पंजाब के लोकचित्त में ‘योग’ की जगह ‘भक्ति’ से ऊपर है। वहां के लोकगीतों में रांझे के योगी हो जाने की घटना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लोक-सांस्कृतिक घटना हो गई है। यह योग कोई दैहिक आध्यात्मिक साधना की गंभीरता ओढ़कर जीने वाला योग नहीं है। इसके लिए ‘इश्क’ की जगह उससे ऊपर है। वह केवल एक ‘साधन’ है, इश्क तक पहुंचने का। इसलिए वारिस शाह रांझे के, मुसलमान होने के बावजूद, योगी हो जाने का आख्यान रचते हैं। यह अलग तरह का ‘प्रेमी’ कोटि वाला ‘योगी’ या ‘जोगी’ है, जो हमारे लोकचित में एक ‘नायक’ की हैसियत पा गया है। पंजाब में इस निर्गुण भक्तिधारा के भीतर से विकसित और प्रकट होती है- गुरमत भक्ति-धारा।

यहां मुख्य सवाल यह है कि वह योग को पराजित कर वर्चस्वी होने में कैसे सफल होती है? इसी के भीतर से प्रकट होता दूसरा सवाल कि उसका स्वरूप क्या है? क्या वह कुलीनों की सियासत द्वारा लोकमत को दमित किए रखने का कोई आयोजन है, या कुछ और? इससे इस बात को लेकर भी संदेह पैदा होता है कि कहीं ‘निर्गुण भक्ति’ भी कोई आरोपित विचारधारा ही तो नहीं है? पर क्या वह हमारे लोकचित्त की वास्तविक प्रतिनिधि नहीं है?

ये सवाल तब और भी मौजूं हो उठते हैं, जब हम इस अंतर्विरोध के एक अन्य पक्ष को हिंदी पट्टी के लोक-चित के संदर्भ में, एक अन्य शक्ल अख्तियार करता पाते हैं। हमें दिखाई देता है कि वहां सगुण भक्तिधारा समांतर विकास करती है। वह अपना वर्चस्व कायम करने के लिए निरगुनियों को ‘रामनाम जपु नीच!’ जैसे अपशब्दों द्वारा चेताती और चुनौती तक देने लगती है। ऐसा करके वह लोकचित्त को व्यापक रूप में समाहित-संचालित करती दिखाई देती है। उसके धर्म-वर्चस्वी हो जाने की वजह से निरगुनियों वाली धारा अंतत: पंथों के सीमित सांप्रदायिक समूहों तक महदूद होकर रह जाती है।

निर्गुण भक्ति के ‘गुरमत’ वाले रूप द्वारा योग के अपदस्थ होने के बाद, उसके सगुण भक्ति में आत्मसात और विलय होने की घटना भारत के सांस्कृतिक इतिहास की महानतम दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में से एक है। इसने हमारे लोकचित्त और उसकी सांस्कृतिक धाराओं को परिधि पर ले जाकर पटक दिया। योग मानव-देह पर आधारित दर्शन के रूप में हमारे सामने मौजूद होता है। उसमें हमारी वह तमाम श्रमशीलता और सृजनशीलता रहती है, जिसकी बुनियाद पर मानव समाजों की रचना हुई है। मानव-देह से ज्यादा आदिम, अहम और पवित्र वस्तु दूसरी नहीं है। योग का अर्थ है- जोड़। किसका, किससे जुड़ना है यह? यह वह मार्ग है, जिस पर चलते हुए हम अपनी खोई हुई सृजनात्मक श्रमशीलता वाले ‘स्वरूप’ के साथ पुन: जुड़ सकते हैं।

