केदार प्रसाद मीणा

रणेंद्र का उपन्यास गायब होता देश उनके पहले उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ की तरह विस्थापित होते, टूटते-बिखरते और लगातार गायब होते जा रहे आदिवासी समाज की समस्याओं की कहानी कहता है। फर्क यह है कि ‘ग्लोबल गांव के देवता’ असुर आदिवासी समुदाय के बहाने यह कहानी कहता है और ‘गायब होता देश’ मुंडा आदिवासी समुदाय के बहाने। यों उपन्यास की मुख्य कहानी पत्रकार किशन विद्रोही की, उनकी डायरी में दर्ज जीवन की कहानी है। मगर इस डायरी का बड़ा और प्रासंगिक हिस्सा मुंडा आदिवासी समुदाय के जीवन के, खुशहाल कम और बदहाल अधिक, रंगों से रंगा है। इस तरह मुंडा आदिवासियों के दुख-दर्द की कहानी ही उपन्यास की मुख्य कथा-वस्तु बन जाती है।

रणेंद्र आदिवासी समाज के शोषक ‘दिकुओं’ और आदिवासी गरिमा की पहचान आदिवासी दृष्टि से, मुंडारी भाषा में ही करते हैं- ‘दिकु मेद चि सेता मेद’ (दिकु और कुत्ते की नजर एक जैसी होती है) और- ‘मुंडाकोअ: ओडो: कुलाकोअ: मनरड़ से गेअ’ (मुंडा और शेर की गरिमा एक जैसी होती है)। मुंडा समाज में महिलाओं का सम्मानजनक स्थान रहा है। लेखक इस बात को बहुत महत्त्व देता है- ‘धरम ओड़ो: जाती दोतन को दो कुड़िको गे’ (धर्म और जाति की रक्षा स्त्रियां करती हैं)।

उपन्यासकार मुंडाओं के ऐतिहासिक विद्रोहों- तमाड़ विद्रोह, कोल विद्रोह, सरदारी लड़ाई, बिरसा ‘उलगुलान’ को बार-बार प्रसंगवश याद कर इनके प्रति सम्मान प्रकट करता और नेपथ्य में कहीं न कहीं स्वीकार करता है कि जब तक मुंडा अपने ढंग से लड़ते रहे, अपने लिए कुछ पाते रहे, मगर आजादी के बाद आदिवासी केवल लड़े हैं, मरे हैं। आजाद भारत में इनके संघर्ष को न सम्मान मिला है न उनके हक मिले हैं।

बांग्लादेश के युद्ध में शानदार प्रदर्शन कर राष्ट्रपति के हाथों वीरचक्र प्राप्त करने वाला बहादुर मुंडा परमेश्वर पाहन सेवानिवृत्त हो अपने गांव एदलहातु आता है और देखता है कि एक बड़ी कंपनी ग्रीन एनर्जी द्वारा दुलमी नदी पर बांध बना कर मुंडा गांवों को डुबो देने की योजना शुरू हो रही है। वह विस्थापन विरोधी आंदोलन शुरू करता है। इससे नाराज भ्रष्ट व्यवस्था पहले उसे नक्सलवादी घोषित करती है और एक रात पुलिस के हाथों उसकी हत्या करवा दी जाती है। इसके बाद ‘विकास’ और ‘विस्थापन’ के नाम पर जंग शुरू होती है। भ्रष्ट पुलिस इंस्पेक्टर केवीपी मुंडा ग्रामीणों के हाथों मारा जाता है। पुलिस आदिवासियों के गांवों को नक्सलवादी गांव घोषित करती है और एतवा मुंडा, संजय जायसवाल, अमरेंद्र मिश्र जैसे निर्दोषों को नक्सलवादी घोषित कर एक-एक कर मारती रहती है। आखिरकार दुलमी नदी पर बड़ा बांध बनता है और उसमें एक सौ सत्रह गांव और पचास मील में फैले खेत-जंगल डूब जाते हैं।

आदिवासी इलाकों में चले ऐसे विभिन्न ‘विकास’ कार्यों से, बताया जाता है कि 1951-1990 के बीच ही कोई दो करोड़ तेरह लाख आदिवासी विस्थापित हुए हैं, जिनमें से कोई तिरपन लाख का जैसे-तैसे पुनर्वास किया गया है। 1990 के बाद ये विकास कार्य कुछ इस तरह चले कि आदिवासी क्षेत्रों में जगह-जगह तबाही मच गई। गांव के गांव कारखानों-खदानों-बांधों-अभयारणों के नाम पर सरकारों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हड़प लिए गए। विरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सलवादी घोषित कर मुठभेड़ में मार दिया गया। महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर अनाचार हुए। लाखों लोग भूख-प्यास और बीमारियों से मर गए। बाकी लोग शहरों-कस्बों की झुग्गियों में नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हो गए।

आदिवासियों की समस्याओं पर लिखने वाले लेखकों ने अब तक ज्यादातर केवल ग्रामीणों के हालात को विषय बनाया है। रणेंद्र ने गांव से विस्थापित होकर शहरों की झुग्गियों में आ बसे आदिवासियों की त्रासदी को भी सामने रखा है। एदलहातु-जोजोहातु-हीराहातु-उलिहातु आदि गांवों से विस्थापित हुए विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों के आदिवासी किशनपुर शहर की मदुकम-हिसिर-बीर बुधु भगत और बिरसाडीह जैसे गंदी-मलिन और बिजली-पानी के लिए तरसती बस्तियों में समा जाते हैं। आदिवासी पुरुष रोजगार के लिए शहर में भटकते हैं और स्त्रियां बड़ी-बड़ी कोठियों में झाड़ू-पोंछा करती हैं। युवा लड़के नशे और अपराध में डूब जाते हैं और लड़कियां मजबूरन यहां-वहां अपमानित-शोषित होती हैं।

एक दिन आता है, जब इनको इन बस्तियों से भी खदेड़ दिया जाता है। यहां बड़े-बड़े अपार्टमेंट बनाए जाते हैं। इनमें आदिवासियों को उनकी जमीन होने के बावजूद फ्लैट नहीं दिए जाते। कहा जाता है- ‘ई कोल-कबाड़-चुहाड़ लोग जो हमरा लेबर है, घर-बाहर खटता है, रिक्शा चलाने वाले, दतुवन बेचने वाले की ई औकात कि हमरे बनाए अपार्टमेंट में रहे। हमरे बराबर में रहे।’ अनुजा पाहन-सोमा दी जैसी लड़कियां और नीरज-वीरेन जैसे लड़के अपने समाज के बुद्धिजीवी सोमेश्वर मुंडा (रामदयाल मुंडा), सामाजिक कार्यकर्ता सोनामनी बोदरा (दयामनी बारला) और बाहरी समाज के संवेदनशील सहायक किशन विद्रोही के नेतृत्व में संघर्ष करते हैं।

कभी जब इनको सफलता मिलने लगती है, तब बिल्डर-माफिया बुधराम उरांव की हत्या करवा देते हैं और विक्टर तिग्गा जैसे महत्त्वाकांक्षी युवा आदिवासी नेताओं को अपना पालतू बना कर आदिवासी लोगों को बहकाने में इस्तेमाल करते हैं। आदिवासी बस्तियों में फूट डाली जाती है, इससे इनका संघर्ष बार-बार ठंडा पड़ जाता है। जब ऐसे हथकंडे काम नहीं आते तब माफिया अपने एनजीओ शुरू कर इन बस्तियों के ‘कल्याण’ के लिए योजनाएं लाते हैं। इनके आक्रोश को शांत किया जाता है, लोगों को बैंकों के कर्ज में डुबोया जाता है और फिर एक दिन अचानक एनजीओ अपनी सहायता बंद कर देते हैं। एनजीओ की सहायता से शुरू हुए सब काम बंद हो जाते हैं, बैंक वसूली करने लगते हैं। इस तरह मजबूर लोगों की बस्तियों की जमीन उनसे छीन ली जाती है।

उपन्यासकार आदिवासी समस्याओं का समाधान ‘उलगुलान’ यानी जनसंघर्ष में देखता है। उसे आदिवासी समाज में आरक्षण के दम पर पनपे भ्रष्ट अधिकारी वर्ग, मैक्डोनाल्ड में खाती, मॉलों में घूमती, जमीन से कटी उनकी अगली पीढ़ियों, भ्रष्टाचार-माफियागीरी और बड़ी राजनीतिक पार्टियों के रहमोकरम पर पनपी निठल्ली-बातूनी आदिवासी राजनीति से कोई उम्मीद नहीं है। शायद इसीलिए उपन्यासकार ऐसे अधिकारी वर्ग को ‘गद्दार’ कहता और एक बड़ी राजनीतिक पार्टी द्वारा सोमेश्वर मुंडा के राज्यसभा के लिए किए गए मनोनयन को ‘साजिश’ बताता है। हालांकि उसमें सोमेश्वर मुंडा फंसते नहीं और अपने गांव लौट कर जनांदोलन चलाने वाले साथियों का साथ देते हैं। ‘उलगुलान’ किया जाता है और अंतरराष्ट्रीय लुटेरे डॉ जेम्स और उसकी कई एकड़ में फैली आदिवासी गांव की तबाही ला रही महत्त्वाकांक्षी परियोजना को नेस्तनाबूद किया जाता है।

आदिवासी समाज का शोषण कई तरीकों से किया जाता रहा है। कभी महाजनी शोषण, जमींदारी शोषण सबसे बड़ी समस्या थी। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इनके संसाधनों की लूट, सरकारों द्वारा बनाई जाने वाली आदिवासी विरोधी नीतियां, भ्रष्ट आदिवासी अधिकारी वर्ग, बड़ी राजनीतिक पार्टियों और माफिया के इशारों पर इस्तेमाल हो रही आदिवासी राजनीति इसकी बड़ी समस्या बनी हुई है। इसके अलावा एक बहुत ‘खूबसूरत’ समस्या और है। सोमेश्वर मुंडा जयपाल सिंह मुंडा की तरह विदेश तक पढ़ कर काबिल हुए आदिवासी हैं, इसी काबिलियत पर रीझ कर एक विदेशी बाला उनसे शादी करती है और बाद में सोमेश्वर मुंडा की प्रतिभा और ताकत का इस्तेमाल कर निकल भागती है। इसी तरह अनिल पोद्दार आदिवासी लड़कियों से प्रेम करता है, उनका विश्वास जीतता और छत्तीस झूठी शादियां करके आदिवासियों की संपत्ति हड़प लेता है।

प्रकाश लुईस ने एक जगह लिखा है कि आदिवासी महिलाओं से शादी करके उनकी संपत्ति को लूटा जाता रहा है। तो क्या आरक्षण से मिलने वाली नौकरियों और कई अन्य योजनाओं से मिलने वाली सरकारी सहायता को ध्यान में रख कर आदिवासी बालाओं से गैर-आदिवासी लोग खूब ‘प्यार’ और ‘दांपत्य’ बना रहे हैं? उपन्यासकार इस ओर हल्का इशारा भर करता है। इसी तरह अब यह भी देखने में आ रहा है कि नक्सलवाद से आदिवासियों का किसी प्रकार भला होता नहीं दिख रहा है, बल्कि जातीय सेनाओं को नक्सलवाद सेनानी उपलब्ध करा रहा है। नक्सलवाद के बहाने निर्दोष आदिवासी कार्यकर्ताओं को मारने का बहाना पुलिस को मिल रहा है।

रणेंद्र ने मुंडा समाज का बारीकी से अध्ययन किया और उसकी समस्याओं को गहराई से समझा है। इसलिए पूरी तरह आदिवासी उपन्यास न होने के बावजूद यह आदिवासी समाज और साहित्य-विमर्श के लिए एक जरूरी रचना बन गया है।

गायब होता देश: रणेंद्र; पेंगुइन बुक्स, 11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली; 250 रुपए।

 

 

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