रमेश दवे
प्रभाकर श्रोत्रिय अपनी हर रचना को उसके अंतिम रूप तक पहुंचाने के पहले इतना मांजते हैं कि रचना निखर उठती है, चाहे वह उनका सामान्य आलेख हो, आलोचना हो या नाटक। उनकी नई पुस्तक भारत में महाभारत वैसे तो केके बिड़ला फाउंडेशन की फेलोशिप के दौरान चुनौती बन कर उनके समक्ष खड़ी एक महागाथात्मक रचना थी, लेकिन उन्होंने इस पर तीन वर्ष से अधिक घोर अध्ययन किया और शोध-साधना से इस महाकाव्य पर जो महागद्य रचा, वह अब न केवल महाभारत की शोध-समीक्षा, बल्कि हिंदी साहित्य की एक निधि है। एक क्लासिक रचना पर ऐसी क्लासिक शोध-समीक्षा प्राय: आज की शोध प्रवृत्ति में दिखाई नहीं देती।
शोध, रचना की आंतरिक गहनता और प्रातिभ ऊष्मा की अत्यंत मनोयोगी और विचार निष्पन्न प्रक्रिया है। एक महाकाव्य या कोई भी महान रचना अपने शोध के लिए तभी खुलती है, जब उसकी सर्जना की सूक्ष्मतम वस्तु का सूक्ष्मदर्शी अवलोकन और अध्ययन किया जाए। महाभारत चुनौतियों का महाकाव्य है, जो विराट रूप में रचा गया विश्व का एकमात्र विशालतम काव्य है। भारत में इस महाभारत का व्यास-प्रज्ञा से घटित होना, उस निर्भ्रांत मेधा का परिणाम है, जिसमें स्वप्न और सत्य एक साथ होते हैं, कल्पना और क्रिया का समागम होता है और विचार तथा विवेक की ऊर्जस्वी प्रज्ञा की निर्मिति होती है। उसके संख्य चरित्र भी असंख्य-से लगते हैं, वहां एकल में भी बहुल होता है और गाथा बड़ी हो या छोटी, वह इतनी संदर्भपुष्ट, अर्थपुष्ट और शोधपुष्ट होती है कि पढ़ने या शोध करने पर चकित कर देती है, शोधकर्ता को चुनौती देती है। प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी प्रथम व्याख्यात्मक महाभारत रचना ‘शाश्वतोयं’ से जो पूर्वराग रचा था, उसकी आगामी फलश्रुति उनकी यह रचना ‘भारत में महाभारत’ है।
श्रोत्रिय ने इस पुस्तक में मुख्य स्थापना यह दी है कि महाभारत ‘युद्ध-काव्य’ न होकर ‘शांति-काव्य’ है। इस स्थापना से अनेक आलोचक और पाठक असहमत हो सकते हैं, लेकिन अगर अट्ठारह दिन के इस महासंग्राम के अट्ठारह पर्वों से श्रोत्रिय ने यह स्थापना रची है, तो इसके पक्ष में वे साक्ष्य हैं, जो बार-बार युद्ध टालने का प्रयत्न करते हैं। कृष्ण का शांतिदूत बनना और अंत में भीष्म का शांति प्रबोधन और नीति-निपुण उपसंहार भी इस तर्क से सिद्ध करता है।
इस पुस्तक को गंभीरतापूर्वक आद्योपांत पढ़ने पर कुछ प्रश्न भी पुस्तक के पाठ से पृथक टकराते हैं-
क्या सौ पुत्रों वाले कौरवों का यह संख्या-बल शक्ति प्रदर्शन नहीं था? क्या यह दुर्योधन की साम्राज्यवादी निरंकुश लिप्सा नहीं थी? क्या धृतराष्ट्र और पांडु के एक सौ पांच पुत्रों में दुर्योधन के ज्येष्ठ होने के कारण सत्ता पर उसका स्वाभाविक अधिकार नहीं बनता था? क्या धृतराष्ट्र के स्वाभाविक उत्तराधिकारी, युवराज और यहां तक कि सत्ता प्रमुख की हैसियत रखने वाले दुर्योधन को राजसत्ता के अधिकार और परिजनों, गुरुजनों, सेना नायकों आदि को आदेश देने की पात्रता नहीं थी? और, क्या एक बड़ा असंतुलित परिवार आपसी मतभेदों, यहां तक कि आपसी शत्रुता और संपत्ति लालसा का शिकार नहीं था?