सृजनशील आचरण की तरह योग ने लोक में अपनी सहज-सिद्ध जगह बनाई है। पर इससे हम इस बात की व्याख्या कर पाने से चूक जाते हैं कि भक्ति हमारे यहां निम्न वर्गों में सांस्कृतिक-स्वतंत्रता और मुक्ति का अवसर कैसे पैदा कर पाती है? और यह भी कि अनेक निरगुनिए संत, वंचित लोगों की जमातों से कैसे उभर आते हैं? निरगुन भक्ति-धारा केवल धर्म-संप्रदाय मूलक नहीं है। वह एक तरह की सामंतीय दौर की आत्मरक्षात्मक प्रवृत्ति का परिणाम है। निश्चय ही आत्मविकास की यह सुविधा ‘भक्तिभाव’ के तहत संभव नहीं थी, क्योंकि भक्ति तो होती ही ‘अन्य के लिए’ है। वह ‘आत्म’ का नहीं, ‘आराध्य’ या ‘स्वामी’ का हित साधने वाली वस्तु है। इसलिए ‘आत्म-साधन’ के लिए वहां एकदम दूसरी चीज दिखाई देती है और वह है ‘भक्ति’ के तहत ‘योग’ का नए रूप में अभ्युत्थान। खासकर कबीर और रैदास में हमें योग की यही जमीन दिखाई देती है।

दलित वर्गों से आए संतों की विचारधारा अगर सांस्थानिक धर्म का रूप लेने में कामयाब हो जाती, तो इससे जन्म लेने वाली कट्टरता और संकीर्णता, सामाजिक अग्र-विकास के रास्ते में आकर खड़ी हो जाती। भक्तिकाल में निर्गुण संतों के अलावा जो दूसरी सगुण धाराएं चलीं, वे मानसिक अमूर्त की जगह किन्हीं साकार अवतारों को अपना आधार बना कर चलीं। अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने अपने आराध्य अवतारों की चरित-कथाओं को चुना।

भारत में लोक-कथाओं की ‘योग-मूलक’ जमीन को एकाग्र-विवेचन द्वारा समझना समझाना अभी शेष है। हिंदी आलोचना का सारा ध्यान ‘भक्ति’ पर जिस तरह केंद्रित रहा है, उसने एक ‘आरोपित वस्तु’ को ‘असल वस्तु’ की तरह प्रचारित करने का काम किया है। अंतत: आधुनिक काल में गांधी इस रीति-भक्ति को पुन: एक मोड़ देकर राम-भक्ति की ओर लाने की कोशिश करते हैं। इसमें कुछ विद्वानों को तुलसी का पुनरुत्थान नजर आ सकता है। पर ध्यान से देखें तो गांधी की असल दिलचस्पी ‘राम राज्य’ में है, राम-नाम में नहीं। उस तक पहुंचने का उपाय ‘भक्ति’ नहीं, ‘योग’ के यम-नियम हैं। उनकी मार्फत वे चित्त-शुद्धि या आत्म-शुद्धि तक पहुंचते हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के प्रयोगों से गांधी का पूरा जीवन भरा हुआ है और शौच, संयम, ईश्वर- प्रणिधान आदि के बिना वे एक कदम भी नहीं चल पाते। गांधी ‘योग’ के समाज-राजनीतिक रूप के अंतर्विकास की भूमिका बनाते हैं। भले ही वह दार्शनिक स्तर पर बहुत गहरे में नहीं उतरती।

लोकचित्त को समझने और उसमें प्रवेश करने के लिए योग की भूमिका गहरे सूत्रों-संकेतों और संभावनाओं से युक्त है। पर वह अभी तक ‘भक्ति के आरोप’ से निजात पाने में कामयाब नहीं है। भक्ति, रहस्यवाद या वेदांत- ये सभी ठोस पदार्थमय जमीन और दैहिक आधारों से टूट कर अधर में लटकने वाली आदर्शवादी चिंतन-पद्धतियां हैं। ये लोकचित्त को गुमराह करके कुलीनों या वर्चस्वियों के स्वार्थमय हित-साधन में मदद करती हैं। हमारे वास्तविक ‘आधार’, जमीनी लोक-सांस्कृतिक परिदृश्य के भीतर छिपे हैं। उन्हें भ्रांत आरोपणों को भरसक परे हटाते हुए पुन: खोजना और विकसित करना होगा। यही हमारी वास्तविक चिंता है।