हमारे समाज में बच्चों को शक्ति और सत्ता से नियंत्रित करने की परंपरा और उसकी स्वीकृति बड़े पैमाने पर और बहुत पहले से रही है। अपने विचारो को बहुत ज्यादा बदल नहीं पाए हैं हम। यही कारण है कि अहम नीतियां और कड़े कानून बनने के बाद आज भी स्कूलों और परिवारों में बहुत से बच्चों को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ता है। इसलिए बच्चों को भयमुक्त माहौल देने के विचार के तार्किक आधारों को ठीक से समझना शिक्षकों और अभिभावकों दोनों के लिए ही जरूरी है। एक और बात यह कि जब भी भयमुक्त माहौल की बात की जाती है तो उसका एक अभिप्राय बच्चों को स्वछंद छोड़ने से लिया जाता है कि अब तो करने दो उन्हें जो करना है, अब तो हम बच्चों को कुछ कह ही नहीं सकते। सवाल यह है कि बच्चों को क्या कहें और कैसे कहें? सवाल यह है कि बच्चों को अपनी बात कहने के मौके क्यों न मिले?
स्कूलों में बच्चों के लिए भयमुक्त माहौल होने का विचार शिक्षा जगत में कोई नया नहीं है। भारत में अधिकारिक तौर पर 1986 और 1992 की शिक्षा नीतियों में साफ तौर पर यह सिफारिश की गई थी कि हमारे शिक्षा तंत्र में दंड, भय का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। 1992 में ही बाल अधिकार अधिवेशन में जारी बाल अधिकारों पर सहमति जताते हुए सदस्य देशों (जिसमें भारत भी एक सदस्य है) ने अपने हस्ताक्षर किए। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में विद्यालयों में दंड-भय के स्थान पर सहभागी प्रबंध और आत्मानुशासन की पैरवी की गई थी, जिसमें अपेक्षा थी कि विद्यालय में शिक्षक और बच्चे मिलकर नियमों का निर्माण करें और सहभागी प्रबंधन की व्यवस्था लागू हो। फिर इसके बाद आया कानून निशुल्क शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 ने इस विचार को कानूनी रूप दे दिया। प्रावधान किया गया है कि बच्चों को किसी भी प्रकार की शीरीरिक और मानसिक प्रताड़ना नही दी जाएगी। अगर किसी शिक्षक को ऐसा करते हुए पाया गया तो उसके साथ विधान के अनुसार अनुशासनात्मक कार्रवाई की जायगी। कुछ शिक्षक तो इस कानून पर इस तरह से कटाक्ष भी करते है कि जैसे उनसे उनकी शक्ति और सत्ता छीन ली गई हो।
बच्चों के लिए भयमुक्त माहौल के इस आधार को समझने के लिए हमें मष्तिष्क के एक भाग हिप्पोकेंपस की कार्यप्रणाली और भूमिका को समझना पड़ेगा। हिप्पोकेंपस हमारी प्रक्रियागत स्मृति से जुड़ा होता है। यह नई स्मृतियों का निर्माण करता है। कोई नया अनुभव पहले यहीं प्रसंस्कृत होता है, फिर दीर्घकालीन स्मृतियों में संरक्षित हो जाता है। जब भी कोई इंसान डर-भय की परिस्थिति से गुजर रहा होता है तो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली कोर्टिसोल नामक हारमोन रक्त नलिकाओं में प्रवाहित करती है, जो वसा और मांसपेशियों से ऊर्जा छोड़ता है। और शरीर को बचाव की परिस्थिति के लिए तैयार हो जाता है।
हिप्पोकेंपस में सकेंद्रित अभिग्राहक रक्त में बढ़े कोर्टिसोल के स्तर को भांप लेते हैं और ये अभिग्राहक हिप्पोकेंप्स को परिस्थिति की सशक्त स्मृति बनाने को मजबूर कर देते हैं। मान लीजिए आप घूमने कुछ मित्रों के साथ पहाड़ पर चढ़ रहे है। रास्ते में अचानक कोबरा सांप फन फैलाये बैठा है। आप उसे देखते है और डर जाते हैं। वापस दौड़ पड़ते है और बाकी मित्रों को जाकर बताते हैं। इस अनुभव में सांप की छवि और वह जगह इस कदर आपके मन मष्तिष्क पर छप जाती है कि ताउम्र आपको याद रहती है। यह इसी जैविक क्षमता के फलस्वरूप होता है। यह एक नैसर्गिक प्रकिया है। आप अंदाजा लगा सकते है कि सुरक्षित जीवन जीने में मष्तिष्क की यह तंत्रिकीय इंजीनियरिंग हमारी कितनी मदद करती है।
इसके कुछ दूसरे पहलू भी हैं। यह प्रतिरक्षा प्रणाली अचानक से पैदा हुई खतरनाक परिस्थिति से बचाव और भविष्य में संभावित खतरे से बचाव के लिए है। लेकिन आप कल्पना करें कि एक बच्चा जो कि आज होमवर्क न किए जाने से कल मिलने वाली प्रताड़ना के बारे में सोच-सोच कर भयग्रस्त है और उस समय तक रहेगा जब तक की उसका सामना उस शिक्षक से न हो जाय। इस परिस्थिति में भी शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली ही वैसे ही व्यवहार करती है और लगातार कोर्टिसोल रक्त में प्रवाहित किया जाता है। ऐसा होने रक्त में बार-बार बढ़ने वाला कोर्टिसोल हिप्पोकेंपस में अवस्थित जरूरी तंत्रिकाओं को नष्ट कर देता है। इससे याद रखने और सीखने की क्षमता प्रभावित होती है।रक्त में कोर्टिसोल के स्तर का लगातार बढ़े रहना उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और अल्सर जैसी गंभीर बिमारियों को आमंत्रित करता है।
इस पूरी बात का मनोविज्ञानिक पहलू यह है कि हम भय पैदा कर बच्चों को कक्षा में बैठा तो सकते हैं, कुछ समय के लिए उन्हें नियंत्रित तो रख सकते है लेकिन वास्तव में कुछ सिखा पाने का दावा नहीं कर सकते हैं। परिवार, समाज और विद्यालय बच्चों के समाजीकरण के मुख्य घटक हैं। इन संस्थाओं से गुजरते हुए बच्चे जब यह देखते हैं कि कोई भी बच्चा जब गलती करता है तो उसे डांट पिला दी जाती है, अगर कुछ बड़ी गड़बड़ हुई तो डंडे और हाथ-पैरों से पीटा भी जाता और उसमें अपेक्षा यह होती है कि बच्चे में सुधार होगा। हम सभी जानते है कि बच्चों में सामान्यीकरण करने की क्षमता होती है।
सुधार की अपेक्षा में लगातार होने वाली यह गलती की प्रक्रिया के पैटर्न को पकड़ कर बच्चे आसानी से यह समझ बनाने लगते है कि गलती का सुधार तो केवल मार पीट कर या डरा कर हो सकता है। विद्यालयों में काम के दौरान मेरे साथ ऐसे कई अनुभव रहे हैं जिसमें कि बच्चे शिक्षक से यह कहते हुए पाए जाते है अमुक बच्चे को तो मुर्गा बना दो, लप्पड़ लगाओ तभी सुधरेगा। यहां तक कि किसी शिक्षक के द्वारा दिए गए दंड को जायज ठहराने वाले कथन भी सुनाई पड़ते हैं। इस पूरे अनुभव से बच्चे अपनी यह समझ बना रहे होते है कि गलती को सुधारने का एक मात्र हल दंड दिया जाना है।
सवाल यह पैदा होता है कि ऐसे बच्चों का निर्माण कर हम समाज को कहां ले जा रहे हैं। क्या ऐसा समाज जहां संवाद और बातचीत के रास्ते खत्म हो जाएंगे? दूसरी बात यह कि हमारे लोकतांत्रिक समाज में कोई वयस्क कुछ ऐसा कर्म कर देता है जो कि समाज की नजर से अवांछनीय है तो क्या सामान्यतौर पर उसे सीधे ही दंड दे दिया जाता है। नहीं, उसके साथ न्यायालय की एक पूरी प्रक्रिया जुड़ी होती है, जहां पर वह अपने बचाव में तर्क दे सकता है, बहस कर सकता है। हो यह भी सकता है कि समाज के कुछ लोगों को उसका कर्म ठीक न लगा हो लेकिन फिर भी न्यायालय उसके तर्कों और साक्ष्यों के आधार पर उसे ससम्मान बरी कर सकता है। लेकिन हमारे विद्यालयों और पारिवारों में अक्सर क्या होता है?
कई बार बच्चों को यह बताने का मौका ही नहीं मिल पाता कि वह खिड़की के बाहर क्यों देख रहा था! उसे यह कहने की आजादी नहीं है कि शिक्षक का पढ़ाया कुछ समझ नहीं आ रहा, वह नहीं कह पाता कि रोज एक ही तरह के अभ्यास करके वह थक चुका है। आखिर इस माहौल में किस तरह का समाजीकरण हो रहा है हमारी आने वाली पीढ़ी का? थोड़ा तो उन्हें भी अपनी बात कहने का मौका देना होगा। नहीं तो ऐसे बच्चे या तो आज्ञाकारी-दब्बू इंसान बनेंगे या फिर विद्रोही ! बच्चों को आरंभ से ही ये मौके देने होंगे जिससे वे समझें कि संवाद करने, अपने विचार रखने से भी गलतियों का हल निकाला जा सकता है। बात करने से भी बात बनती है। (दिलीप चुघ)