एक बात जिस पर हम सब लोग सहमत हो सकते हैं, वह यह कि अपने विचारों, नीतियों और कार्रवाइयों को प्रचारित करने में भाजपा या मोदी सरकार जितनी कामयाब रही है, उतनी कोई भी सत्तारूढ़ पार्टी या सरकार कामयाब नहीं रही। और इस काम के लिए वे कितना ही खर्च कर डालेंगे, सहयोगी पर धौंस जमाएंगे, नतीजे भुगतने की धमकी दे देंगे और किसी भी संस्थान को बर्बाद कर डालेंगे। अतिशयोक्ति तो इनमें कुदरती इतनी ज्यादा है कि इस साल फरवरी तक ये कहते रहे कि भारत दुनिया में सबसे तेज बढ़ती पांचवी अर्थव्यवस्था है, जबकि सच्चाई यह थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से फिसलती हुई रसातल में जा रही थी।

प्रचार का एकमात्र मकसद नरेंद्र मोदी को देश के सबसे महान नेताओं की कतार में खड़ा करना है। इस दशक में सबसे बदतर आर्थिक हालात का सामना करने वाले देश (जिसमें लगातार आठ तिमाहियों में वृद्धि दर गिरती चली गई और 2020-21 की पहली तिमाही में शून्य से 23.9 फीसद नीचे पहुंच गई) में अब कोशिश यह हो रही है कि मोदी को एक मजबूत आर्थिक सुधारक के रूप में पेश कर दिया जाए। इस कड़ी में हाल में डा. अरविंद पानगड़िया शुमार हो गए हैं। उनका मानना है कि मोदी ने राव और वाजपेयी की तरह ही अपने को आर्थिक सुधारक के रूप में स्थापित कर लिया है। ध्यान दें, कि इस सूची में डॉ. मनमोहन सिंह शामिल नहीं हैं। अपनी दलीलों के पक्ष में डा. पानगड़िया पांच सुधारों को गिनाते हैं।

1- दिवाला और दिवालियापन संहिता : इस विचार की उत्त्पत्ति सबसे पहले रघुराम राजन रिपोर्ट (2008) में हुई थी, जिसे 2013 में सचिवों की एक समिति ने तैयार किया और फिर 2013-14 में विधेयक का मसविदा बना। मोदी सरकार ने इसे पास कर कानून बनाया। इसमें कई खामियां थीं, जिन्हें दूर करने के लिए कई संशोधन विधेयक लाए गए, लेकिन अब भी इस पर काम चल रहा है। आइबीसी के इन चार सालों के नतीजे संतोषजनक नहीं रहे हैं। इसका यश और अपयश दोनों मोदी को मिलने चाहिए।

2- श्रम कानून सुधार : नियमों को संहिताबद्ध करना प्रशासनिक काम है, लीक से अलग कोई नया सुधार नहीं। प्रतिष्ठानों में कामगारों की छंटनी के लिए अनिवार्यता सौ से बढ़ा कर तीन सौ कर देने के सिवाय, चार संहिताओं के जो दूसरे प्रावधान हैं, वे हाशिए के सुधार ही हैं। यहां तक कि पूंजीवादी देशों में जहां यूनियनें काफी शक्तिशाली हैं, किसी भी कामगार को ‘उपयुक्त कारण’ को छोड़ कर बर्खास्त नहीं किया जा सकता। यूनियनें मनमर्जी से निकाले जाने के खिलाफ संघर्ष करती हैं।

भारत जैसे देश में जहां बहुत ही कम संख्या में कामगार संगठित हैं, सिर्फ कानून का संरक्षण है। उचित कारण हो तो आज भी किसी कामगार को निकाला जा सकता है। नई संहिता की बदौलत अब कामगारों को अस्थायी और ठेके पर रखने (कामगार मुहैया कराने वाले ठेकेदारों के जरिए) के मामले बढ़ेंगे। काम की जगह पर दक्षता और उच्च उत्पादकता के लिए नौकरी की सुरक्षा एक शक्तिशाली प्रोत्साहन होता है। कामगार जो थोड़ी-सी सुरक्षा महसूस कर रहे हैं, वह भी छीनी जा रही है और यहां तक कि भारतीय मजदूर संघ (जो आरएसएस से संबद्ध है) तक इसीलिए इसका विरोध कर रहा है। सही मायनों में श्रम सुधार तो यूनियनों और कामगार तबके के साथ विचार-विमर्श करके किए जाने की जरूरत है।

3- कृषि कानून : नए कृषि कानूनों के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही बेहतर है। कृषि उपज की खरीद की मौजूदा व्यवस्था में कई समस्याएं हैं, जिनमें सुधार की जरूरत है, लेकिन नए कानूनों में जो इलाज सुझाया गया है वह बीमारी से भी बदतर है। मैं अपने इस विचार को दोहराता हूं कि दोषपूर्ण मंडी व्यवस्था को कमजोर कर देना कोई समाधान नहीं है।

समस्या का समाधान तो बड़े गांवों और छोटे शहरों में हजारों किसान मंडियां बनाने से होगा, जहां खरीदार और विक्रेता दोनों सौदा कर सकें और जहां अधिसूचित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर सौदा न हो। कारपोरेट की घुसपैठ को तो छोड़िए, पूरी तरह से अनियंत्रित माहौल में सौदे को सुधार नहीं कहा जा सकता। हम डा. पानगड़िया की दलील को स्वीकार करें, इससे पहले उन्हें यह बताना होगा कि देश के सबसे ज्यादा उत्पादक किसान जो पंजाब और हरियाणा में हैं, आखिर सड़कों पर क्यों उतरे हुए हैं।

4- चिकित्सा शिक्षा में सुधार : मेडिकल काउंसिल आॅफ इंडिया (एमसीआइ) की जगह नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) बना कर जो क्रांतिकारी सुधार किया गया, उसमें नया क्या है, यह मेरी समझ में नहीं आता। कई सालों तक एमसीआइ को उस शख्स ने नियंत्रित किया जो मोदी का दोस्त था और है। एमसीआइ के विकल्प का विचार यूपीए के कार्यकाल में आया था। इसका प्रमाण आयोग के स्वतंत्र कामकाज में मिलेगा। डर इस बात का है कि एनएमसी पर भी भाजपा का कब्जा हो जाएगा, सरकार के जरिए या फिर किसी और तरीके से जैसा कि विश्वविद्यालयों सहित कई संस्थाओं के साथ हुआ है।

5-एफडीआइ को उदार बनाना : भाजपा ने नरसिंह राव और डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में विदेशी निवेश को उदार बनाने का हर स्तर पर विरोध किया था। विदेशी निवेशकों सहित निजी क्षेत्र के लिए बीमा क्षेत्र को खोलने का पहला विधेयक 1997 में मैंने पेश किया था, जिसका भाजपा ने कड़ा विरोध किया था और यह पास नहीं हो सका था।

खुदरा क्षेत्र में भी एफडीआइ का भाजपा ने जम कर विरोध किया था। तब वाजपेयी सरकार और अब मोदी सरकार का एफडीआइ को लेकर हृदय परिवर्तन हो गया, और मैं इसका स्वागत करता हूं। लेकिन यह कोई सुधार नहीं है, जिसका श्रेय डॉ. पानगड़िया अपने नायक को दे रहे हैं।

मेरे विचार से मोदी सजग नेता हैं, जिनका क्रोनी पूंजीवाद की ओर जबर्दस्त झुकाव है। वे शुरुआती कब्जों, एकाधिकार को समर्थन देते हैं। अगर वे वाकई ठोस और वास्तविक सुधार करना चाहते हैं, जो वे लोकसभा में अपने को मिले बहुमत के सहारे कर सकते हैं, और जो न नरसिंह राव ने और न ही डॉ. मनमोहन सिंह ने किया, तो उसकी एक सूची साथ में रखी जा सकती है। आखिरकार सुधार की कसौटी यह है कि क्या सुधार ने जीडीपी को बढ़ाने में कोई योगदान दिया। डॉ. सिंह के नेतृत्व में जो उत्कर्ष के साल रहे, उनके मानकों और कसौटी पर कोई सवाल नहीं है और उसी ने उन्हें सर्वोत्कृष्ट सुधारक का दर्जा दिलाया। नरेंद्र मोदी अपने को आर्थिक सुधारकों के बीच रखना चाहें, तो इसके लिए जरूरी है कि वे कुछ करके दिखाएं।