कोलकाता में ‘सामूहिक बलात्कार और हत्या की घटना जब तक सुर्खियों में रही, तब तक कुछ ‘देवता’ बोलते दिखे कि ‘इस्तीफा दो, इस्तीफा दो’, लेकिन कई ‘देवता’ और बहुत से स्त्रीवादी उदारवावादी भी चुप्पी साधे दिखे। जैसे ही बदलापुर के स्कूल में दो बच्चियों के यौन शोषण की खबर आई, वैसे ही अब तक खामोश रहे लोग चैनलों में जोर-शोर से बोलने लगे कि ये हाल है ‘बदलापुर’ की कानून-व्यवस्था का… हमारी मांग है… इस्तीफा दो इस्तीफा दो..! इस तरह कोलकाता की घटना कुछ देर किनारे हुई और बदलापुर की स्कूली बच्चियों के यौन शोषण की घटना चैनलों में मुख्य कहानी बनने लगी।
पीड़ित और जवाबदेह दोनों ही न्याय के लिए करते रहे प्रदर्शन
रेलवे स्टेशन पर शिंदे सरकार विरोधी प्रदर्शन जोर-शोर से चलते रहे और विपक्षी नेता राज्य सरकार पर आरोपों के गोले बरसाते रहे, जबकि मुख्यमंत्री कहते रहे कि आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है, स्कूल प्रशासन पर कार्रवाई की गई है, लेकिन विपक्ष फिर भी गोले दागता रहा। लेकिन फिर एक-दो दिन के बाद ही टीवी की खबरों और बहसों की सारी जगह कोलकाता के अस्पताल में हुई बर्बर घटना ने ले ली। ‘कोलकाता’ और बाकी देश के डाक्टर ‘न्याय’ के लिए प्रदर्शन करते रहे और जो ‘जवाबदेह’ माने जा रहे थे, वे भी प्रदर्शन करने लगे।
कोलकाता घटना पर सर्वोच्च अदालत को मामले का स्वत: संज्ञान लिया
इसे देख एक एंकर सवाल करता दिखा कि यह कैसा विरोध प्रदर्शन है जो अपना ही विरोध कर रहा है! यों प्रशासन ने सारे उपाय कर लिए, गुंडों ने डाक्टरों पर हमले किए और तोड़फोड़ की, फिर भी विरोध थमा नहीं और विरोध इतना व्यापक रहा कि बंगाल के फुटबाल खिलाड़ी तक विरोध की आवाज उठाते दिखे, जिसे देख प्रशासन को एक मैच तक रद्द करना पड़ा! अलग-अलग खेमों के विरोध प्रदर्शनों के बाद अपराध पर पानी डालने और अपराधी को बचाने की कला इस सप्ताह और परवान चढ़ी। अच्छा हुआ कि सर्वोच्च अदालत ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया और राज्य पुलिस की जांच में कई झोल को लेकर सवाल किए और बताया कि पुलिस रपट और सीबीआइ की रपट के बीच बहुत अंतर है। पुलिस ने जांच की ‘एसओपी’ का पालन नहीं किया… बहस के बीच एक न्यायाधीश महोदय को तो यहां तक कहना पड़ा कि अपने तीस साल के करिअर में मैंने ऐसा नहीं देखा!
इस पर भी ‘बचाने वाले’ टीवी पर आकर अपने पक्ष को बचाते रहे। कुछ कहते रहे कि कोलकाता पुलिस ने तो तुरंत एक ‘आरोपी’ को गिरफ्तार किया, लेकिन सीबीआइ ने अब तक क्या किया! फिर कुछ एंकरों और चैनलों पर ही बरस पड़ते कि ये मीडिया पक्षपातपूर्ण तरीके से काम कर रहा है। ये सारे सवाल राज्य सरकार से कोलकाता पुलिस से करते हैं, सीबीआइ से एक सवाल नहीं करते। फिर कुछ पीड़ित को ही कठघरे में खड़ा करने लगते और एकाध नेता धमकियां तक देने लगते कि अंगुली काट डालेंगे। फिर कुछ चैनलों पर अस्पताल का एक ‘विसलब्लोअर’ आया, जिसने बताया कि उसने सरकार को आरजी कर अस्पताल के प्रभारी की नाक के नीचे चलते ‘भ्रष्टाचार’ और कुछ अवैध धंधे जैसे ‘बायोमेडिकल कचरे’ के ‘स्मगल’ करने के बारे में विस्तार से लिखा था, लेकिन कुछ न हुआ। इसकी भी जांच होनी चाहिए।
इसी बीच एक दिन झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने एक खबर बनाई कि उनको पार्टी से बाहर जाने पर मजबूर किया गया। मीडिया ने ‘कयास’ भिड़ाए कि वे भाजपा में जा रहे हैं, लेकिन उन्होंने उसी तरह मुस्कराते हुए साफ कर दिया कि वे फिलहाल कहीं नहीं जा रहे। फिर एक चैनल ने दिया तीन राज्यों की विधानसभाओं के भावी चुनावों का ‘पोल ट्रेकर’ कि अगर आज चुनाव हों तो भाजपा हरियाणा से तो गई समझिए। हो सकता है वह झारखंड में जीत जाए… बाकी जम्मू-कश्मीर में मामला त्रिकोणात्मक रहेगा! ट्रेकर ने नई बात यह बताई कि मोदी की लोकप्रियता इक्यावन फीसद है, तो राहुल की लोकप्रियता इकतालीस है। यानी राहुल की बढ़ी है।
फिर एक शाम खबर आई कि प्रशासनिक पदों पर ‘लेटरल इंट्री’ के लिए लाए गए संघ लोकसेवा आयोग यानी यूपीएससी के विज्ञापन को सरकार ने रद्द कर दिया है। चैनलों में सरकार एक बार फिर पीछे हटती दिखी। बहसों में साफ हुआ कि इस मामले में पीछे हटने का कारण सहयोगी दलों का विरोध रहा। दलितों के अखिल भारतीय बंद का भी असर दिखा। बहसों में विपक्ष के एक प्रवक्ता ने कहा कि ये हमारी जीत है… इसका श्रेय उनके नेता को है, जिन्होंने इसका सबसे पहले विरोध किया और सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। कुछ प्रवक्ताओं ने प्रसन्नतापूर्वक कहा कि विपक्ष के विरोध के कारण सरकार अब तक तीन-चार फैसले इसी तरह वापस ले चुकी है। एक ने चुटकी ली कि अगर वापस ही लेना था तो ‘एलान’ क्यों किया।
इन दिनों विपक्ष के शुद्ध मजे हैं। वह जरा-सी आंखें तरेरता है और उधर सरकार अपने कदम तुरंत वापस ले लेती है। भई, जब अपनी बात पारित नहीं करा सकते, जब उसे लागू नहीं कर सकते तो एलान क्यों करते हो? एक ने तो कह ही दिया कि ऐसी कमजोर सरकार कभी नहीं देखी… कि ऐसे तो चल ली सरकार..!