पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं। हालत यह है कि उनके विकास या कथित सुशासन के दावे पर, उनके समर्थकों के अलावा कोई विश्वास करने को तैयार नहीं है। सारदा घोटाला, नारद स्टिंग आपरेशन, फ्लाइओवर हादसे के कारण उनकी स्वच्छ छवि लगातार बिगड़ी है। इस बीच रानीगंज के रेलवे की संपत्ति के आरोप में जेल काट चुके तृणमूल कांग्रेस नेता सोहराब अली को सरेआम ‘बेचारा’ बताकर उनकी पत्नी को टिकट देने और उनके पक्ष में प्रचार करने की भी राजनीतिक हलके में निंदा हो रही है।

यह अजीब विडंबना है कि चुनाव प्रचार में झंडे, बैनर, पोस्टर, कटआउट, विज्ञापन बाजी में सभी दलों को बहुत पीछे छोड़ने के बावजूद उनके छोटे-मझोले-बड़े नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार और जबरन वसूली के आरोप अब हर दूसरे जुबान पर है। मतदादाता नाखुश हैं भीतर-भीतर। रिक्शेवाले नाराज हैं, उनके रूट पर ई-रिक्शा उतारने से, जूट मिल वाले बंदी के कारण। रोजगार की तलाश कर रहे नौजवान अवसरों की संभावना की कमी से हताशा से भरे हैं। पिछले चुनाव में परिवर्तन की चाह में सक्रिय बुद्धिजीवी और नागरिक समाज भी तृणमूल से मुंह मोड़े हुए है। ऐसे माहौल में पिछले दिनों उत्तर बंगाल के दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममता और उनकी सरकार की रही-सही कसर उतार दी थी।

बाकी के मामलों में खिंचाई करने के साथ-खाथ उन पर यह आरोप भी जड़ दिया था कि वे विकास के लिए बुलाई गई बैठकों में तो नहीं पहुंचती, पर दिल्ली जाने पर सोनिया गांधी से मिलना नहीं भूलतीं। यानी उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता पर ही सवाल नहीं खड़ा किया, राज्य के हित के प्रति भी उन्हें अगंभीर करार देने की कोशिश की। बंगाल में जहां वाममोर्चे के नेता, कांग्रेसी ममता से मोदी के रिश्ते के किस्से सुनाते रहते हैं। भाजपा से गोपनीय समझौता होने और इसी वजह से उसे तृणमूल की मददगार करार देते रहे हैं। उन्होंने उलट कहानी पेश कर दी। ममता से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की नजदीकी पर चुटकी ली थी। प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘हमारी बुलाई बैठकों में ममता जी भले ही नहीं जातीं। लेकिन अपने दिल्ली दौरे में सोनिया से मिल कर उनका आशीर्वाद जरूर ले लेती हैं।’

इस पर ममता भी कहां चुप रहने वालीं। उन्होंने कह दिया कि क्या वह मोदी की चाकर हैं, जो उनके बुलाने पर जाना ही पड़ेगा। लेकिन राजनीतिक प्रेक्षकों की माने तो मोदी के हमले से लगता तो यही है कि वह ममता के प्रति अब नरम नहीं रहे। प्रकांतर से यह संकेत भाजपा कार्यकर्ताओ-समर्थकों को भी है। यानी कि कोई मोह नहीं रखना है ममता या टीएमसी के प्रति। वोट उनके चाहे जिधर पड़े, जहां उनके उम्मीदवार नहीं हैं। भाजपा बंगाल में घुसपैठ और आतंकवाद को बढ़ावा देने में तृणमूल को कठघरे में खड़ा करती आ रही है। कानून-व्यवस्था के मामले में भी सरकार को घेरती रही है। बावजूद इसकेबाकी विपक्षी दल इसे दिखावे का विरोध बताते रहे हैं। माकपा-कांग्रेस शारदा घोटाले में सीबीआइ को निष्क्रिय रखने का आरोप मोदी सरकार पर जड़ती रही हैं। नारद स्टिंग ऑपरेशन मामले को राज्यसभा की एथिक्स कमिटी के पास भेजने में भाजपा ने अड़चन पैदा की, यह नया आरोप है।

हालांकि, राजनीति के जानकार यह भी देख रहे हैं कि मोदी के बयान कांग्रेस समर्थकों को भी परोक्ष रूप से कुछ इशारा कर जाते हैं। कम से कम उन कांग्रेसियों को, जो माकपा के साथ कांग्रेस के गठबंधन से नाखुश हैं। अगर ऐसे मतदाता, भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करते हैं या फिर मतदान केंद्र तक नहीं भी जाते हैं तो ममता का खेल बिगाड़ने में इनकी भूमिका हो सकती है। वाम-कांग्रेस के गठजोड़ से नाराज लोगों का झुकाव तृणमूल की तरफ ही ज्यादा माना जाता रहा है। जाहिर है, ये लोग मुंह मोड़ते हैं, तो ममता की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी।