भारतीय देवी-देवताओं द्वारा जिन हिंसक पशुओं को अपना वाहन बनाया गया है, वे लोकचित्त की स्मृतियों में अधिक गहराई में उतर गए मालूम पड़ते हैं। उनका संबंध सभ्यता के उस आरण्यक काल से है, जिसमें मनुष्य और पशु के बीच के रिश्ते प्रगाढ़तम थे। ऐसे मिथकों में यम का भैंसा, शिव का नंदी, दुर्गा का सिंह, विष्णु का गरुड़ और इंद्र का ऐरावत हाथी- पाशव हिंसा की अतिशक्तिशाली अभिव्यक्ति करते अक्सर दिखाई देते रहते हैं। मगर इन पर सवारी करने वाले देवता उनकी हिंसा-वृत्ति को नियंत्रित करने का प्रयास भी करते हैं। इस तरह वे उन्हें सभ्य होते मानव समाजों के लिए हितकारी बनाने की कोशिश करते हैं।
यम केवल मृत्यु के देवता नहीं हैं, वे धर्मराज भी हैं
हिंसा के इन मिथकीय रूपों के सामाजिकीकरण और सभ्यताकरण को समझना हो तो यम के मिथक पर निगाह डालें। यम केवल मृत्यु के देवता नहीं हैं, वे धर्मराज भी हैं। भैंसे पर सवारी करने वाला यमराज जिसे चाहता है, मारकर अपने साथ ले जाता है। तथापि उसके हाथों होने वाली हमारी मृत्यु, जैसे उसके द्वारा की गई हिंसा नहीं कहलाती। हिंसा का यह अपरिहार्य अजेय रूप, जैसे एक प्राकृतिक विधान में बदल जाता है। मिथकों के पीछे मौजूद सामाजिक-राजनीतिक अर्थों को ‘डीकोड’ करें, तो यम, मनुष्यों की दैहिक परिणति और कर्म नियति वाली जरूरत का पर्याय है। इसीलिए वह अनिवार्य है और इसीलिए वहां ‘प्रतिहिंसा’ की कोई गुंजाइश नहीं है, वहां एक सच्चा मानवीय या कुदरती न्याय होता है।
सभ्यता के दौर में काफी बदलाव आता है
पर सभ्यता के विकास के अगले दौर में यह मिथक, कुदरती मौत से संबद्ध कर्मन्याय की आदिम व्यवस्था के बाहर चला जाता है। इस अगले दौर में हम पाते हैं कि स्वर्ग पर देवों का पक्के तौर पर कब्जा हो गया है। साधन और भोग्य पदार्थ, समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के हाथों में, उसके सनातन अधिकार की तरह केंद्रित-स्थित हो गए हैं। इसलिए साधन-च्युत वर्ग के दानव या असुर, उस पर अपने अधिकार के लिए बार-बार चढ़ाई करते हैं। उसे आदिम सभ्यता वाले दौर के एक तरह के वर्ग-संघर्षों की कथा के रूप में देखा जा सकता है।
मिथक के इस पक्ष को ध्यानपूर्वक ‘डीकोड’ करने पर हमें इसमें अपने समय की क्रांति- चेतना की व्याख्या के लिए उपयोगी आद्य विचार-प्रारूप मिल सकते हैं। सावधानी के साथ देवासुर संग्रामों की व्याख्या करने पर हम अपने समय के लिए उपयोगी इस विचार सूत्र तक पहुंच सकते हैं कि वर्ग संघर्ष के जरिए केवल सत्ता परिवर्तन वाली क्रांतियां कभी स्थायी नहीं रह सकतीं। एक-न-एक दिन और बड़ी जल्दी वे उखड़ जाती हैं।
इसे ब्रह्मा के ‘द’ शब्द के उपदेश बाले मिथक में पेश किया गया है। असुरों को जो मानवीय मूल्य दिया गया है, वह है दया यानी ‘प्रतिहिंसा’ की प्रवृत्ति का त्याग। देवों को ‘दमन’ या आत्मसंयम की सलाह दी गई है, ताकि वे खुद ही सारे भोग्य पदार्थों को चट न कर जाएं। और समाज के शेष वर्गों में उनके न्यायपूर्ण वितरण की व्यवस्था के अधिकार की रक्षा की जा सके। मनुष्यों को संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण का यह अधिकार, देवों के आत्म-संयम वाले सुशासन में ही मिल सकता है। पर बदले में उन्हें भी, ‘द’ यानी ‘दान’ करना पड़ता है। वह इस अर्थ में कि जो मिला है उसे मिल-बांट कर इस्तेमाल करना चाहिए।
इस विचार-सूत्र को आगे बढ़ाएं तो कह सकते हैं कि मौजूदा दौर के भोगवाद या उपभोक्तावाद की जमीन आसुरी सत्ता के बीजों को अंकुरित होने में अधिक मदद करती है। धरती के अधिकांश संसाधन, भोग्य पदार्थों के मुनाफावादी उत्पादन करने-कराने में खप जाते हैं। पर मुनाफाखोरी, लालच के रूप में, ‘आसुरी प्रवृत्ति’ में बदल जाती है। इसीलिए भोगवादी मूल्यचेतना वाले सत्ता परिवर्तन से आई क्रांति का कोई बड़ा भविष्य नहीं होता। आत्मसंयमी जीवनशैली वाले देवों का शासक होना एक स्थायी व्यवस्था है। इस तरह मिथक हमें वर्गमूलक विचारधारा को सामाजिक मूल्यों के विमर्श में बदलने की दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं।
खुद मिथकों का अंतर्विकास इसी रूप में होता है। सभ्यतामूलक इतिहास की कथाओं से, अगले विकास-चरण वाले मिथक, संस्कृति-विमर्श की कथाओं में बदल जाते हैं। जैसे भारत के समाज में जाति के रूप में सामंती काल का श्रम विभाजन और वर्ण के रूप में कबीलाई दौर का कुल-गोत्र वाला विभाजन, आज भी जड़ें जमाए हुए है। वह सामाजिक व्यवहारों को दूर तक प्रभावित भी करता है। इसलिए मिथकीय चेतना के रूप में जब जातीय स्मृति मनुष्य को अपने समय में उपलब्ध होती है, तो उसका उस स्मृति से न सिर्फ तालमेल बैठ जाता है, बल्कि वह उस अतीत-विवेक से कुछ रौशनी भी प्राप्त करती है। उसे अपने समय के अंतर्विरोधों को सुलझाने के लिए, उस स्मृति से मदद भी मिल जाती है।
इन मिथकों की अंतस्संरचना इंद्र बनाम असुर के संघर्षपूर्ण रिश्तों से ताल्लुक रखती है। जंगलों में आग लगाकर, कृषि योग्य जमीन के विकास का एक नया दौर शुरू होता है। पर हम पाते हैं कि इस संघर्ष में जंगलों के रक्षकों का आखिरकार विनाश होता है। विजय तो आर्थिक विकास के अगले दौर से जुड़ी आर्थिकता से निकली सत्ता व्यवस्था की ही होती है। इससे हम अपने आधुनिक-उत्तराधुनिक पूंजीवादी विकास के मौजूदा दौर को जोड़ सकते हैं। हमारे सामने एक अन्य तरह का मोर्चा खुला हुआ है। हम अवैध भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों के विस्थापन के संकटों के रूबरू आ खड़े हुए हैं। इस संदर्भ में यह मिथक हमें ‘मानवीय’ या ‘अहिंसक प्रतिरोध’ के रास्ते तलाशने की दिशा दिखाता है।