंभव हो जाएगा। जब स्वार्थपरकता बढ़ेगी तो निश्चित ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं रह पाएंगी। लोकतंत्र के विकास की पहली शर्त यही है कि लोगों का उसकी प्रक्रिया पर पूरा विश्वास हो।
लोकहित में सर्वसम्मत निर्णय आवश्यक है, यह सब जानते हैं
लोकतंत्र की अवधारणा तभी सजीव हो सकती है, जब हर नागरिक सजग और सतर्क रह कर अपना सामाजिक उत्तरदायित्व समझे और उसका निर्वाह करने में उसे गर्व और गौरव का भान हो। कोई भी समन्वित जनसमूह या समुदाय वैचारिकता में पूरी तरह कभी एकमत नहीं हो सकता, मगर हर सभ्य और सुसंस्कृत समाज यह अच्छी तरह जानता और समझता है कि लोकहित में सर्वसम्मत निर्णय क्यों आवश्यक हैं, कैसे लिए जाते हैं, और पारस्परिक आदर और सम्मान इसमें कितना सहायक हो सकता है। जहां भी ऐसा नहीं होगा, वहां सर्वसम्मत निर्णय न होने के कारण क्रियान्वयन में शंका, शिथिलता और अकर्मण्यता ही हावी रहेंगे। जहां निर्णय लेने या किसी भी कार्य को पूरा करने में कर्मठता और समर्पण के स्थान पर व्यक्तिगत स्वार्थ प्राथमिकता पाएंगे, वहां गुणवत्ता की अपेक्षा का कोई अर्थ नहीं बचेगा। जब भी सरकारी तंत्र की समझ नियमों, उपनियमों और व्यक्तिगत स्वार्थ की परतों में जकड़ जाती, संवेदनशीलता मंद हो जाती है, तब वहां लोकतंत्र की आत्मा जैसी सोच और समझ का कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। इस सबका खमियाजा लोक यानी लोगों को ही भुगतना पड़ता है।
अपेक्षा तो यही है कि लोकतंत्र की आत्मा को समझ कर ही कोई व्यक्ति लोकसेवा के क्षेत्र में उतरना चाहेगा। यानी वह अन्य की सेवा के भाव से लोकजीवन में अपने को उतारेगा! वे ऐसे लोग ही थे जिनके कारण भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चला और सफल हुआ। राष्ट्रनिर्माण, विकास और प्रगति के लिए अब ऐसा हो पाना असंभव-सा क्यों लगाने लगा है? अगर जनप्रतिनिधि बनने की उत्कंठा राजनीति को एक अत्यंत लाभदायक व्यवसाय मानकर जागृत हुई हो, तो व्यक्ति के लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारण में प्राथमिकता स्वयं और अपनों की होगी, अन्य की नहीं, पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की नहीं! इसका अर्थ यह नहीं है कि निस्वार्थ सेवा करने वाले पूरी तरह अनुपस्थित हैं, चिंता इसकी है कि उनकी संख्या लगातार कम हो रही है।
भारत के लोकतंत्र की जो भी व्यावहारिक स्थिति बनी है, लोक और उसके चयनित प्रतिनिधियों के आपसी संबंध जैसे भी हैं, राष्ट्रहित की अपेक्षाओं को कभी नैराश्य-भाव से नहीं देखा जाना चाहिए। कितनी ही बार एक व्यक्ति अपनी लगनशीलता से इतिहास बदल देता है, बना देता है। भारत में ऐसे मनीषियों की कभी कोई कमी नहीं रही है।
लोकहित के लिए लोक की भागीदारी पहली शर्त है। इस भागीदारी के लिए जनप्रतिनिधि और उसके मतदाता के बीच जीवंत संबंध बनाना पहली आवश्यकता है। राष्ट्र की प्रगति और विकास के लिए इनकी समझ आवश्यक है। यह समझ तभी अंकुरित होती है, जब व्यक्ति के मन-मानस में भारत की संस्कृति से निकले शाश्वत स्वीकार्य ‘सर्व बहुत हिते रत:’ जैसे जीवन-सूत्र अंतरतम तक अंकित हो जाएं।