प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने का दावा किस आधार पर करती हैं, कोई नहीं जानता। पार्टी की महासचिव होने के नाते उनका सबसे ज्यादा ध्यान बेशक देश के इस सबसे बड़े सूबे पर है। लेकिन 1989 के बाद सूबे की सत्ता से बेदखल हुई देश की सबसे पुरानी पार्टी अपना वनवास खत्म होने का इंतजार ही कर रही है। केंद्र की यूपीए सरकार का 2004 से 2014 तक नेतृत्व करने के बाद भी उत्तर प्रदेश में पार्टी के दिन नहीं फिरे। हां, लोकसभा चुनाव में 2009 में उत्तर प्रदेश में 20 सीटें जीतने के बाद जरूर पार्टी ने सबको हैरान किया था। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी अपने इस प्रदर्शन को नहीं दोहरा पाई थी।
जिन राज्यों में मुकाबला दो पार्टियों के बीच है, वहां तो जरूर कांग्रेस एक विकल्प के तौर पर खुद को पेश कर पाती है पर उत्तर प्रदेश, बिहार और दूसरे उन प्रदेशों में जहां क्षेत्रीय दल भी अपना दबदबा रखते हैं, कांग्रेस के उभार की संभावना नजर नहीं आती। उत्तर प्रदेश में तो पार्टी का नेतृत्व विधानसभा चुनाव में 1996 से ही दुविधा ग्रस्त रहा है। पहली बार 1996 में ही कांग्रेस ने बसपा के साथ तालमेल किया था। अविभाजित सूबे की 425 में से 300 सीटों पर बसपा लड़ी थी और 125 पर कांग्रेस। गठबंधन का यह प्रयोग अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाया था। बसपा 67 और कांग्रेस 33 सीटों पर सिमट गई थी।
बसपा के साथ गठबंधन नाकाम साबित हुआ तो पार्टी ने एकला चलो की रणनीति अपना ली। लेकिन उभार फिर भी नहीं हो पाया। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी सभी संसद में जिस सूबे की नुमाइंदगी करते रहे हैं, वहीं पार्टी की पिछले विधानसभा चुनाव में इतनी बुरी गत हुई कि उसे महज सात सीटों पर ही सफलता मिल पाई। जबकि यह चुनाव उसने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके लड़ा था।
उत्तर प्रदेश में यह मानने वाले कांग्रेस नेताओं की अभी भी कमी नहीं है, जिन्हें लगता है कि राहुल गांधी का दूसरे दलों ने पप्पू कहकर भले मजाक उड़ाया हो, पर प्रियंका गांधी में उन्हें इंदिरा गांधी की झलक नजर आती है। प्रियंका ने कहा भी था कि वे दिल्ली छोड़ अब लखनऊ में ही रहेंगी। पर ऐसा हुआ नहीं। तभी तो विपक्षी मजाक उड़ाते हैं कि राहुल और प्रियंका तो उत्तर प्रदेश में पर्यटन के लिए आते हैं, वे सियासत को लेकर गंभीर नहीं हैं।
कांग्रेस 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर भी भ्रमित है। वह तय नहीं कर पा रही है कि किसी के साथ गठबंधन करेगी या अकेले मैदान में उतरेगी। पार्टी का जनाधार भी लगातार नीचे गया हैै। पिछले चुनाव में सपा से गठबंधन के बावजूद उसे 6.25 फीसद वोट ही मिल पाए थे। दरअसल लोकसभा चुनाव ने उसे और रसातल में पहुंचा दिया। पार्टी के प्रधानमंत्री पद के चेहरे राहुल गांधी खुद अमेठी में स्मृति ईरानी से हार गए। रायबरेली में सोनिया गांधी की जीत का अंतर भी घटा। यह स्थिति तो तब रही जबकि सपा-बसपा ने इन दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे।
जिन सात सीटों पर पार्टी को पिछले विधानसभा चुनाव में सफलता मिली थी। उनमें दो-दो सहारनपुर व रायबरेली जिले की और एक-एक कानपुर, प्रतापगढ़ व कुशीनगर की थी। राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया था। सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र के दोनों विधायक राकेश सिंह और अदिति सिंह भी कई साल से बगावत कर भाजपा के सुर में सुर मिला रहे हैं। कुशीनगर के विधायक अजय कुमार उर्फ लल्लू को पार्टी ने इस उम्मीद से सूबेदार बनाया था कि वे इसमें अपने जोश से प्राण फूंक देंगे।
अगर धरातल पर संघर्ष की बात करें तो लल्लू ने मेहनत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मेरठ के पार्टी कार्यकर्ता पिंकी चिन्योटी का दावा है कि कोरोना के कारण जब देश में पूर्णबंदी लागू थी तो अपने घरों को लौटने के लिए परेशान राज्य के प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए कांगे्रस पार्टी और लल्लू ही आगे आए थे। उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष रोहिताश्व अग्रवाल कांगे्रस के वफादार नेता रहे हैं।
बकौल अग्रवाल मजदूरों का सवाल हो या किसानों के मुद्दे महंगाई का विरोध हो या समाज को बांटने वाली सांप्रदायिक नीतियों का विरोध, केवल कांग्रेस पार्टी ही राज्य की योगी सरकार के खिलाफ जन आक्रोश का चेहरा बनकर सामने दिखी है। सपा और बसपा जैसे सत्ता के दावेदार दल तो साढ़े चार साल तक जन सरोकारों से दूर ही रहे। पर सियासी समीकरणों और उभार की बात करें तो अभी तो सत्तारूढ़ भाजपा से नाराज मतदाता भी कांग्रेस को गंभीरता से नहीं ले रहे। पार्टी के ज्यादातर नेता भी सियासी संभावनाएं खोजने के लिए भाजपा, सपा और बसपा का रुख कर रहे हैं। ताजा उदाहरण पार्टी का ब्राह्मण चेहरा समझे जाने वाले जितिन प्रसाद का भाजपा में जाना है।