शास्त्री कोसलेंद्रदास
भारतीय परंपरा में विभिन्न संस्कृतियों की मिलन-बिन्दु का उत्सव चातुर्मास है। संस्कृत भाषा में लिखे पुरातन ग्रंथों में इसका नाम चातुर्मास्य है। इसका इतिहास पुराना है। यह वेदों से शुरू होता है और ब्राह्मण ग्रंथों, धर्मसूत्रों एवं पुराणों में इसका विशद वर्णन मिलता है। यह समझा जा सकता है कि अब चातुर्मास का तात्पर्य उन चार महीनों से है, जो वर्षा काल में आते हैं। पुरातन काल में चातुर्मास के दौरान एक ओर राजाओं का सैन्य अभ्यास रुक जाता था, वहीं साधु-संन्यासियों की धर्म यात्रा पर विराम लग जाता था। वे एक स्थान पर रहकर स्वाध्याय और प्रवचन से लोगों को धार्मिक लाभ देते थे। पर अब आम लोग इसे एक धार्मिक क्रिया से अधिक नहीं मानते।
एक वर्ष, चार चातुर्मास्य
आश्वलायन-गृह्यसूत्र के अनुसार चातुर्मास्य तीन हैं – वैश्वदेव, वरुणप्रघास और साकमेध किंतु कुछ लेखकों ने शुनासीरीय नामक एक चौथा चातुर्मास्य भी सम्मिलित किया है। प्रत्येक चातुर्मास्य को पर्व, अंग या संधि कहा जाता है। प्रत्येक प्रति चौथे मास के अन्त में किया जाता है अत: इन्हें ‘चातुर्मास्य’ संज्ञा मिली है। ये फाल्गुन या चैत्र, आषाढ़ तथा कार्तिक की पूर्णमासी को या पूर्णमासी के पांचवे दिन या साकमेध के दो या तीन दिन पूर्व किए जाते हैं। इनमें तीन ऋतुओं, वसंत, वर्षा एवं हेमंत के आगमन का निर्देश मिलता है, इसलिए यह ऋतु-सम्बन्धी यज्ञ है। शुनासीरीय के लिए कोई निश्चित तिथि नहीं है। अब प्राय: वर्षा काल का सूचक वरुणप्रघास चातुर्मास्य ही रह गया है।
पापमोचन करता है चातुर्मास
डॉ. पांडुरंग वामन काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास में लिखा है कि देवताओं की कृपा प्राप्ति के लिए और गंभीर पापों के फल से छुटकारा पाने के लिए यज्ञ किए जाते थे। शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि अश्वमेध यज्ञ करने से देवताओं द्वारा राजा पापमुक्त होते थे और इससे वे ब्रह्महत्या के पाप से भी मुक्त हो जाते थे। पाप से मुक्त होने का एक साधन है – पाप की स्वीकारोक्ति, जो चातुर्मास्य के वरुणप्रघास से व्यक्त होती है। इन कृत्यों के पीछे केवल इच्छापूर्ति की भावना मात्र ही नहीं थी, जैसा कि यूरोपीय विद्वानों ने कहा है किंतु पापमोचन की भावना भी निहित रहती थी।
चातुर्मास और श्राद्ध
विष्णुधर्मोत्तरपुराण में आया है कि श्राद्ध प्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह एवं प्रपितामह को दिए गए तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे और आपस्तम्ब धर्मसूत्र से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्ध-प्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानव जाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है किंतु यह ज्ञातव्य है कि श्राद्ध शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक वचन में नहीं पाया जाता। यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ, महापितृयज्ञ, जो साकमेध चातुर्मास्य में संपादित होता है एवं अष्टका आरंभिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे।
कठोपनिषद में श्राद्ध शब्द आया है; जो भी कोई अत्यंत विशिष्ट सिद्धांत को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उद्घोषित करता है, वह अमरता प्राप्त करता है। श्राद्ध शब्द के अन्य प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। अत्यन्त तर्कशील एवं संभव अनुमान यही निकाला जा सकता है कि पितरों से संबंधित बहुत ही कम कृत्य उन दिनों किए जाते थे, अत: किसी विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गई किंतु पितरों के सम्मान में किए गए कृत्यों की संख्या में जब अधिकता हुई तो श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई।
आषाढ़ से चातुर्मास
आषाढ़ शुक्ल एकादशी या द्वादशी या पूर्णिमा को या उस दिन, जिस दिन सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है, चातुर्मास्य व्रत का आरंभ होता है। गरुड़पुराण ने एकादशी एवं आषाढ़ी पौर्णमासी को चातुर्मास्य-व्रत कहा है। यह चाहे जब आरम्भ हो, कार्तिक शुक्ल द्वादशी को समाप्त हो जाता है।
चातुर्मास व्रत के नियम
चार मासों तक व्रती को कुछ खाद्य पदार्थ त्याग देने होते हैं, यथा श्रावण में शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध एवं कार्तिक में दालें। कुछ लोग के मत से कुछ या सभी प्रकार के शाक त्यागने होते हैं। व्रती को शय्या-शयन, मांस, मधु आदि त्यागने पड़ते हैं। व्रत समाप्त होने पर व्रती ब्राह्मणों को निमंत्रित कर भोजन कराता है और दक्षिणा देता है और प्रार्थना करता है। यह व्रत आज भी विशेषत: नारियों द्वारा सम्पादित होता है। चातुर्मास्य व्रत में कुछ वस्तुओं के त्याग के फलों के विषय में कृत्यतत्त्व, व्रतार्क, व्रतप्रकाश एवं अन्य मध्यकालिक निबन्धों में मत्स्यपुराण एवं भविष्यपुराण के लम्बे-लम्बे उद्धरण पाए जाते हैं। कुछ वचन निम्न हैं – गुड़-त्याग से मधुर स्वर प्राप्त होता है, तैल-त्याग से अंग सुन्दर हो जाते हैं, घृत-त्याग से सौन्दर्य मिलता है, शाक-त्याग से बुद्धि एवं बहुपुत्र प्राप्त होते हैं, शाक एवं पत्रों के त्याग से पक्वान्न की प्राप्ति होती है तथा दधि-दुग्ध-त्याग से व्यक्ति गोलोक में जाता है।