श्रोत्रिय ने इन प्रश्नों का उत्तर अनेक कथाओं के माध्यम से परोक्ष रूप से तो दिया है, पर उन्हें मुद्दा बना कर इन पर पाठक को भी विचार करना होगा। इस पुस्तक को पढ़ने से पहले श्रोत्रिय ने ‘आरंभ’ (भूमिका) में जो ‘पूर्वारंभ’ लिखा है, वह पठनीय है। सबसे पहले श्रोत्रिय महाभारत को धर्मग्रंथ की जड़ता से मुक्त करते हैं और व्यास को खुद के रचे गए मिथकों को तोड़ने वाला क्रांतिदर्शी काव्य का जनक मानते हैं। दूसरा तर्क यह है कि महाभारत इतिहास की प्रचलित अवधारणा से ऊपर मानवता के विकास की कथा है। तीसरा पक्ष महाभारत युद्ध कथा न होकर एक सृष्टि-नाट्य है। महाभारत मानव सभ्यता के लंबे अनुभव का सामूहिक आख्यान है। यह काव्य सत्य और स्वप्न के साथ ‘कल’ और ‘कल्प’ को देखने का काव्य है, जो बिगबैंग की वैज्ञानिक अवधारणा से जुड़ा है।
चौथा पक्ष ‘आधार’ और पाठक की उद्भावनाओं के साथ निकष का है। श्रोत्रिय ने अन्य तर्क में इसे ‘आकर’ ग्रंथ कहा है, जो सृजनात्मक है न कि ज्ञान, विवेचना, विमर्श, और शास्त्र-ग्रंथों की चर्चा भर। इसमें दृश्य-अदृश्य दिशाएं, ध्वनियां और गंूजें निर्मित हुई हैं। श्रोत्रिय ने महाभारत को ऐसा समुद्र माना है, जिसमें मर्यादा भी है और सुनामी-फेलीनी जैसे तूफानों द्वारा मर्यादा का अतिक्रमण भी। श्रोत्रिय ने यह भी सिद्ध किया है कि व्यास ने महाभारत को विश्वबोध की कृति बना दिया है। उग्रश्रवा के विश्वास भरे कथन से श्रोत्रिय यह मान्यता भी रचते हैं कि यह महाकाव्य संसार के समस्त श्रेष्ठ कवियों का उपजीव्य होगा।
एक अवलोकनीय तथ्य यह भी है कि श्रोत्रिय ने जहां इसे ज्ञान-कर्म, संन्यास-भक्ति, लोक-परलोक की समग्रता में देखा है, वहीं भारतीय संस्कृति की स्वाभाविक सामासिकता के साथ इसे विपरीतताओं के महासमर के रूप में भी प्रश्नांकित किया है। श्रोत्रिय इस शोध के दौरान चुनौतियों, मान्यताओं, अनुसृजन और पुनर्सृजनों के साथ न केवल मूल काव्य की विराट चुनौती से टकराए, बल्कि भारत भर की अनेक क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे महाभारत के परवर्ती काव्य या आख्यानों का भी संदर्भ प्रस्तुत कर इस महाकाव्य की विराट चेतना को प्रकट की है।
जहां कन्नड़, मराठी, हिंदी, गुजराती, हिंदी, तमिल, ओड़िया, बांग्ला, तेलुगू, असमिया आदि भाषाओं के शोध-अध्ययन इस ग्रंथ में हैं, वहीं भास, कालिदास, माघ, श्रीहर्ष आदि संस्कृत नाट्यकारों के नाटकों में श्रोत्रिय ने महाभारत की पृष्ठभूमि को दर्शाया है। इस ग्रंथ की यह भी विशेषता है कि श्रोत्रिय इसे हमारे समय की आधुनिकता से जोड़ कर संत ज्ञानेश्वर की ‘ज्ञानेश्वरी’, श्रीअरविंद की ‘सावित्री’, सुब्रमण्य भारती की ‘पांचाली शपथम’, जयशंकर प्रसाद के ‘जनमेजय का नागयुद्ध’, धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’, नरेंद्र शर्मा के ‘द्रौपदी’, प्रतिभा राय के ‘याज्ञसेनी’, नरेंद्र कोहली के ‘महाशमन’ के संदर्भों को उपजीव्य के रूप में प्रस्तुत करके दो बातें सिद्ध करते हैं- एक तो संस्कृत भाषा की भाषिक विराटता और चेतनात्मक सृजनात्मकता और दूसरे उससे प्रभावित भारतीय भाषाओं में अनुसृजन और पुनर्सृजन।
