झूठी प्रशंसा करने में जितने माहिर भारत के राजनेता हैं, शायद ही कोई और होगा। सो, बाबासाहब आंबेडकर की एक सौ पच्चीसवीं जयंती पर इतने राजनेताओं ने उनकी प्रशंसा की कि अंत में थक कर खुद एक-दूसरे को झूठा कहने लगे। सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी पर ताने कसते हुए कहा कि जिन लोगों ने कभी आंबेडकर को महान नेता नहीं समझा, आज उनका स्मारक बनाते फिरते हैं। इधर दिल्ली के मुख्यमंत्री ने टीवी इश्तिहारों से फुर्सत ढूंढ़ कर प्रधानमंत्री पर एक बार फिर हमला किया। मोदी देश नहीं हैं, आरएसएस संसद नहीं है और मनुस्मृति संविधान नहीं है। भाषण दे रहे थे बाबासाहब पर, सो उनसे वास्ता शायद संविधान शब्द का होगा।

मुझे ऐसे वक्तव्यों से सबसे ज्यादा तकलीफ हुई इसलिए कि इन बातों में मुझे सच्चाई कम और ढोंग ज्यादा दिखा। केजरीवाल साहब तो फिर भी राजनीति में नए हैं, लेकिन सोनिया गांधी के परिवार ने दशकों राज किया है इस देश में, तो अगर उनको वास्तव में आंबेडकर की विरासत पर हक जताना था तो कम से कम इतना तो करते कि ठोस राजनीतिक दृढ़ता दिखा कर उस शर्मनाक प्रथा को खत्म करते, जिसमें दलितों का काम होता है सवर्ण जातियों का मल साफ करना। बाबासाहब जिंदा होते तो उनको सख्त तकलीफ होती कि इस प्रथा को सबसे ज्यादा कायम रखा है महाराष्ट्र ने। 2011 की जनगणना के मुताबिक सात लाख चौरानबे हजार मल उठाने के मामले मिले, जिनमें से तिरसठ हजार सात सौ तेरह महाराष्ट्र में थे। अन्य राज्यों में भी यह प्रथा कायम है, जिनमें से उत्तर प्रदेश में काफी प्रचलित है, बावजूद इसके कि इस राज्य में एक दलित महिला मुख्यमंत्री रही हैं दो बार। ज्यादातर मल हाथों से साफ करने का काम महिलाओं को सौंपा जाता है और देश भर में ऐसी महिलाओं की संख्या सात लाख से लेकर दस लाख तक हो सकती है। देश भर में उनको काम मिलता है, क्योंकि भारतीय रेल अपनी गाड़ियों के जरिए देश भर में मल फैलाती है। तो बाबासाहब के कसीदे पढ़ने का क्या मतलब!

इसलिए शायद राजनीति पर लिखने से राजनेताओं से कुछ ज्यादा ही वास्ता रहता है। मेरी नजर में राजनीति में हीरो बहुत कम दिखते हैं, लेकिन बाबासाहब को इस छोटी फेहरिस्त में गिनती हूं। मुझे उनके विचार तो पसंद हैं ही, उनकी हिम्मत और भी ज्यादा। उन्होंने उस जमाने में भारत के चेहरे पर नासूर देखने की हिम्मत दिखाई जब स्वतंत्रता आंदोलन के कारण बाकी राजनेता तिरंगे में अपने आप को लपेट कर घूमते थे। जब गांधीजी ने ग्रामीण भारत को स्वर्ग बताया, बाबासाहब ने उनको याद दिलाया कि इस तथाकथित स्वर्ग में सबसे ज्यादा जातिवाद और दकियानूसी देखने को मिलती है। जब बाकी राजनेता समाजवादी आर्थिक दिशा में चल पड़े थे, बाबासाहब ने पूंजीवाद को बेहतर बताया। आज दलित उद्योगपति खुल कर कहते हैं कि दलितों को जातिवाद के शिकंजे से छुड़ाना है, तो उनको कारोबार का रास्ता चुनना चाहिए। इसलिए कि जब रोजगार ढूंढ़ने निकलते हैं, तो आज भी सवर्णों के लिए रास्ते अधिक हैं।

मेरा विश्वास है कि समाजवादी आर्थिक नीतियों ने भारत को गरीब रखा है और जातिवाद को जिंदा भी। आरक्षण के बावजूद आप किसी सरकारी महकमे में लोगों की जाति पूछने जाएंगे तो आपको सवर्ण ज्यादा मिलेंगे, दलित कम। यही बात आपको स्कूलों और कॉलेजों में दिखेगी, आरक्षण दशकों से होने के बावजूद। तो क्या आरक्षण पूरी तरह से बंद करने का समय आ गया है? 2014 के आम चुनाव में जब नरेंद्र मोदी ने एलान किया कि वे बनारस से खड़े होंगे, तो मैंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में एक दिन गुजारा छात्रों की राय मालूम करने। उनसे बात करके पता चला कि सारे के सारे मोदी को अपना वोट देने वाले थे, इस उम्मीद से कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उनको हिम्मत होगी आरक्षण समाप्त करने की। उनके मुताबिक बीएचयू में सत्तर फीसद छात्र किसी न किसी आरक्षित रास्ते से दाखिल हुए हैं।

आज हाल यह है कि ग्रामीण भारत के सबसे ताकतवर लोग आरक्षण मांगने लग गए हैं सरकारी नौकरियों और सरकारी शिक्षा संस्थाओं में। हरियाणा में जाट उतर आए हैं हिंसा पर और गुजरात में पटेल, लेकिन तोड़फोड़ से जब उनको बात करने की फुर्सत मिलती है तो यह जरूर कहते हैं कि या तो उनको आरक्षण देने की बातें हों या सबके लिए आरक्षण बंद कर दिया जाए। इस नए रास्ते की तरफ चलने की हिम्मत है क्या मोदी को? और अगर हिम्मत करते भी हैं तो क्या विपक्ष साथ देगा? ऐसा लगता तो है नहीं, क्योंकि विपक्ष मोदी के हर परिवर्तन की कोशिश को गलत बताता आया है पिछले दो वर्षों में। यहां तक कि राहुल गांधी स्वच्छ भारत अभियान का भी इन दिनों स्पष्ट शब्दों में विरोध कर रहे हैं।

लेकिन बिना परिवर्तन के देश आगे नहीं बढ़ सकता। नए किस्म के राजनेताओं की जरूरत है, नए किस्म के विचारों, नए किस्म की शिक्षा संस्थाओं, नए सपनों की जरूरत है। ऐसा हाल करके रखा है अपने इस भारत देश का झूठे राजनेताओं और उनकी झूठी राजनीति ने कि बाबासाहब जीवित होते तो इस देश को देख कर निराश होते, जिसका संविधान बनाने में उनकी खास भूमिका थी। इस बात को इस देश की जनता पूरी तरह समझ गई है, लेकिन हमारे राजनेता अब भी नहीं समझ पाए हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जिस प्रधानमंत्री ने परिवर्तन का नारा दिया था वे खुद भूल गए हैं कि तीस वर्ष बाद उनको पूर्ण बहुमत देकर जनता ने क्यों दिल्ली भेजा था।