कुछ चीजें हैं जो लटयंस दिल्ली के ऊंचे राजनीतिक गलियारों से या तो दिखती नहीं या गलत दिखती हैं। सो, प्रधानमंत्री के इस दौरे से पहले हम पंडित लोग चाय पर चर्चा करके तय कर चुके थे कि इस बार नरेंद्र मोदी का स्वागत अमेरिका में थोड़ा फीका होगा। खुश थे हम यह सोच कर कि हम पंडितों में मोदी की लोकप्रियता कम है। मैं अपने आप को इस टोली में नहीं गिनती हूं, क्योंकि मुझे अब भी विश्वास है कि मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं इस गरीब देश के, जो नेहरू के समाजवाद और लाइसेंस राज की विरासत को खत्म कर सकते हैं। लेकिन मैं अपने पंडित दोस्तों की बातों में आकर थोड़ी-सी गुमराह हो गई थी।

पिछले साल जब मोदी पहली बार अमेरिका गए प्रधानमंत्री बनने के बाद तो मैं खुद न्यूयार्क में थी। मेडिसन स्क्वायर में जो जुनून और मोहब्बत देखा मोदी के लिए, उसको देख कर हैरान रह गई थी। ऐसा स्वागत बहुत बड़े अभिनेता के लिए होता, तो भी बड़ी बात होती, लेकिन एक राजनेता के लिए पहली बार देखा। क्योंकि मेरे पंडित बंधुओं ने तय कर लिया था कि इस बार मोदी को ऐसा स्वागत नहीं मिलेगा, मैंने भी उनके हां में हां मिला दी।

सो, जब आयरलैंड से ही गूंजने लगे ‘मोदी मोदी’ के नारे तो ताज्जुब हुआ। फिर जब न्यूयार्क पहुंचने के बाद अमेरिका के महारथी निवेशक मोदी से मिलने आए तो अच्छा लगा और जब किसी अखबार में पढ़ा कि मोदी के होटल के बाहर माहौल किसी बारात जैसा था, तो कबूल करना पड़ा कि स्वागत में कोई कमी नहीं रही। फिर भी हैरत हुई मुझे जब प्यू रिसर्च सेंटर नाम की जानी-मानी अमेरिकी सर्वेक्षण संस्था के मुताबिक मालूम हुआ कि मोदी की लोकप्रियता पिछले दो वर्षों में बढ़ी है, कम नहीं हुई। सर्वेक्षण के हिसाब से सत्तासी फीसद भारतीय मोदी को पसंद करते हैं।

तो ऐसा क्यों है कि हम राजनीतिक पंडित बेखबर थे इन बातों से? ऐसा क्यों है कि पिछले कुछ महीनों में हमने मोदी की आलोचना को उनसे ज्यादा अहमियत दी? ऐसा क्यों है कि हम आम भारतीय नागरिक की भावनाओं को इतना कम समझ पाए हैं?

इन सवालों के बारे में सोच ही रही थी कि मुझे डीएचएल कूरियर कंपनी से फोन आया कि मेरे लिए लंदन से एक पार्सल आया है, लेकिन उसे मेरे हवाले वे तभी कर सकेंगे जब मैं साबित कर पाऊं कि जिस पते पर पार्सल भेजा गया है वह मेरा अपना घर है। मैंने जब स्पष्ट किया कि मेरा घर नहीं है और मैं एक दोस्त के घर में ठहरी हुई हूं, तो उन्होंने उस दोस्त से इसका सबूत मांगा और करते-करते एक पूरा हफ्ता लगा पार्सल मिलने तक। पार्सल में सिर्फ 2016 की डायरी थी। हर साल मैं लंदन की एक खास दुकान से मंगवाती हूं यह डायरी और पहले कभी इस तरह की समस्या सामने नहीं आई है। आइंदा यह गलती नहीं करूंगी, लेकिन भारत में कारोबार या निवेश करने आई होती तो क्या होता? एक पार्सल को लेकर इतनी लालफीताशाही देख कर किसी दूसरे मुल्क में न चली जाती?

जिस नियम के तहत मेरा पार्सल फंस गया था वह नया है, लेकिन हजारों पुराने नियम हैं इसी तरह के जो कदम-कदम पर निवेशकों को हैरान कर देते हैं। मिसाल के तौर पर हम ही हैं जो अपने हवाई अड्डों पर यात्रियों को इतना सताते हैं। देर रात को जब कोई थका हुआ मुसाफिर पहुंचता है मुंबई या दिल्ली तो हैरान रह जाता है यह देख कर कि पासपोर्ट पर ठप्पा लगवाने के बाद पासपोर्ट फिर से दिखाना पड़ता है उस अधिकारी को जो इमिग्रेशन अधिकारियों का पहरेदार है। यह सिर्फ भारत में होता है और सिर्फ भारत में होता है कि सामान लेने के बाद फिर से उतारना पड़ता है कस्टम्स पर, ताकि उसका एक्सरे हो सके। इसके बाद कस्टम्स वालों की पर्ची दिखानी पड़ती है एक अन्य अधिकारी को, जो उनकी पहरेदारी कर रहा होता है।
मोदी शुरू से कहते आ रहे हैं कि वे भारत में बिजनेस के लिए सुहाना माहौल बनाना चाहते हैं, लेकिन सच तो यह है कि हमसे अच्छे हैं पाकिस्तान और बांग्लादेश। ताज्जुब होगा आपको सुनते हुए कि प्रधानमंत्री के तमाम वादों के बावजूद भारत में बिजनेस के लिए माहौल बिगड़ा है पिछले दो सालों में।

सारा दोष मोदी के सिर इसलिए नहीं थोपा जा सकता, क्योंकि उनको विरासत में मिला है एक ऐसा देश, जिसमें हर छोटे-मोटे सरकारी अफसर के पास इतनी ताकत है बाधा बनाने की कि बड़ी-बड़ी योजनाएं खाक में मिल जाती हैं। यह नेहरू के समाजवाद की देन है, क्योंकि नेहरूजी का मानना था कि अर्थव्यवस्था पूरी तरह से सरकारी अधिकारियों के हाथ में होनी चाहिए। उनकी सोच यह थी कि जब जनप्रतिनिधि सरकारी अधिकारियों के जरिए अर्थव्यवस्था को चलाएंगे, तो भ्रष्टाचार की संभावना कम हो जाएगी। उनको विश्वास था कि सरकारी अधिकारी गरीब जनता की भलाई चाहते हैं और निजी उद्योगपति और व्यापारी सिर्फ अपने मुनाफे के बारे में सोचते हैं। इसी सोच को आधार बना कर नेहरू की बेटी ने लाइसेंस राज शुरू किया, जिसके तहत उद्योगपति जब अपने कोटा से ज्यादा उत्पादन करते थे तो उनको दंडित किया जाता था।

इस आर्थिक सोच से सबसे ज्यादा मुनाफा अगर किसी को हुआ है तो राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों को। इसलिए आसान नहीं होगा उनकी ताकत को कम करना और अगर कम नहीं की जाती है, तो मेक इन इंडिया असंभव है। परिवर्तन लाना चाहते हैं प्रधानमंत्री तो उनको वे नियम-नीतियां बदलनी होंगी, जिनके द्वारा मामूली सरकारी अफसरों के हाथों में बाधा बनाने की ताकत है। इस कार्य का शुभारंभ जितनी जल्दी हो, उतना अच्छा होगा।

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