‘ज्ञानेश्वरी’ की रचना तो महाभारत का गीता पक्ष है, लेकिन श्रोत्रिय उसे भाष्य न मान कर स्वतंत्र कविता मानते हैं, जो वह है भी। श्रीअरविंद की ‘सावित्री’ को मिथकीकरण का बिंबात्मक प्रतीकीकरण श्रोत्रिय ने एक महाकाव्य की भूमि पर कहा है, जो महाभारत से ही प्रभावित है। सुब्रमण्य भारती के खंड-काव्य ‘पांचाली शपथम’ में श्रोत्रिय ने सभापर्व के द्यूत-प्रसंग को महाभारत आधारित रचना कहा है। प्रसाद के नाटक ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ को ऐसी कथा निरूपित किया है, जो समकालीन समस्या की अंतर्वस्तु का अन्वेषण महाभारत से करती है। धर्मवीर भारती का ‘अंधा युग’ श्रोत्रिय की दृष्टि में महाभारत का आख्यानात्मक काव्य-नाटकीय रूपांतरण है। नरेंद्र शर्मा ने अपने काव्य ‘द्रौपदी’ में एक नारी को अग्निजाया, विद्रोहिणी और प्रतिशोध-रूपा प्रस्तुत किया, जिसे श्रोत्रिय ने सुब्रमण्य भारती के ‘पांचाली शपथम’ से भिन्न माना है।
उर्दू, ओड़िया, कन्नड़, गुजराती, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बांग्ला, मणिपुरी, मराठी, मलयालम, हिंदी, सिंधी, कश्मीरी, नेपाली, अंगरेजी, आदि भाषाओं के माध्यम से श्रोत्रिय ने महाभारत की अनेक कथाओं के आधार पर की गई रचनाओं का विस्तार से पृथक-पृथक शोधपरक प्रस्तुतिकरण किया है। एक बात स्पष्ट है, जो श्रोत्रिय की स्थापना के संभवतया अनुरूप है, वह यह कि महाभारत के अनेक पाठों में महाभारत के कला-पक्ष का अनुसृजन या पुनर्सृजन तो है, मगर विचलन नहीं। इसका तात्पर्य यह भी है कि एक ‘आकर-ग्रंथ’ अपनी मौलिकता में किस प्रकार आधार, उपजीव्य, प्रेरणा या शोध बनता है, इसका प्रमाण व्यास का प्रातिभ काव्य-सृजन है।
पुस्तक के भाग छह में कृष्ण, कर्ण, युधिष्ठिर, भीष्म, दुर्योधन और द्रौपदी जैसे पात्रों की श्रोत्रिय ने विवेचनात्मक प्रस्तुति की है। ये ऐसे पात्र हैं, जिनकी भूमि पर महाभारत महाकाव्य अपनी श्रेष्ठता में समय और अवकाश के पार, विचार, कल्पना और स्वप्न के साथ खड़ा है।
पुस्तक को गहनता में पढ़ने पर लगता है कि श्रोत्रिय ने इस पुस्तक को अधिक बड़े कलेवर से बचाने के लिए अनेक उपाख्यानों को छोड़ दिया है, वरना ‘विकर्ण’ का चरित्र भी एक नए पुनर्सृजन की मांग कर सकता था। श्रोत्रिय ने अनुसृजित कृतियों में दिनकर के काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘रश्मिरथी’ को संदर्भ नहीं बनाया, साथ ही पीटर ब्रुक का तो उल्लेख है, लेकिन पश्चिम के अन्य स्रोतों का उल्लेख नहीं किया। इससे यद्यपि कुछ कमी तो लगती है, फिर भी जितना विशद यह ग्रंथ है, उसकी भी सीमा थी। यह पुस्तक शोध-प्रेरक तो है ही, एक आख्यानात्मक कथा से बाहर निकल कर औपन्यासिक संभावनाओं को भी प्रकट करती है।
भारत में महाभारत: प्रभाकर श्रोत्रिय; भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली; 700 रुपए।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta
