सुरेंद्र सिंघल

उत्तर प्रदेश में 1980 के बाद से एक नया सियासी रूझान सामने आया है। जो दल सबसे ज्यादा आरक्षित सीटे जीतता है, उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनती है। उत्तर प्रदेश में दलित आबादी 21 फीसद है। लेकिन चुनावों में उसकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहती है। 2007 में 16 वर्षों बाद बहुजन समाज पार्टी को 89 आरक्षित सीटों में से 62 सीटों पर जीत मिली थी। बसपा ने तब 206 सीटें जीती थीं। मायावती ने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। बसपा का इससे पूर्व प्रदर्शन कभी इतना शानदार नहीं रहा था। 1996 में उसे कुल 67, 2002 में 98 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था और 2012 के विधानसभा चुनाव में यह पार्टी 80 सीटों पर और 2017 में 19 सीटों पर सिमट गई थी।

2012 में हुए विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने 58 आरक्षित सीटें जीती थी और उसकी कुल सीटों की संख्या का आंकडा 224 तक पहुंच गया था। अखिलेश यादव ने पांच साल की पूर्ण अवधि तक शासन किया। 14 वर्ष के वनवास का अंत कर 2017 में भारतीय जनता पार्टी ने रेकार्ड 72 आरक्षित सीटें और कुल 312 सीटें जीती थीं। भाजपा को 1983 में 23, 1996 में 36, 2002 में 35 आरक्षित सीेटें मिलीं। विधानसभा में तभी तक उसकी स्थिति सम्मानजनक रही और वह किसी न किसी तरह सत्ता में रही।

2007 में उसे सात आरक्षित सीटों पर और 2012 में केवल तीन आरक्षित सीटों पर ही सफलता मिल पाई थी। इन दोनों चुनावों में उसकी विधानसभा में सीटें पार्टी की गरिमा के अनुरूप नहीं थी। 2012 में बीजेपी 47 सीटों पर सिमट गई थी और 2007 में उसे 51 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। जाहिर है सरकार गठन में दलित मतदाताओं की करिश्माई भूमिका रहती है।

कानून और संविधान निर्माण में डा. आंबेडकर की भूमिका और योगदान के शोधकर्ता पूर्व आईपीएस एवं कुलपति डाक्टर अशोक कुमार राघव कहते है कि पिछले चुनाव इस मायने में थोड़े लीक से हटकर रहे कि उच्च जाति के विधायकों की संख्या 44.3 फीसद थी। यह 1980 के बाद से सर्वाधिक है। वैश्य और राजपूत विधायकों की संख्या में वृद्धि हुई। राजपूत 44 फीसद, ब्राह्राण 36.62 फीसद और वैश्य 13 फीसद विधायक हैं।अभी ब्राह्राण विधायकों की विधानसभा में हिस्सेदारी 16.8 फीसद है। जबकि 2012 में 16.6 फीसद थी। ब्राह्राणों की स्थिति विधानसभा और विधान मंडल दल में स्थिर है। जाहिर है ब्राह्राणों की उपेक्षा का भाजपा नेतृत्व पर आरोप कही भी सिद्ध नहीं होता है।